मीराबाई का जीवन परिचय | Meera Bai Biography In Hindi

मीराबाई का जीवन परिचय Meera Bai Biography In Hindi: भक्त शिरोमणि मीराबाई का जन्म 1498 में मेड़ता के राठौड़ वंश के राव दूदा के पुत्र रतनसिंह के यहां कुड़की ग्राम में हुआ था.

ऐसी मान्यता है कि मीराबाई का बचपन से ही मन कृष्ण की भक्ति में राम गया था. मीरा बाई का कहना था की”मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई”

मीराबाई का जीवन परिचय Meera Bai Biography In Hindi

मीराबाई का जीवन परिचय | Meera Bai Biography In Hindi

सन 1519 में मीराबाई का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ. लेकिन उसका मन कृष्ण भक्ति में ही रहा.

विवाह के सात वर्ष बाद भोजराज की मृत्यु के बाद मीरां इस संसार से विरक्त हो गई. अपना सम्पूर्ण ध्यान कृष्ण भक्ति पर ही केन्द्रित कर दिया.

Mirabai Life History Story In Hindi

नाममीराबाई
जन्म तिथि1498 ई, गांव कुडकी, जिला पाली
पितारतन सिंह
मातावीर कुमारी
पति का नाममहाराणा भोजराज
मृत्यु1557, द्वारका
लोकप्रिय रचनानरसी जी का मायरा
जयंतीशरद पूर्णिमा

मीराबाई की कृष्ण भक्ति (Meerabai’s Krishna Devotion)

मीरा की भक्ति का मूल आधार श्रद्धा और भक्ति थी. मीरा ने अनेक संतो के साथ सत्संग एवं विचार विमर्श किये. लेकिन किसी एक धारा का अनुगमन नही किया. मीरा सगुण उपासक थी और वह इस पद्दति की श्रेष्ट प्रतिनिधि भी थी.

उनकी भक्ति की शुरुआत कृष्ण के दर्शन करने की इच्छा से होती है, वह कहती है कि ”मै विरहणी बैठी जांगू दुखन लागे नैण” कृष्ण भक्ति की प्राप्ति के बाद वह कह उठती है, पायो जी मैनें रामरतन धन पायो”

“मीराबाई” का समय सामंतीकाल का चर्मोत्कर्ष समय था. ऐसें समय में रूढ़ियाँ, नारी स्वतंत्रता एवं जाति भेद के विरुद्ध मीराबाई ने बहुत साहस के साथ आवाज उठाइ. मीरा ज्ञान पक्ष के स्थान पर सहज भक्ति को अधिक महत्व देती थी.

वह लोकप्रिय भक्त थी. सामान्यजन मीराबाई से प्रभावित थे. आज भी मीरा के पदों को लोक भजनों के रूप में गाया जाता है.

मीराबाई का विवाह और पति की मृत्यु

मीराबाई मेड़ता के रतनसिंह राठौड़ की पुत्री थी. इनका विवाह 1516 ई. में राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ था. किन्तु कुछ समय पश्चात भोजराज की मृत्यु हो गई.

इसी विपत्ति में खानवा के युद्ध 1527 में राणा सांगा की ओर से लड़ते हुए इनके पिता रतनसिंह युद्ध में मारे गये. कुछ समय पश्चात राणा सांगा की भी हत्या हो गई.

इनका अधिकांश समय सत्संग और भजन में व्यतीत होना राज कुल की मर्यादाओं के प्रतिकूल अनुभव कर मेवाड़ के राणा विक्रमादित्य द्वारा मीरा की जीवन लीला समाप्त करने के प्रयास भी अंत साक्ष्य मिलते हैं. भौतिक जीवन से विरक्त मीराबाई राजघर छोड़कर वृन्दावन चली गई.

वहां से द्वारिका जाकर अन्तः वही कृष्ण भक्ति में तल्लीन रही. मीराबाई की भक्ति दैन्य और माधुर्य भाव की हैं. इनका काव्य जीवन सहज जीवन की अभिव्यक्ति हैं. वे श्रीकृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम से अभिभूत हो अपनी अभिव्यंजना श्रीकृष्ण को समर्पित करती हैं.

उनके पदों में प्रेम की पीर, आत्म निवेदन, आत्म समर्पण और विरह वेदना की तीव्रतम अनुभूति की गहराई सर्वत्र द्रष्टिगत होती हैं. उनकी भाषा का मूल रूप राजस्थानी हैं. उसमें ब्रज, गुजराती, अवधि तथा खड़ी बोली की शब्दावली का रसमय सम्मिश्रण हैं.

मीराबाई की रचनाएं

नरसी जी रो मायरों, गीत गीत गोविन्द की टीका, रासगोविंद, मीराबाई की मलार, राग विहाग. सांसारिक जीवन की इस विषम परिस्थतियों में मीरा सन्यास की ओर झुकी. इन्होने अपने इष्टदेव कृष्ण को पति के रूप में माना. इनका मानना था कि परमात्मा ज्ञान अथवा भोग से नही मिलता बल्कि भक्ति प्रेम से मिलता हैं. 

मीरा के ये विचार सूफियों के समान हैं. इसी कारण मीराबाई की तुलना प्रसिद्ध सूफी महिला रुबिया से की जाती हैं, जिन्होंने ईश्वर को पति के रूप में माना.

मीरा ने अनेक कृष्ण भक्ति गीतों की रचना की, जो मुख्यत ब्रजभाषा तथा आंशिक रूप से राजस्थानी भाषा में हैं. इन्होने जयदेव के गीतगोविन्द पर टीका लिखी, इनकी मृत्यु (meerabai death) द्वारिका में हुई.

