कुम्हार पर निबंध | Essay On Pottery In Hindi Language

Essay On Pottery In Hindi Language: नमस्कार दोस्तों आज हम कुम्हार पर निबंध लेकर आए हैं. मिट्टी के बर्तन तथा खिलौने बनाने वाली पारम्परिक जाति कुम्हार है.

आज भी मटके, सुराही, और विविध तरह की मूर्तियाँ व खिलौने कुम्हार बनाते है. आज के निबंध, स्पीच,अनुच्छेद, लेख में हम पॉटरी मेकर का इतिहास, शब्द उत्पत्ति व व्यवसाय के बारें में जानकारी प्राप्त करेंगे.

कुम्हार पर निबंध | Essay On Pottery In Hindi

कुम्हार पर निबंध Essay On Pottery In Hindi

कुम्हार पर निबंध: 300 शब्द

कुम्हार हिंदू समुदाय की एक जाती है जो भारत के लगभग अधिकतर राज्यों में पाई जाती है। इनका मुख्य काम मिट्टी का इस्तेमाल करते हुए मिट्टी के बर्तन और खिलौने बनाना है। कुम्हार जाति लोगों का यह विश्वास है कि महर्षि अगस्त्य ही उनके आदि पुरुष हैं।

ऐसा भी कहा जाता है कि कुम्हार के द्वारा जिसे चाक का इस्तेमाल किया जाता है उसका यंत्र मे सबसे पहले आविष्कार हुआ था और लोगों ने ही सबसे पहले चाक घुमाकर के मिट्टी के बर्तन को बनाने की खोज की थी। 

इस प्रकार से कुम्हार के द्वारा अपने आपको आदि यंत्र कला का प्रवर्तक कहा जाता है। आदि यंत्र कला का प्रवर्तक की वजह से ही कई प्रांतों में कुम्हार अपने आप को प्रजापति भी कहते हैं।

देश में कुम्हारों की कई उपजातियां भी हैं, जो देश के अलग-अलग राज्यो में निवास करती हैं। उत्तर प्रदेश में कुम्हारों की उपजातियां हथेलियां, कनौजिया, सुवारिया, गदहिया, कस्तूर और चौहानी है। 

इन जातियों का नाम किस प्रकार से पड़ा इसके बारे में कोई स्पष्ट जानकारी प्राप्त नहीं है परंतु कहा जाता है कि बर्धिया कुम्हार वह होते हैं जो बैलो पर मिट्टी लाद करके लाते हैं और जो गधों पर मिट्टी लाद करके लाते हैं उन्हें गदहिया कुम्हार कहा जाता है।

पश्चिम बंगाल राज्य में कुम्हारों की तकरीबन 20 से भी अधिक उपजातियां पाई जाती है जिनमें सबसे बड़ी उपजाति बड़भागीया है और सबसे छोटी उपजाति छोटभागिया है। बड़भागीया

कुम्हारों के द्वारा काले रंग के बर्तनों का निर्माण अधिक किया जाता है और छोटभागिया कुम्हारों के द्वारा लाल रंग की मिट्टी के बर्तनों का निर्माण अधिक किया जाता है। 

इस प्रकार से दक्षिण भारत में भी कुम्हारों की कई प्रजातियां पाई जाती है। कर्नाटक में रहने वाले कुम्हार अपने आप को भारत के दूसरे राज्यों में रहने वाले कुम्हारों से सर्वश्रेष्ठ कहते हैं। उड़ीसा में रहने वाले कुछ कुम्हार जगन्नाथ जी के उपासक होते हैं। इसीलिए वह अपने आप को जगन्नाथी कहते हैं।

कुम्हार पर निबंध: 500 शब्द

हमारे देश में कुम्हार समुदाय की आबादी 7 करोड़ से भी अधिक है जो देश के अलग-अलग प्रांतों में और अलग-अलग राज्यों में निवास करती हैं। कुम्हार जाति हिंदुओं में आती है।

