रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी निबंध | Essay Biography of Rani Lakshmibai in Hindi

नमस्कार, रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी निबंध Essay Biography of Rani Lakshmibai in Hindi में आपका स्वागत हैं. आज के निबंध, जीवनी के लेख में हम झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई के जीवन के बारे में जानेगे. सरल भाषा में झाँसी की रानी का सम्पूर्ण इतिहास इस आर्टिकल में दिया गया हैं.

लक्ष्मीबाई जीवनी निबंध Essay Biography Rani Lakshmibai in Hindi

रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी निबंध  | Essay Biography of Rani Lakshmibai in Hindi

1857 के स्वाधीनता संग्राम के कालखंड में झाँसी की महारानी लक्ष्मीबाई ऐसी अनुपम महिला थी. जिसका जीवनी, आचरण व कोशल सम्पुरण समाज की प्रेरणा का स्त्रोत हैं. प्रतिभा पुरुषार्थ व प्रखर राष्ट्रभक्ति में वह अद्वितीय उदाहरण हैं.

रानी लक्ष्मी बाई का नाम तो था लक्ष्मी, अत: गुण-धर्म धन-सम्पति की भंडार मानी जानी चाहिए. परन्तु इन्होने अपने व्यवहार से यह प्रकट कर दिया था. कि इनमे असीम साहस था. कोमल कलाइयों में चूड़िया तो धारण करती थी.

परन्तु घोड़े पर सवार होकर करतब करते समय तलवार हाथ में लेकर जो पराक्रम करती थी, जन-जन के जीवन में उत्साह की तरंगे दौड़ उठती थी.

रानी लक्ष्मी बाई का जन्म वाराणसी में 19 नवम्बर 1835 को हुआ था. इनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे व माँ का नाम भागीरथी था. बचपन में इस बालिका का नाम मणीकर्णिका रखा गया था.

परन्तु स्नेह से लोग इन्हें मनुबाई कहकर पुकारते थे. चार वर्ष की अवस्था में रानी लक्ष्मी बाई की माँ का देहावसान हो गया. पिता पर ही उनके लालन-पोषण का भार आ गया, उसी कालखंड में मोरोपंत ताम्बे अपने परिवार को लेकर काशी पहुच गये तथा बाजीराव के आश्रय में रहने लगे.

वहाँ उन्हें छबीली कहकर पुकारा जाने लगा, बचपन से ही रानी लक्ष्मी बाई का नाना साहब पेशवा के साथ अत्यंत आत्मीयता पूर्ण व पवित्रतायुक्त सम्बन्ध था.

वही से तात्या टोपे के साथ उनका सम्पर्क बन गया. नाना साहब के साथ-साथ रानी लक्ष्मी बाई के पराक्रम का परीक्षण प्रारम्भ हो गया था. वे दोनों घोड़े पर चढ़कर अभ्यास करते थे

एवं शस्त्र चलाना सीखते थे. रानी लक्ष्मी बाई का अभ्यास इतना उत्तम था कि उसका कौशल नाना साहब से अच्छा होने लगा. जैसे-जैसे आयु बढ़ने लगी, पिता के मन में रानी लक्ष्मी बाई का विवाह करने का विचार आया.

उन दिनों विवाह अल्पायु में हुआ करते थे वर्ष 1842 में रानी लक्ष्मी बाई विवाह झाँसी के महाराजा गंगाधर राव के साथ सम्पन्न हो गया. उसी समय वह झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई कहलाने लगी. दरबार में वह जनप्रिय हो गईं.

झांसी की रानी की कहानी जीवनी

रानी लक्ष्मी बाई के जीवन में समाज हित के भाव के कारण जन-जन में उनके प्रति भक्ति पनप उठी. महिला सेविकओंव सहयोगिनियो से इनके बेहद आत्मीयतापूर्ण रिश्ते थे.

अत उनको भी शस्त्रास्त्र चलाने का अभ्यास करवाया जाने लगा. कुछ दिनों के बाद रानी लक्ष्मी बाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, परन्तु शैशव में ही उसकी मृत्यु हो गईं.