मीराबाई की मृत्यु – Meerabai death story

स्पष्ट रूप से मीराबाई की मृत्यु के विषय में विवरण उपलब्ध नहीं हैं. उनकी मृत्यु आज भी एक रहस्य है इस सम्बन्ध में अलग अलग कहानियां प्रचलित हैं. विद्वानों की राय भी मीरा बाई की मौत के बारे में अलग अलग हैं.

लूनवा के भूरदान का मानना हैं कि मीरा का मृत्यु वर्ष 1546 में हुई जबकि एक अन्य इतिहासकार डॉ शेखावत मीराबाई की मृत्यु का साल 1548 बताते हैं.

मृत्यु स्थान के बारे में सभी की राय लगभग एक ही हैं, मीरा ने अपना आखिरी वक्त द्वारिका में बिताया और वही उनकी मृत्यु हो गई.

वर्ष 1533 के आसपास मीरा ने मेड़ता में रहना शुरू किया, अगले ही वर्ष बहादुरशाह ने चित्तौड पर आक्रमण कर दिया. मीराबाई राजभवन का त्याग कर वृंदावन की यात्रा पर चली गई. लम्बे समय तक ये उत्तर भारत में यात्रा करती रही.

वर्ष 1546 में ये द्वारिका चली गई. सर्वाधिक लोकप्रिय मान्यता के अनुसार वो द्वारिका में कृष्ण भक्ति में लीन रही और यही मूर्ति में समा गई. मीरा के बारे में यह भी मान्यता हैं कि वह पूर्व जन्म में कृष्ण की प्रेमिका गोपी व राधा की सहेली थी.

राधा से कृष्ण ने विवाह किया तो मीरा ने स्वयं को घर में बंद कर दिया और तडप तडप कर जान दे दी. अगले जन्म में कृष्ण की प्रेयसी के रूप में इन्होने मेड़ता में जन्म लिया, स्वयं मीराबाई अपने एक दोहे में उल्लेख करती हैं.

मीराबाई की जयंती – Meerabai Jayanti

भगवान कृष्ण की सबसे बड़ी प्रेमिका और भक्त कवियित्री मीरा ने न केवल सम्पूर्ण जीवन में कृष्ण की रट लगाए रखी बल्कि अपने शरीर का समापन भी कृष्ण की मूर्ति में समाकर किया. हिन्दू कैलेंडर के मुताबिक़ शरद पूर्णिमा के दिन मीरा की जयंती मनाई जाती हैं.

उनके भजनों और पदों में भक्ति की पराकाष्टा और निश्चल प्रेम के भाव महसूस किया जा सकता हैं. कई हिंदी मूवीज में इनके भक्ति गीतों व पदों का प्रयोग किया गया हैं. प्रभु के प्रति सच्ची चाह से भक्ति की जाए तो एक दिन उन्हें पाया जा सकता हैं. यह मीरा के जीवन से हमें सीखने को मिल सकता हैं.

पद/ दोहे हिंदी अर्थ (meera bai ke pad)

पायो जी मैंने राम रत्न धन पायो
बसत अमोलक दी मेरे सतगुरु करि किरपा अपनायों
जन्म जन्म की पूंजी पाई जग में सबै खौवायों
खर्चे नाहि कोई चोर न लेवे, दिन रात बढत सवायो
सत की नांव खेवटिया सतगुरु, भवसागर तरी आयों
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, हरषि हरषी जस गायों .

अपने आराध्य के प्रति सर्वस्व समर्पण मीरा का स्वर मीरा के पदों में अभिव्यंजित होता हैं. संकलित काव्यांश में मीरा के श्री कृष्ण के प्रति भक्ति भाव का चित्रण तो मिलता ही हैं.

उसके साथ ही अपनी सांसारिक यात्रा में मीरा को जो अनुभव हुआ हैं, उसका आभास भी होता हैं. मीराबाई ने भक्ति रूपी पूंजी की महता बताते हुए उसे अक्षय सम्पत्ति कहा हैं, जिसे न चोरी किया जाए, नही खर्च करने पर कम होने की चिंता रहती हैं.

बसों मोरे नैनन में नन्दलाल
मोहनि मूर्ति, सांवरी सुरति नैना बने बिसाल
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल, अरुण तिलक सोहे भाल
अधर सुधा रस मुरलि राजति उर वैजन्ती माल
छुद्र घंटिका कटीं तट सोभित, नुपुर सबद रसाल
मीराबाई प्रभु संतन सुखदायी भगत बछल गोपाल

कृष्ण के मुरलीधर रूप को ही अपना आराध्य मान, वही छवि अपने मानस में स्थिर करना चाहती हैं. मीराबाई ने माधुर्य बहाव की प्रधान भक्ति भाव से सरल, सुबोध भाषा में विभिन्न पौराणिक प्रसंगों के माध्यम से आत्म निवेदन किया हैं. संकलित पाठ्यांश मीराबाई की भक्ति के प्रमुख आधार को सजीव करता हैं.

करम गति टारे नाहिं टरे
सत वादी हरिचंद से राजा, नीच घर नीर भरै
पांच पांडु अर सती द्रोपदी, हाड़ हिमाले गरे
जग्य कियों वलि लेण इन्द्रासण, सो पाताल धरै
मीरां के प्रभु गिरधर नागर, विख से अमृत करे.

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उम्मीद करता हूँ दोस्तों मीराबाई का जीवन परिचय जीवनी लाइफ स्टोरी हिस्ट्री कहानी Meera Bai Ka Jeevan Parichay Biography In Hindi का यह लेख आपको पसंद आया होगा.

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