इन्हें कहीं कहीं पर प्रजापति सरनेम लगाते हुए भी देखा जाता है इसके अलावा किसी किसी स्थान पर कुम्हार जाति के लोग अपने नाम के पीछे कुंभकार सरनेम का भी इस्तेमाल करते हैं।

इस जाति के लोगों का मुख्य काम मिट्टी के बर्तन और खिलौने बनाना होता है। यह मिट्टी के द्वारा आकर्षक बर्तन और वस्तुएं तैयार करते हैं जिसका इस्तेमाल अलग-अलग कामों के लिए किया जाता है।

नवरात्रि के त्यौहार पर जब माताजी के कलश की स्थापना होती है तो कलश स्थापना करने के लिए कुम्हार के द्वारा बनाए गए मिट्टी की मटकी का ही इस्तेमाल किया जाता है और उसके ऊपर नारियल चुनरी रखकर के माता जी के कलश की स्थापना की जाती है।

इसके अलावा किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर उसकी अंतिम यात्रा में आग लगाने के लिए भी कुमार के द्वारा बनाई गई मटकीयों का इस्तेमाल होता है।

कुम्हार के द्वारा निर्मित मटको में लोग गर्मी के मौसम में पानी भरकर रखते हैं क्योंकि मिट्टी के बने हुए बर्तनों में पानी ठंडा रहता है जिससे गर्मी से व्याकुल हमारे मुंह को ठंडे पानी की प्राप्ति होती है और हमारी प्यास बुझती है।

आज भले ही लोग आधुनिक स्टील अथवा पीतल के बर्तनों का इस्तेमाल कर रहे हैं परंतु कुम्हार के द्वारा बनाए गए मिट्टी के बर्तन, मूर्तियों और विभिन्न प्रकार के खिलौने की उपयोगिता आज भी कम नहीं हुई है।

कुम्हार के द्वारा मिट्टी के बर्तन तैयार करने के लिए काफी मेहनत की जाती है। वह सबसे पहले मिट्टी को इकट्ठा करता है और मेहनत करके मिट्टी को बर्तन बनाने लायक बनाता है और उसके पश्चात मिट्टी के इस्तेमाल के द्वारा खिलौने, मूर्ति और बर्तन तैयार करता है।

मिट्टी के खिलौने, बर्तन और मूर्ति तैयार करने के बाद कुम्हार उसे सूखने के लिए रख देता है। उसके बाद उसे भट्टी में पकाया जाता है जिससे मिट्टी के बर्तन थोड़े से मजबूत बन जाते हैं। इन कामों को करने में उसे काफी समय लग जाता है।

कुम्हार के द्वारा बनाए गए मटके में हम गर्मी के मौसम में पानी भर के रखते हैं जिससे हमें बिना फ्रिज होते हुए भी ठंडा पानी प्राप्त होता है। इसके अलावा कुम्हार के द्वारा निर्मित कटोरे का इस्तेमाल सब्जियां, जल इत्यादि को रखने के लिए अथवा भरने के लिए किया जाता है। इसके अलावा कुम्हार जो मूर्ति बनाता है उसे लोग पूजा के लिए कुम्हार से खरीदते हैं।

भारत के अधिकतर राज्यों में कुम्हार जाति अन्य पिछड़ा समुदाय में आती है। इसलिए इन्हें सरकार के द्वारा आरक्षण भी दिया जाता है। कुम्हार जाति के कई लोग सरकारी पद पर भी विराजमान है। भारत देश में कुम्हार जाति की कई उपजातियां भी हैं जिनमें से 20 से अधिक उपजाति पश्चिम बंगाल राज्य में निवास करती है।

इसके अलावा उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी कुम्हार जाति की उपजातियां निवास करती हैं। कर्नाटक राज्य में निवास करने वाले कुम्हार अपने आप को देश के अन्य राज्यों के कुम्हारों से सर्वश्रेष्ठ समझते हैं।

