आदि शंकराचार्य पर निबंध – Essay on Shankaracharya in Hindi

आज हम आदि शंकराचार्य निबंध Essay on Shankaracharya in Hindi Language को हम पढेगे. हिन्दुओं में आदि शंकराचार्य का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता हैं इन्हें शंकर का अवतार भी कहा जाता हैं.

महान दार्शनिक व धर्म प्रवर्तक थे इन्होने भारत की चार दिशाओं में चार मठों की स्थापना की तथा ब्रह्मसूत्र पर सुंदर भाष्य लिखा.

आज हम आदि शंकराचार्य की जीवनी इतिहास, बायोग्राफी में  निबंध तथा उनकी शिक्षाओं को यहाँ जानेगे.

आदि शंकराचार्य पर निबंध – Essay on Shankaracharya in Hindi

आदि शंकराचार्य पर निबंध - Essay on Shankaracharya in Hindi

शंकराचार्य का जीवन परिचय जीवनी निबंध– भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि शंकराचार्य ने तैयार की. उनका जन्म 788 ई में मालाबार में कालड़ी नामक स्थान पर हुआ था.

वे एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे. शंकराचार्य ने छोटी सी आयु में वेदों और उपनिषदों का अध्ययन कर लिया और उच्च कोटि के विद्वान् बन गये.

उन्होंने वेदान्त सूत्र की व्याख्या करके सभी धार्मिक समस्याओं का समाधान तर्क के आधार पर किया. शंकराचार्य वेदांत तथा उपनिषद के प्रबल समर्थक थे.

ब्राह्मण धर्म को पुनर्जीवित करने में उनका महान योगदान था. बौद्ध धर्म के सिद्धांतों, विशेष रूप से निर्वाण का खंडन करके ज्ञान को ही ईश्वर अनुभूति तथा मोक्ष का साधन बताया.

ब्रह्मा के सम्बन्ध में उनका दृष्टिकोण एकेश्वरवाद अथवा अद्वैतवाद का था. अद्वैतवाद के अनुसार ईश्वर अपरिवर्तनीय निराकार तथा सत्य हैं. सारा संसार माया से पूर्ण हैं. केवल ज्ञान से माया के अन्धकार को दूर करके ब्रह्मा के विषयों में जान सकते हैं.

आदि शंकराचार्य देश के विभिन्न भागों में चार मठ स्थापित किये. उन्होंने ये मठ पूर्व में जगन्नाथपुरी, पश्चिम में द्वारिका, उत्तर में बद्रीनाथ और दक्षिण में श्रंगेरी नामक स्थानों पर बनवाएं. हिन्दू धर्म की सेवा करते हुए 32 वर्ष की अल्पायु में अमर नाथ नामक स्थान पर उनका देहावसान हो गया.

श्री के एम पन्निकर के शब्दों में शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों तथा उनके अधीन काम करने वाली छोटी छोटी संस्थाओं और उनके अधिकारियों ने हिन्दू धर्म के प्रभाव को कई शताब्दियों तक भारतवर्ष में जीवित रखा.

शंकराचार्य का माया सिद्धांत (Concept of Maya Adi Shankaracharya Philosophy)

अद्वैत सिद्धांत में माया, अज्ञान अथवा अविद्या का महत्वपूर्ण स्थान हैं. जिसके माध्यम से जगत को विवृत करने का प्रयास किया गया हैं. आदि शंकराचार्य ने माया तथा अविद्या का प्रयोग प्रायः समान अर्थ में किया हैं वे आभास को अविद्या कहते हैं जहाँ तो वस्तु नहीं हैं.

वहां उसे कल्पित करना ही आभास हैं. रस्सी में सर्प की प्रतीति आभास का एक उदाहरण हैं. इसी प्रकार ब्रह्मा के अतिरिक्त जो कुछ भी प्रतीति है वह माया या अविद्या हैं.

शंकराचार्य ने माया की निम्नलिखित विशेषताएं निरुपित की हैं.