इसके परिणामस्वरूप महाराजा गंगाधर के मन में असीम वेदना पैदा हो गईं. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि वे भी 21 नवम्बर 1853 को दिवंगत हो गये.

गंगाधर के आकस्मिक निधन के बाद रानी लक्ष्मी बाई ने एक बच्चे दामोदर को गोद ले लिया. पति के दिवगत होने के बाद रानी लक्ष्मी बाई ने राज्य के शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली.

अपने आभूषण उतारकर पुरुष वेश में लक्ष्मीबाई ने दरबार में जाना शुरू किया. कभी-कभी नगर के विभिन्न क्षेत्र में जाकर प्रजा के कष्टों व समाज की समस्याओं की पूरी जानकारी प्राप्त करके उनका निदान करती थी.

इस घटना के उपरांत अंग्रेजी शासकों ने षड्यंत्रपूर्वक रानी लक्ष्मी बाई को न तो झाँसी का आधिपत्य स्वीकार किया और उनके दत्तक पुत्र दामोदर को उनकी सन्तान के रूप में स्वीकार किया.

भारतीय परम्परा के अनुसार दामोदर ही भावी राजा था परन्तु उनकी आयु बेहद कम होने के कारण उसकी माँ रानी लक्ष्मी बाई ही सता का दायित्व सम्भाल रही थी.

अंग्रेजी शासकों ने इसी श्रेणी के उन अनेक लोगों की मान्यता स्वीकार की थी जो अंग्रेजी सता के सहयोगी और समर्थक थे. परन्तु रानी लक्ष्मी बाई और नाना साहब पेशवा के साथ यह व्यवहार नही किया था.

अंग्रेजो का यह व्यवहार रानी को बहुत बुरा लगा. अंग्रेजी शासकों की सुचना व निर्देश पाकर रानी लक्ष्मी बाई हुई और बोल उठी ” क्या मै झाँसी छोड़ दुगी?, जिनमे साहस हो वो आगे आए” उन्होंने अंग्रेजो को ललकारा.

झाँसी का अधिकार छिनना

16 मार्च 1854 को अंग्रेजो ने रानी का राज्य हडप लिया. रानी लक्ष्मी बाई के मन में अंग्रेजो के प्रति घोर असंतोष और घ्रणा पनप गईं. तात्या टोपे ने आकर उन्हें स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने का सुझाव दिया.

उन्होंने क्रांति का दायित्व सम्भाल लिया. अंग्रेजो को मार भगाया और अपने राज्य झाँसी पर पुन: सता स्थापित कर ली. क्रांतिकारियों ने इस क्षेत्र में अंग्रेजो को इतना प्रभावित किया कि सागर, नौगाँव,बांद्रा, बंदपुर, शाहगढ़ तथा कर्वी में अंग्रेजी सत्ता का कोई प्रभाव नही बचा था.

रानी की सर्वत्र जय-जयकार हो रही थी, विध्यांचल से यमुना तक के क्षेत्र अंग्रेजो से मुक्त हो चुके थे. हिन्दू, मुसलमान,सैनिक, पुलिस, राजा, किसान व बहुत सी महिलाएँ व निर्धन लोग संघर्षरत थे सभी का लक्ष्य था स्वाधीनता.

1858 के प्रारम्भ में अंग्रेजो ने हिमालय की समस्त भूमि को क्रांतिकारियों से छिनकर अपने सत्ता स्थापित करने की योजना बनाई. अंग्रेजो की ओर से यमुना व विध्यांचल तक के क्षेत्र को क्रांतिकारियों से मुक्त करवाने का दायित्व सर ह्यूरोज को सौपा गया, अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित तथा वह बहुत सी तोपों के साथ निकल पड़ा.

उसकी सहायता के लिए हैदराबाद, भोपाल व कई अन्य राज्यों के सैनिक मिल गये. सर ह्यूरोज महू से चलकर झाँसी होते हुए कालपी पहुचने का निश्चय कर चूका था. उसने 6 जनवरी 1858 को रायगढ़ के दुर्ग पर कब्जा कर लिया.

