दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध Dev Dev Aalsi Pukara Essay In Hindi

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कक्षा 1, 2 ,3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 तक के बच्चों को दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध सरल भाषा  में लिखे गये  हिन्दी निबंध  को परीक्षा के लिहाज से याद कर लिख सकते हैं.

दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध Dev Dev Aalsi Pukara Essay In Hindi

दैव दैव आलसी पुकारा पर निबंध Dev Dev Aalsi Pukara Essay In Hindi

मानव के रूप में जन्म लेना सिर्फ इसलिए प्रसन्नता दायक नहीं हैं कि वह सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ हैं, बल्कि वह अपने भाग्य का अपनी नियति का स्वयं ही निर्माता भी हैं.

अतः वह सही दिशा में सायास उद्यम करके अपनी स्थिति में आश्चर्यजनक सकारात्मक परिवर्तन ला सकता हैं.

मनुष्य की यही स्थिति उसे जगत के अन्य प्राणियों से उच्चतर स्थिति प्रदान करती हैं. सृष्टि निर्माता ने उसे एक ऐसा रचना त्मक मस्तिष्क प्रदान किया,

जिससे प्रतीकों से निर्मित भाषा की रचना करके उसने एक ऐसी संस्कृति विकसित की, जिसके माध्यम से वह अन्य प्राणियों का भाग्य विधाता बन गया.

जब एक बार उसने अपने परिवेश को नियंत्रित करना प्रारम्भ कर दिया, तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा. वह निरंतर अधिक से अधिक प्राकृतिक शक्तियों को नियंत्रित करता गया, अलौकिक शक्ति की सत्ता को चुनौती देता गया.

परिवेश को अधिक से अधिक अपने अनुकूल बनाता गया और अपनी स्थिति को निरंतर बेहतर करता गया. जहाँ मानव अपनी प्रकृति में इतना संघर्षशील हैं, वहां यदि उसके कुछ सदस्य अपनी उद्यमता का त्याग करने आलस्य की प्रवृति को अपना ले तो इसे विडम्बना ही कहा जाएगा.

आलस्य ही प्रवृति एक ऐसा घुन हैं जो पूरे जीवन को अंदर ही अंदर खोखला कर देता हैं. आलसी प्रवृति को अपना ले, तो इसे विडम्बना ही कहा जाएगा. आलस्य की प्रवृति एक ऐसा घुन हैं,

जो पूरे जीवन को अंदर ही अंदर खोखला कर देता हैं. आलसी प्रवृति का व्यक्ति अपने जीवन की गति को भाग्य की लहरों के भरोसे छोड़ देता हैं.

आलसी प्रवृत्ति का व्यक्ति अपने जीवन की गति को भाग्य की लहरों के भरोसे छोड़ देता हैं वह इस विश्वास में आस्था रखता है कि जिस ईश्वर ने उत्पन्न किया हैं, वही पालन पोषण करेगा. ईश्वर ने जब मुहं दिया हैं, पेट दिया हैं. तो भोजन भी देगा. वह भूल जाता हैं.

कि प्रकृति ने एक पेट एवं एक मुहं के साथ साथ दो दो हाथ भी प्रदान किये हैं. जिसका अर्थ हैं कि पेट एवं मुहं के लिए जितना आवश्यक हैं.

उसकी अपेक्षा दोगुना कार्य करने की आवश्यकता हैं. लेकिन इस वास्तविक संदेश को समझते हुए भी नासमझ बने रहने की कोशिश आलसी प्रवृति का द्योतक हैं.

आलसी व्यक्ति कर्म की उस महिला को नहीं समझ पाता जिसकी व्याख्या भारतीय शास्त्रों में भरी पड़ी हैं. भगवद्गीता के कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन के संदेश को वह अपने पक्ष में प्रयोग करते हुए तर्क देता हैं कि यदि फल की चिंता नहीं करनी हैं.

फल ईश्वर ही प्रदान करेगा तो फिर ऐसा कर्म करने की आवश्यकता ही क्या हैं. फल की प्रत्यक्ष प्राप्ति से विमुख करके भारतीय दर्शन ने भारतवासियों को नियतिवाद या भाग्यवाद की ओर प्रवृत किया.

यह सामान्य मानवीय स्वभाव हैं जिससे किसी प्रलोभन या प्रेरणा के अभाव में उसे किसी कार्य विशेष के प्रति उन्मुख करना अत्यंत कठिन हैं.

भारतीय दर्शन में इसी प्रेरणा का अभाव हैं. हमें कर्म करने का उपदेश तो दिया जाता हैं लेकिन कर्म के परिणामस्वरूप जब फल की बारी आती हैं तो हम उसे ईश्वर पर छोड़ देने का तर्क देते हैं.

इसका परिणाम यह होता हैं कि व्यक्ति अपने कर्म से विरत हो जाता हैं. उसका उत्साह समाप्त हो जाता हैं. नतीजा अकर्मण्यता के रूप में सामने आता हैं. वह स्वयं को ईश्वर यानी भाग्य या नियति के सहारे छोड़ देता हैं.