  1. माया ब्रह्मा की अंतर्निहित शक्ति हैं. यह पुर्णतः ब्रह्मा पर आश्रित एवं उससे अभिन्न हैं. यह ब्रह्मा के समान ही अनादि हैं.ब्रह्मा तथा माया का सम्बन्ध तादात्म्य कहा जाता हैं. यदपि माया ब्रह्मा की शक्ति हैं, किन्तु ब्रह्मा उससे लिप्त नहीं हैं. जो सम्बन्ध अग्नि तथा उसकी दाहकता में है वही ब्रह्मा तथा माया में हैं. सृष्टि रचना के निमित्त ब्रह्मा इस शक्ति को धारण करता है वह अपनी इच्छानुसार इसका परित्याग कर सकता है. माया जड़ है, जबकि ब्रह्मा विशुद्ध चैतन्य स्वरूप हैं.
  2. माया सदसदनिर्वचनीय अर्थात सत्य, असत्य अथवा इन दोनों से परे हैं. पर सत्य नहीं हैं क्योंकि ब्रह्मा से पृथक इसकी कोई सत्ता नहीं हैं. संसार को अध्यास रूप में प्रस्तुत करने के कारण यह असत्य भी नहीं हैं. ज्ञान के उदय के साथ माया विनष्ट हो जाती है, अतः यह सत्य नहीं हैं. किन्तु जब तक अज्ञान रहता है तब तक बनी रहती है, अतः हम इसे असत्य भी नहीं मान सकते. यह पुर्णतः अनिर्वचनीय हैं.
  3. माया की सत्ता व्यावहारिक है. यह विवृत मात्र है, यह भ्रान्ति स्वरूप हैं यह मिथ्याज्ञान हैं.
  4. माया का विनाश ज्ञान से सम्भव है विद्या के उदित होते ही अविद्या का विलोप हो जाता हैं.
  5. माया का आश्रय तथा विषय दोनों ही ब्रह्मा है. यह सत्य, रज तथा तम इन तीनों गुणों से युक्त है. इनके बिना माया का कोई अस्तित्व नहीं हैं. माया के इन्ही गुणों के कारण जगत में नाम रूप की विभिन्नता देखने को मिलती हैं.

आदि शंकराचार्य के अनुसार जो ज्ञानी है वे इस माया की शक्ति से भ्रमित नहीं होते हैं तथा सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही पारमार्थिक सत्ता के दर्शन करते हैं.

शंकराचार्य का जीवन व शिक्षाएं (Life and teachings of Shankaracharya)

आदि शंकराचार्य की प्रमुख शिक्षाओं का वर्णन निम्न बिन्दुओं में किया जा सकता हैं.

ब्रह्मा तथा उसका स्वरूप

आदि शंकराचार्य के अद्वैत मत के अनुसार सर्वव्यापी, निराकार, निर्विकार, अविनाशी, अनादि, चैतन्य तथा आनन्दस्वरूप हैं. ब्रह्मा को सच्चीदानंद कहा गया हैं.

इसका अर्थ यह है कि वह सत्य, चैतन्य तथा आनन्दस्वरूप हैं. ब्रह्मा निर्गुण होने के कारण बुद्धि की सभी सीमाओं से परे हैं.

यही ईश्वर है जो सृष्टि का कर्ता, पालक तथा संहारक प्रतीत होता है. इसी रूप में ईश्वर की उपासना की जाती हैं. पारमार्थिक दृष्टि से विचार करने पर ब्रह्मा सभी विशेषणों से परे हो जाता हैं. शंकर इसे परम्ब्रह्मा कहते हैं. यही ब्रह्मा का वास्तविक स्वरूप हैं.

व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्मा में जिन गुणों तथा उपाधियों का आरोप किया जाता हैं. वह वस्तुतः उसका तटस्थ लक्षण हैं. सृष्टि का कर्ता, पालक एवं संहारक होना गुण हैं. वास्तविक स्वरूप नहीं हैं. इससे भिन्न ब्रह्म का स्वरूप लक्षण हैं. जिसमें वह अद्वैत, निर्गुण एवं निर्विकार हैं.

इसी प्रकार ब्रह्मा तटस्थ लक्षण धारण कर जगत की रचना करता है तथा वह सगुण हो जाता हैं. किन्तु परमार्थतः वह निर्गुण और निर्विकार ही हैं. यही उसका स्वरूप लक्षण है जो किसी भी प्रकार की उपाधियों के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता.

आत्मा

यह ब्रह्मा का ही पर्याय है तथा दोनों में कोई भेद नहीं हैं. आदि शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्मा या आत्मा पारमार्थिक सत्ता हैं जबकि ईश्वर तथा जीव व्यावहारिक सत्ताएँ हैं. ईश्वर नियन्ता है तथा जीव शासित हैं. सर्वज्ञ, शक्तिमान, तथा पूर्ण है. वह जीव के भोगों को भोगने वाला हैं.

माया

शंकराचार्य माया को वह कारण या शक्ति मानते हैं जिससे ब्रह्मा के बहुत से अलग अलग रूप दिखाई देते हैं अर्थात इससे बहु रुपी विश्व के बनने, बढ़ने और बिगड़ने की क्रिया चलती हैं. इसे अव्यक्त प्रकृति भी कहा जा सकता हैं जिससे व्यक्त संसार चलता हैं.

जगत

शंकराचार्य के अनुसार मायावी ईश्वर अपनी क्रीड़ा के निमित जगत की रचना करता है. यह संसार माया का ही कार्य हैं, माया अपनी आवरण शक्ति से ब्रह्मा के वास्तविक स्वरूप को ढक लेती हैं तथा विक्षेप शक्ति से उसमें नाम रूपात्मक जगत का अध्यास कर देती हैं.