क्रांतिकारियों द्वारा बंदियों को मुक्त कर दिया. उसके बाद वह 10 मार्च को दानपुर पंहुचा और चंदेरी के सुप्रसिद्ध दुर्ग पर अधिकार कर लिया. वह आगे बढ़ता गया. उसने 20 मार्च को झाँसी से चौदह मील दूर पड़ाव ड़ाल दिया.

झाँसी के पास शत्रु की सेना के आगमन का समाचार पाते ही रानी लक्ष्मी बाई अत्यंत आक्रोशित हो उठी. रानी लक्ष्मी बाई ने प्रबल सघर्ष की ठान ली.

रानी लक्ष्मीबाई युद्ध

रानी लक्ष्मी बाई के साथ बानपुर के राजा मर्दानसिंह, शाहगढ़ के नेता बहादुर ठाकुर बुन्देलखण्ड के सरदार भी कुद्ध हो उठे. सभी ने निर्णय लिया किया देश के सम्मान के लिए अंग्रेजो से युद्ध किया जाए.

कठिनाई केवल यह थी, कि सैनिको में वीरता तो थी परन्तु कुछ लोग ऐसे थे. जिनमे कौशल और अनुशासन का अभाव था. रानी लक्ष्मी बाई ने तोपों की व्यवस्था की, उनके कुशल संचालक जुटाएं. महिलाओं ने हथियार लिए तो पुरुषो ने तोपे उठाई.

25 मार्च को युद्ध प्रारम्भ हो गया. पहरेदारों द्वारा गोलियाँ दांगी जाने लगी. तोंपे गरजने लगी. 26 मार्च को अंग्रेजो ने दक्षिणी द्वार का तोपखाना बंद करवा दिया. पश्चिमी द्वार के तोपखाने के गोलंदाज ने चारों ओर प्रहार शुरू कर दिया.

उसने अंग्रेजी तोपखाने को उड़ा दिया. अब अंग्रेजी तोपखाना बंद हो गया. पांच छ दिन बाद फिर भयकर युद्ध हुआ. रानी लक्ष्मी बाई के तोपखाने ने अंग्रेजो को काफी नुकसान पहुचाया.

सातवें दिन अंग्रेजो ने तोंपे चलाकर दीवार गिरा दी, परन्तु क्रांतिकारियों ने रातों-रात उन्हें पुन: खड़ा कर दिया. आठवें दिन अंग्रेजी सेना शंकर दुर्ग की ओर आगे बढ़ी. दुर्ग के भीतर गोले बरसाना शुरू कर दिया. इसमे कुछ लोग भी हताहत हुए.

क्रांतिकारियों ने पुन: पुरुषार्थ दिखाते हुए, अंग्रेजो की तोपों को फिर एक बार शांत कर दिया. रानी लक्ष्मी बाई सबकी देख-रेख कर रही थी. तथा सैनिको को प्रोत्साहन एवं दिशा निर्देश दे रही थी.

उसी के परिणामस्वरूप अंग्रेज 31 मार्च तक दुर्ग में प्रवेश न कर सके. रानी लक्ष्मी बाई का संदेश पाते ही तात्या टोपे उनकी सहायता करने झाँसी आ पहुचे. उन्होंने अपने सैनिको के साथ अंग्रेजो पर आक्रमण कर दिया, अंग्रेजो तथा तात्या टोपे के मध्य भयकर युद्ध हुआ. अंग्रेजो की विशाल सेना के सामने तात्या टोपे के सैनिक डगमगा रहे थे.

रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान

वे भाग खड़े हुए, उनकी तोंपे अंग्रेजो के हाथ लग गईं. तांत्या टोपे के 2200 में से 1400 सैनिक मारे गये. तांत्या टोपे की पराजय पर रानी लक्ष्मी बाई ने झाँसी के नागरिकों को निराश न होकर हौसला रखने का आवहान करते हुए कहा कि – हम लोग दुसरो पर निर्भर ना रहे, अपने पराक्रम व वीरता का परिचय देने के काम में जुट जाएँ.

3 अप्रैल को अंग्रेजो का झाँसी पर अंतिम आक्रमण हुआ, उन्होंने मुख्य द्वार से प्रवेश किया.