700 शब्दों में कुम्हार पर निबंध

प्रजापति अथवा कुम्हार ये मिट्टी के बर्तन बनाने के शिल्प कार्य से जुड़े कारीगर होते हैं. ये श्रीयादे को अपनी आराध्य देवी मानते हैं. भारत के लगभग सभी क्षेत्रों में कुमावत जाती के लोग रहते हैं,

ये हिन्दू धर्म के अनुयायी हैं. मगर क्षेत्रीय विविधता के कारण इनके सामाजिक ढाँचे में बदलाव देखा जाता हैं. प्रशासनिक वर्ण विभाजन में कुम्भ्कारों को अन्य पिछड़ा वर्ग के तहत गिना जाता हैं.

आम बोलचाल में प्रयुक्त कुम्हार शब्द संस्कृत के कुम्भकार का तद्भव रूप हैं. जिसका शाब्दिक अर्थ होता है मिट्टी के बर्तन बनाने वाला.

दक्षिण मूल की द्रविड़ भाषाओं में भी कुम्भकार शब्द का आशय भांड से लिया जाता हैं. जो हिंदी के कुम्हार शब्द का समानार्थी भी हैं. भांडे का अर्थ होता है बर्तन.

भारत के कुछ क्षेत्रों में इन्हें अलग अलग नामों से भी जाना जाता हैं. वैदिक काल में कुम्हार के लिए यजुर्वेद में कुलाल शब्द प्रयुक्त हुआ है अतः आज भी अमृतसर और आस पास के क्षेत्रों में कुम्हार को कलाल या कुलाल के नाम से भी जानते हैं.

कुम्हार को प्रजापति भी कहा जाता हैं. हिन्दू धार्मिक पुराणों में प्रचलित एक कथा के मुताबिक़ सृष्टि का रचयिता ब्रह्माजी द्वारा एक समय अपने सभी पुत्रों को बुलाकर उन्हें गन्ने की एक एक लकड़ी दी.

अन्य पुत्रों ने उसी समय गन्ने को खा लिया जबकि कुम्हार बर्तन बनाने में व्यस्त रहा इस कारण मिट्टी के ढेर पर गन्ने की लकड़ी को रख दिया.

वायु व जल के सम्पर्क में आने से गन्ना ऊग आया. कुछ दिन बाद परम पिता ब्रह्माजी ने जब अपने पुत्रों से गन्ना माँगा तो उस कर्मकार ने गन्ने के पेड़ को भेट किया, जबकि अन्य ने अपनी असमर्थता जताई. अपने कार्य के प्रति कुम्हार की लग्न व निष्ठां देखकर ब्रह्माजी ने उसे प्रजापति की उपमा दी.

इतिहास में इन किवदन्तियो तथा धार्मिक कथाओं को आधार नहीं माना जाता हैं. अधिकतर विद्वान् इस बात कर एकमत होते है कि हस्तकला में मिट्टी की कलात्मक वस्तुएं निर्मित करने में कुम्हार का कोई सानी नहीं हैं. सम्भवतया लोगों ने उनके कर्म को सम्मान देने के लिए प्रजापति कहकर सम्बोधित किया होगा.

देश भर का कुम्हार समुदाय हिन्दू कुम्हार तथा मुस्लिम कुम्हार इन दो वर्गों में विभक्त हैं. दोनों की ऐतिहासिक पृष्टभूमि एक ही रही हैं. प्राचीन वर्ण व्यवस्था में कुम्हार को शुद्र वर्ग में गिना जाता था.

आज के शासकीय वर्गीकरण में इन्हें पिछड़ा वर्ग की श्रेणी में शामिल किया जाता हैं. गुजराती कुम्हार, राणा कुम्हार, लाद, तेलंगी ये कुछ कुम्हार जाति के समूह अथवा उपजातियाँ हैं.