आदि शंकराचार्य मानते हैं कि कार्य अपने कारण से भिन्न नहीं होता. किन्तु सांख्य मत के अनुसार जहाँ कारण का कार्य में वास्तविक परिवर्तन होता हैं.

वहां शंकराचार्य के अनुसार वह परिवर्तन आभासमात्र हैं. कार्य में कोई भी विकार नहीं उत्पन्न होता. इसे विवर्तवाद की संज्ञा दी गई हैं.

ब्रह्मा परमार्थ सत्य व जगत व्यावहारिक सत्य

शंकराचार्य मानते हैं कि ब्रह्मा और जगत अभिन्न हैं, ब्रह्मा परमार्थ रूप में सत्य है और जगत व्यावहारिक रूप में सत्य हैं वह अवश्य है कि जगत बिना ब्रह्मा के सत्य नहीं हैं.

लेकिन यह भी पक्की बात हैं कि जगत ब्रह्मा का ही रूप हैं, जो सत्य है इस लिए ब्रह्मसूत्र स्पष्ट कहता है कि वह असत नहीं है. शंकर जगत को व्यावहारिक सत्य मानते हैं, केवल कल्पना नहीं समझते

बंधन तथा मोक्ष

आदि शंकराचार्य के अनुसार मोक्ष मानव जीवन का परम पुरुषार्थ हैं. यह संसार असत्य तथा दुखों से परिपूर्ण है. जीव अपने विशुद्ध रूप में ब्रह्मा ही है, किन्तु अविद्या या अज्ञान के कारण यह अपने को कर्ता एवं भोक्ता मानने लगता हैं. यह संसार के नाना सुख दुखों को भोगता है तथा विविध कर्मों को करता हैं.

शंकराचार्य के अनुसार आत्मा को अपने विशुद्ध स्वरूप में स्थित होना ही मोक्ष है. दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि आत्म साक्षात्कार अथवा आत्म ज्ञान ही मोक्ष हैं. शंकराचार्य इस बात पर बारम्बार बल देते हैं. कि परमतत्व का साक्षात्कार केवल ज्ञान से ही सम्भव हैं.

अविद्या अथवा अज्ञान ही हमारे बंधन का कारण है जिसकी निवृति ज्ञान के उदय से ही हो सकती हैं. यह केवल ज्ञान ही है जो अन्तोगत्वा मोक्ष की प्राप्ति करा सकता हैं. शंकराचार्य ने मोक्ष के अधिकारी के लिए निम्नलिखित साधनों से युक्त होना अनिवार्य बताया हैं.

  1. उसे नित्य और अनित्य पदार्थों का बोध होना चाहिए.
  2. उसे लौकिक तथा पारलौकिक दोनों प्रकार के भोगों की इच्छा को त्याग देना चाहिए.
  3. शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति तथा तितिक्षा इन छः साधनों से युक्त होना चाहिए.
  4. मोक्ष प्राप्ति के लिए दृढ़ संकल्प होना चाहिए.

मुक्ति

शंकराचार्य ने दो प्रकार की मुक्ति बतलाई हैं. जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति. शरीर के रहते हुए भी जो मुक्ति मिलती है, वह जीवन मुक्ति कहलाती हैं.

जीवन मुक्ति प्राप्त व्यक्ति सांसारिक कर्मों को निष्काम भाव से करता हैं. वह उनसे उसी प्रकार निर्लिप्त रहता हैं. जैसे कमल के पत्ते पर पड़ा हुआ जल बिंदु. शरीर छूट जाने पर प्राप्त होने वाली मुक्ति विदेह मुक्ति कहलाती हैं.

नैतिक आचरण

मोक्ष हेतु ज्ञान प्राप्त करने के लिए अच्छे आचरण की भी जरूरत हैं. जिन कर्मों से इसकी प्राप्ति में मदद मिलती हैं. वे पुन्य हैं और जिन्सें बाधा पहुँचती हैं वे पाप हैं. सत्य, अहिंसा, दया, परोपकार पुण्यकर्म है और झूठ, हिंसा, अत्याचार पाप हैं.

निष्कर्ष

स्वामी शंकराचार्य ब्राह्मण हिन्दू धर्म के पुनरुद्धारक थे. उन्होंने वेदान्त सूत्र की व्याख्या कर जनसाधारण में अद्वैतवाद के दार्शनिक मत की स्थापना की और उसकी प्राप्ति का एकमात्र साधन ज्ञान बताया.

यदपि अद्वैतवाद सर्वत्र ब्रह्मा की सत्ता को ही देखता है इसीलिए जाति पांति ऊँच नींच, अमीर गरीब का उसके लिए कोई भेद व महत्व नहीं था. इस दृष्टि से शंकराचार्य सर्वाधिक क्रन्तिकारी समाज सुधारक व मानवतावादी थे.

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