धीरे धीरे आलस्य की प्रवृत्ति इतनी गहरी हो जाती हैं कि वह अपने सही कार्यों से विरत होकर सिर्फ भाग्य या ईश्वर / देव पर ही निर्भर हो जाता हैं.

वास्तव में मनुष्य अपने कर्म की विशेषता के कारण ही इस जीव जगत को शीर्ष स्थान पर आसीन हो सका हैं. इस कर्म करने की प्रवृति के कारण ही उसने प्रकृति को चुनौती दी,

उसके साथ संघर्ष किया और संस्कृति व सभ्यता का विकास किया. ईश्वरीय सत्ता को चुनौती कर्म के दम पर दिया जाना ही सम्भव हो सका हैं.

धर्म एवं ईश्वर की रचना मनुष्य ने ही की हैं. अपनी सुविधाओं के लिए. वह प्रकृति से संघर्ष की प्रक्रिया में जिस सीमा तक नियंत्रण करता गया, वे विज्ञान की श्रेणी में शामिल होते गये.

जबकि एक सीमा के बाद अपने अनुतरित प्रश्नों का जवाब उसने अलौकिक शक्ति के नाम पर प्राप्त करने की कोशिश की.

जो उसकी नियन्त्रण की सीमा से बाहर हो गये. वे सभी अलौकिक शक्तियों के दायरे में चले गये, जिन्हें उसने ईश्वर या धर्म कह कर पुकारा, इसके पीछे भी एक प्रकार्यात्मक संकल्पना हैं

लेकिन उपरोक्त तर्क के पीछे भी मानव की क्रियाशीलता ही छिपी पड़ी हैं. यानि ईश्वर या धर्म की अवधारणा अक्रियाशीलता का परिणाम नहीं बल्कि क्रियाशील चिन्तन का परिणाम हैं.

लेकिन आलसी प्रवृत्ति के लोग इस तर्क को न समझकर देव को एक वास्तविक क्रियात्मक शक्ति मानते हैं. उन्हें लगता हैं कि कहीं पर स्थित ईश्वर नामक एक अलौकिक शक्ति उनकी सभी इच्छाओं की पूर्ति करती हैं और करेगी.

वे कर्म की उस महान महिमा को समझ नहीं पाते कि सिर्फ कर्म के माध्यम से ही मानव जाति ने आज अपनी वह प्रस्थिति अर्जित की हैं.

आलस्य न केवल मानसिक व आर्थिक दृष्टि से मनुष्य के विकास को बाधित करता हैं, बल्कि शारीरिक एवं सांस्कृतिक रूप से भी व्यक्ति को कमजोर कर देता हैं. आलस्य शरीर का सबसे बड़ा शत्रु होने के साथ साथ उसके सर्वागींण विकास में सबसे बड़ा बाधक हैं.

प्रखर बुद्धि का प्रतिभाशाली व्यक्ति भी आलस्य के कारण अपने विकास या प्रगति के दायरे को अत्यंत संकीर्ण बना लेता हैं. आलस्य व्यक्ति को अपने समय से पीछे ले जाता हैं. और एक सीमा के बाद वह स्वयं को कमजोर या अशक्त महसूस करने लगता हैं.

कायर एवं असफल व्यक्ति के रूप में उसकी पहचान बन जाती हैं. व्यक्ति को आलस्य की प्रवृत्ति का पुर्णतः परित्याग करके एक कर्मशील उद्यमी की भूमिका को ग्रहण करना चाहिए. कर्मशील व्यक्ति अपनी उधमिता के बल पर असम्भव को भी सम्भव बना सकता हैं.

वह अपनी सफलता के लिए स्वय ही उतरदायी होता हैं इसलिए वह अपनी सफलता कि कहानी लिखकर समाज के अन्य सदस्यों को एक नया मार्ग दिखाता हैं जीवन और जगत मिथ्या नही बल्कि वास्तविकता हैं ओर इसव सुन्धर और उपयोगी बनना हमारे अपने हाथ में हैं.

एक कर्मशील व्यक्ति ही ऐसी समज रक् सकता हैं आलसी नही इसलिए आलसी व्यक्ति को न तो जीवन और न ही  जगत कि सुन्दरता अव उपयोगिता कि पहचान हो पाती हैं  तुलसीदास जी ने उचित ही लिखा कि

सकल पदारथ हैं जग माहीं
करमहीन नर पावत नाही

यह धरती रत्नगर्भा हैं. इसमें हीरों, माणिक्यों एवं कीमती पदार्थों का बाहुल्य है. इस अपार अनंत धनराशि को प्राप्त करने के लिए हमें कर्म करते हुए दृढ़ संकल्प का सहारा लेकर साहस के साथ उसके अंदर तक जाने की आवश्यकता हैं.

कामधेनु रुपी यह धरती उसी को अमृत रस बांटती हैं जो अपने सुद्रढ़ हाथों से उसका दोहन करते हैं. दुर्बल, कांपते एवं निराशा से भरे आलसी व्यक्तियों के हाथ उन तक नहीं पहुँच सकते.

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