राजस्थान में कुम्हार जाति के छः उपवर्ग पाए जाते है जो माथेरा, कुमावत, खेतेरी, मारवाडा., तिमरिया, और मालवी हैं. विभिन्न कलात्मक सामग्री यथा घड़े, सुराही, खिलौने बनाने का कार्य कुम्हार करता हैं. जो चाक की मदद से मिट्टी के ढेले को अपने हाथ के हुनर से एक आकर्षक व उपयोगी वस्तु का रूप दे देता हैं.

मृणशिल्पों की दृष्टि से छतीसगढ़ राज्य का बस्तर क्षेत्र देशभर में विख्यात हैं. बस्तर की मुख्य कुम्हार जातियां राणा, नाग, चक्रधारी और पाँड़े हैं. कुम्हार भारतीय ग्रामीण तानेबाने का अहम अंग समझा जाता हैं.

हरेक गाँव में एक दो अथवा अधिक कुम्हार के घर होते हैं. नित्य घर के क्रियाकलाप हो अथवा पूजा, अनुष्ठान, विवाह अथवा संस्कार कर्म में कुम्हार की भूमिका निहित होती हैं.

विगत कुछ दशकों में कुम्हार कर्म में आए बदलावों पर गौर करे तो मोटे तौर पर कुम्भकार दो तरह के काम में सलग्न हैं. गाँव में जीवन बिताने वाले खेती के साथ साथ स्थानीय जनों की आवश्यकता के मुताबिक़ बर्तन, भांड आदि बनाते हैं.

वही दूसरा तबका शहरी जीवन की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अधिक अलंकृत, पोलिशयुक्त एवं कलात्मक बर्तन बनाते हैं. शहरों में खिलौने तथा मिट्टी के गमलों की मांग अन्य वस्तुओं के मुकाबले अधिक रहती हैं.

कुम्हार जाति के निर्माण के सम्बन्ध में एक अन्य कथा के अनुसार ब्रह्माजी को अमृत रखने के लिए एक बर्तन की आवश्यकता पड़ी अतः उन्होंने विश्वकर्मा जी से हांडी बनाने को कहा.

क्षीर समुद्र के मंथन से निकले अमृत को रखने के लिए कोई उपयुक्त पात्र नहीं मिला, विश्वकर्मा जी कहा मैं बुढा हो चूका हूँ मुझमें यह शक्ति नहीं हैं, फिर भी मैं कोशिश करुगा.

और बिना सामान के हांडी भी बनेगी कैसे अतः ब्रह्मा जी ने अपनी जनेऊ उतारकर कुम्हार को दी ताकि वह चाक से बर्तन को काट सके, विष्णु जी ने अपना सुदर्शन चक्र कुम्हार को दिया जिस पर हांडी बनाई गई.

कुम्हार जाति के लोग आज भी अपने कर्म को इतनी सिद्धत से करते है जिसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि जो कुम्हार का लड़का चाक चलाना नहीं जानता, उसका विवाह भी नहीं होता हैं. कहते है जो एक हांडी नहीं बना सकता वह जिन्दगी कैसे चलाएगा.

मिट्टी से बर्तन बनाने के कार्य में न केवल रचनात्मकता होती है बल्कि इसके साथ ही कुम्हार की कड़ी मेहनत भी लगती हैं, वह बर्तन बनाने हेतु उपयुक्त तालाब की मिट्टी को खोदकर बैलगाड़ी से अपने घर ले आता हैं.

बरसात के दिनों में मिट्टी की कमी न हो इसलिए वह इसे संग्रह कर रखता हैं. मिट्टी के गारे से चाक की मदद से बर्तन बनाकर कुछ वक्त तक सूखने के लिए छोड़ दिया जाता हैं तत्पश्चात उपलों व लकड़ियों की भट्टी में इनके पकाया जाता हैं, तदोपरान्त ये उपयोग हेतु वस्तुए निर्मित होती हैं.

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