हर कोने से गोलियां चलने लगी. सीढ़ियाँ लगाकर अंग्रेजो ने दुर्ग पर चढ़ने के प्रयास शुरू कर दिए, परन्तु सफलता पाना इतना आसान नही था आगे बढ़ने वाले अंग्रेजो को मौत के घाट उतार दिया जाता था.

रानी लक्ष्मीबाई  तथा उनके वीर सैनिको के सामने अंग्रेजो का वार नही चला और अंत उन्हें पीछे हटना पड़ा. अंग्रेज सैनिक जान बचाकर भागे मुख्य द्वार पर स्थति तो यह थी परन्तु दक्षिणी द्वारा पर अंग्रेजो ने कब्जा कर लिया था.

वे दुर्ग के भीतर घुस गये. राजप्रसाद में घुसकर उन्होंने रक्षको की हत्या कर दी, रूपये लूटे और भवनों को ध्वस्त कर डाला. इससे झाँसी राज्य का पतन होने लगा, यह स्थति देखकर रानी लक्ष्मी बाई डेढ़ हजार सैनिक लेकर दुर्ग की ओर कूच किया.

और अंग्रेजो पर टूट पड़ी, अनेकों अंग्रेज मारे गये शेष जान-बचाकर नगर की ओर भागने लगे. परन्तु वहां छिप-छिपकर गोलियाँ चलाने लगे. अंग्रेजो से लोहा लेते हुए झाँसी के अनेकों वीरो ने प्राण न्यौछावर कर दिए.

अंग्रेजो ने सैनिको के साथ आम-नागरिकों पर वार करना शुरू कर दिया. जिससे झाँसी नगर में हा-हाकाकार मच गया. यह देख कर रानी लक्ष्मी बाई परेशान हो उठी. अपनी व्यथा प्रकट करते हुए अपना बलिदान करने को तैयार हो गईं.

परन्तु झाँसी के स्वामिभक्त सरदार ने उनसे आकर कहा- ” हे महारानी! आपका यहाँ रहना खतरे से खाली नही हैं.अत: रात्रि को शत्रु सेना का घेरा तोड़कर आप बाहर निकल जाएं यह अत्यावश्यक हैं.

रानी लक्ष्मी बाई ने रात्रि को झाँसी छोड़ने का सकल्प ले लिया. चुनिदा विश्वस्त अश्वरोहियों सैनिको के साथ रानी लक्ष्मी बाई ने पुरुष वेश धारण कर दुर्ग से प्रस्थान किया.

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने दत्तक पुत्र दामोदर को पीठ पर रेशम के कपड़े से बाधकर हाथों में शस्त्र उठाया. रानी लक्ष्मी बाई का शरीर लौह कवच से ढका हुआ था.

द्वार पर खड़े अंग्रेज संतरी ने उनसे परिचय पूछा तो रानी लक्ष्मी बाई ने तपाक से उत्तर दिया ” तेहरी की सेना सर हयूरोज की सहायता के लिए जा रही हैं. संतरी उन्हें पहचान न सका.

उससे चकमा देकर रानी लक्ष्मी बाई दुर्ग से बाहर निकल गईं. वो कालपी के मार्ग चल पड़ी, रास्ते में बोकर नामक अंग्रेज अधिकारी मिल गया. रानी लक्ष्मी बाई ने तलवार से उसे घायल कर दिया. व अश्वारोहियो ने अंग्रेज सैनिको पर इतना घातक हमला किया कि वे भाग खड़े हुए.

दो दिन बाद वे कालपी पहुची. इसके लिए रानी लक्ष्मी बाई को एक सौ दो मील की यात्रा करनी पड़ी. वहां पहुच रानी लक्ष्मी बाई का घोड़ा धराशायी हो गया. उसका जीवन समाप्त होते ही एक समस्या खड़ी हो गईं.

रानी लक्ष्मी बाई को उत्तम स्वामिभक्त घोड़ा चाहिए था. अंग्रेजो को रानी लक्ष्मी बाई के दुर्ग छोड़ जाने का आभास हो गया था. अत; अंग्रेजी सेना ने व्हाट्लोंक के नेतृत्व में कालपी पर आक्रमण किया.

अब रानी लक्ष्मी बाई ने राव साहब, तांत्या टोपे तथा बांद्रा, शाहगढ़ व दानपुर के के राजाओ के सैनिको को साथ लेकर अंग्रेजो का सामना करते हुए मुहतोड़ जवाब दिया. लेकिन दुर्भाग्य यह रहा कि इन विविध राज्यों के सैनिको में परस्पर समन्वय और अनुशासन का अभाव था. जिसके कारण वे अंग्रेजो के सामने ज्यादा टिक नही सके.

रानी लक्ष्मी बाई को कालपी से ग्वालियर की ओर जाना पड़ा. क्रांतिकारियों ने ग्वालियर की जनता को भी रानी की सहायता के लिए प्रेरित किया. जनता अंग्रेजो को सामने देखकर अपनी सेना के साथ उन पर टूट पड़ी. इस प्रबल आक्रमण से अंग्रेजी सेना बौखला गईं.

अनेक अंग्रेज सैनिक मौत के घाट उतार दिए गये. परिस्थति क्रांतिकारियों के पक्ष में बनती देख कमांडर स्मिथ को पीछे हटना पड़ा.

लेकिन संघर्ष रुका नही, दुसरे दिन स्मिथ ने अधिक सेना लाकर पुन; चढाई कर दी. रानी लक्ष्मी बाई अपने शिविर से बाहर निकलकर पुरे साहस से लड़ रही थी.

अचानक हुए इस आक्रमण से क्रांतिकारियों के अनेक सैनिक वीरगति को प्राप्त हो गये. सैनिक संख्या कम हो जाने के कारण रानी लक्ष्मी बाई अब समस्या में पड़ गईं. अंग्रेज सेना विजयी हुई.

विजयी अंग्रेज सेना चारों ओर एकत्रित होकर घेरा डालने में जुटी थी. एक अंग्रेज सैनिक ने रानी लक्ष्मी बाई की सहायक दासी को गोली मार दी, रानी ने मुड़कर उस अंग्रेज सैनिक को गोली का निशाना बनाकर वही ढेर कर दिया.

अब रानी लक्ष्मी बाई तेजी से आगे बढ़ी, परन्तु वह जिस घोड़े का प्रयोग कर रही थी. वह इतना सक्षम और कुशल नही था. आगे बढ़ने पर एक नाला आ गया. रानी लक्ष्मी बाई ने प्राण बचाने के लिए इसी घोड़े पर निर्भर थी.

कि घोड़ा छलांग लगाकर उस नाले को पार कर जाएं परन्तु वह प्रशिक्षित नही था. उसने छलांग नही लगाईं. इसका फायदा उठाकर कुछ अंग्रेज सैनिको ने रानी लक्ष्मी बाई को घेर लिया. सोनरेखा नामक इस नाले पर चारों ओर शत्रुओ द्वारा अकेली घिरी हुई, रानी लक्ष्मी बाई भूखी शेरनी की तरह अंग्रेजो पर टूट पड़ी.

तलवारों से तलवार बजने लगी, रानी लक्ष्मी बाई ने अदम्य साहस का परिचय देते हुए अंग्रेजो का सामना किया.

परन्तु मौका पाकर एक अंग्रेज सैनिक ने पीछे से रानी लक्ष्मी बाई के मसतक पर वार कर डाला. रानी लक्ष्मी बाई घायल हो गईं, मगर प्रहार करने वाले सैनिक को वही ढेर कर दिया.

उसी समय दुसरे अंग्रेज सैनिको ने रानी लक्ष्मी बाई पर ताबड़तोड़ प्रहार करने शुरू कर दिए. रानी लक्ष्मी बाई गिर पड़ी. अचेत महारानी को अंग्रेजो के हाथों बंदी बनने से बचाने के लिए उनके विशवासपात्र सेवक रामचन्द्र राव देशमुख एवं रघुनाथ सिंह ने उनकों उठाकर पास में बनी बाबा गंगादास की झौपड़ी में पंहुचा दिया.

इस महान क्रन्तिकारी व प्रखर देशभक्त रानी लक्ष्मी बाई को ऐसी स्थति में देखकर बाबा गंगादास भाव विह्हल हो गये. उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई का प्राथमिक ईलाज करते हुए उन्हें पानी पिलाया तथा एक शैया पर लिटा दिया.

लेकिन होनहार बलवान हैं, बाबा रानी लक्ष्मी बाई को नही बचा पाए. रानी लक्ष्मी बाई ने संसार त्याग दिया. वक्त की नजाकत देखते हुए बाबा एवं क्रांतिकारियों ने सुझबुझ से काम किया.

अंग्रेजो की नजर बचाते हुए बाबा गंगादास ने घास-फूस की चिता बनाकर अपनी झौपड़ी के पास ही दुर्गा स्वरूपा देवी का दाहसंस्कार किया.

बाबा सहित सब उपस्थित क्रांतिकारियों ने चिता की भस्म से तिलक किया तथा मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम एवं योगदान को बारंबार याद किया.

लक्ष्मीबाई पर निबंध Short Essay On Rani Lakshmi Bai In Hindi

रानी लक्ष्मीबाई 1857 की क्रांति की ग्वालियर और झाँसी क्षेत्र की महान स्वतंत्रता सेनानी थी. वाराणसी के मोरोपंत जी ताम्बे के घर इनका जन्म 19 नवम्बर 1835 को हुआ था. इसकी माता का नाम भागीरथी देवी था.

जब रानी लक्ष्मीबाई मात्र चार वर्ष की थी, तब इनकी माताजी का देहवसान हो गया था अब मोरोपंत जी ही उनके लिए माता-पिता और पोषक थे, पत्नी के देहांत के बाद मोरोपंत जी रानी लक्ष्मीबाई को लेकर कांशी से कानपुर आ गये.

रानी लक्ष्मीबाई का बचपन कानपुर के स्वतन्त्रता सेनानी तांत्या टोपे के साथ व्यतीत हुआ, इन्ही से रानी ने घुड़सवारी और शस्त्र चलाना सीखा. 13 वर्ष की उम्र में रानी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के महाराज गंगाधर जी के साथ हुआ, उनकी ये एक ही रानी थी.

विवाह के कुछ सालों बाद रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया, मगर वह शैशव में ही समाप्त हो गया, पुत्र मोह से गंगाधर जी का देहांत हो गया और रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सता स्वय सम्भाली. वर्ष 1854 में इन्होने दामोदर को गोद लिया.

अंग्रेजो ने गोद निषेध का कानून बनाकर झाँसी का राज्य हड़प लिया. इसके प्रतिरोध में रानी लक्ष्मीबाई ने तीन वर्षो तक अंग्रेजी सेना से लोहा लेती रही, जिनमे तांत्या टोपे और अन्य पड़ोसी राज्यों के शासक उनका सहयोग करते रहे.

कई बार इन्होने अंग्रेजो के दांत खट्टे कर अपने राज्य को अंग्रेजो के चंगुल से मुक्त करवाया. 18 जून, 1858 को ब्रिटिश सेना के साथ कई महीनों के संघर्ष के बाद रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर में गोरों से लड़ते हुए अपनी जान वतन के लिए कुर्बान कर दी.

मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने अदम्य साहस और वीरता से सामना करने वाली इस राष्ट्रभक्त विरागना रानी लक्ष्मीबाई आज भी भारत के लोगों के लिए आस्था और प्रेरणा का केंद्र हैं.

रानी लक्ष्मीबाई का इतिहास में स्थान

मातृभूमि की रक्षार्थ साहस, द्रढ़ता एवं सुझबुझ के साथ अंग्रेजो का सामना करने वाली महान देशभक्त नारी रानी लक्ष्मी बाई अपने समर्पण के कारण सम्पूर्ण राष्ट्र की श्रद्धा का केंद्र बन गईं.

दुसरों के सुख के लिए स्वयं के सुखों का बलिदान करने वाली महारानी वंदनीय हैं.रानी लक्ष्मीबाई की जीवनी  सभी के लिए प्रेरणादायक हैं.उनका बलिदान-स्थल ग्वालियर हिन्दुस्थानियों का तीर्थ स्थल बन गया हैं. उनका बलिदान सदा-सर्वदा स्मरणीय हैं.

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