दर्जी पर निबंध | Essay on Tailor in Hindi

Essay on Tailor in Hindi: नमस्कार दोस्तों आज हम दर्जी पर निबंध लेकर आए हैं. टेलर अर्थात दर्जी के विषय में हम सभी जानते हैं जिनसे हम कपड़े सिलवाते हैं.

आज के निबंध में हम दर्जी पर भाषण, स्पीच, अनुच्छेद, लेख, आर्टिकल जानेंगे, इसमें हम दर्जी की जीवन शैली, इतिहास, कार्य, विशेषताओं, कठिनाइयों के बारें में शोर्ट एस्से विस्तार से जानेगे.

Essay on Tailor in Hindi

Essay on Tailor in Hindi

300 शब्दों में दर्जी पर निबंध

दर्जी का मुख्य काम कपड़े सिलना होता है। दर्जी नए कपड़े को भी सिलने का काम करता है और पुराने फटे हुए कपड़े को भी सही करने का काम करता है।

दर्जी गांव में भी पाए जाते हैं और शहर में भी पाए जाते हैं। गांव में दर्जी को दर्जी ही कहा जाता है परंतु शहर में दर्जी को कहीं-कहीं पर टेलर कहते हैं जो कि अंग्रेजी भाषा का शब्द है।

दर्जी दुकान पर रह करके अपना काम करता है और यह काफी मेहनत करके अपनी जिंदगी व्यतीत करते हैं। दर्जी को अपने काम को करने के लिए कुछ औजारों की आवश्यकता होती है जैसे कि कैंची की 1 जोड़ी, एक सिलाई मशीन, एक मापने वाला टेप, एक तेज सूई, कुछ धागे की रील और गेंद तथा एक लोहे का प्रेस।

इसके अलावा दुकान पर आने वाले कस्टमर के माप को लिखने के लिए उसे लकड़ी के एक तखते और चोक की भी आवश्यकता पड़ती है, साथ ही उसके पास एक रजिस्टर भी होता है। यह सभी चीजें दर्जी के लिए बहुत ही आवश्यक होती हैं।

दर्जी हर कपड़े को सिलने के लिए अलग-अलग दाम लेता है। अगर कोई व्यक्ति दर्जी की दुकान पर नया कपड़ा सिलवाता है तो सामान्य तौर पर पेंट शर्ट के लिए दर्जी ₹400 से लेकर ₹800 तक लेता है,

वही पुराने फटे हुए कपड़े को सही करने के लिए दर्जी ₹100 से लेकर ₹200 तक भी ले सकता है। कपड़ा जितना अधिक होगा दर्जी उसके रफ्फू के लिए उतने ही पैसे लेगा।

दर्जी की दुकान सामान्य तौर पर बाजार में दिखाई देती है जिसमें कांच की एक अलमारी लगी हुई होती है और ऊपर दुकान के अंदर कोट, पैंट, सूट, और ब्लाउज टांगे होते हैं। दर्जी का काम करना काफी कठिन होता है। इस काम में कौशल प्राप्त व्यक्ति ही सफल हो सकते हैं।

900 शब्द दर्जी पर निबंध

प्रस्तावना

कपड़े प्रत्येक व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकता हैं. पूर्व जमाने में मानव नग्न ही घूमा करता था, कालान्तर में वस्त्र निर्माण तथा उससे सिलकर पहनने की कला उसने पाई.

हमारे समाज में कपड़े सिलाई का व्यवसाय करने वाले व्यक्ति को दर्जी के नाम से जाना जाता हैं. हरेक गाँव, मोहल्ले, बस्ती, नगर, शहर में दर्जी होते हैं.

यदि आज हम भिन्न भिन्न रंगीले वस्त्रों में सुसज्जित दीखते है तो दर्जी की कला के कारण ही यह सम्भव हो पाया हैं. दर्जी कड़ी मेहनत से लोगों के कपड़े सीकर अपना पेट भरता हैं.

इतिहास व नामकरण

भारत के कई राज्यों गुजरात, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, कर्नाटक, बिहार आदि में दर्जी जाति के लोगों की बड़ी आबादी बसती हैं.

मुख्य रूप से इस जाति के लोग जो हिन्दू है उन्हें हिन्दू या क्षत्रिय दर्जी कहा जाता है तथा मुस्लिम समुदाय में कपड़े सिलाई का काम करने वाले इदरीशी कहलाते हैं.

दर्जी शब्द की उत्पत्ति फ़ारसी भाषा के शब्द दारजान से मानी जाती है जिसका आशय होता है सिलाई करना, हिन्दुस्तानी भाषा में भी इसका अर्थ कपड़े की सिलाई कार्य से लिया जाता हैं.

धार्मिक आधार पर सरहिंदी, देसवाल और मुल्तानी. पंजाबी दर्जी (छिम्बा दारज़ी‍‌‌) आदि मुख्य जातियां इस समुदाय की हैं. राजस्थान का दर्जी समुदाय क्षत्रिय राजपूत को अपना पूर्वज मानते हैं तथा आराध्य के रूप में पीपाजी को पूजते हैं.

उसके औजार

हमारी प्राचीन वर्ण व्यवस्था में विभिन्न जातियों के अपने परम्परागत कार्य थे, दर्जी जाति के लोग कपड़े सिलने का कार्य सदियों से करते आए हैं, संत पीपा उनके आराध्य देव माने जाते हैं.

आधुनिक समय में भी दर्जी कपड़े सिलते है मगर अब यह व्यवसाय अति विस्तृत हो चूका हैं जिसकें कारण जातीय बंधन टूट गया है तथा सभी जातियों के दक्ष कारीगर कपड़े सिलने के कार्य करने लगे हैं.

दर्जी सुंदर कलात्मक सिलाई कला का कार्य सिलाई मशीन और कुछ उपकरणों की मदद से ही कर पाता हैं. उसके इस कार्य में कई औजार मदद करते हैं जिनमें प्रमुख रूप से कैंची, इंचटेप, सिलाई मशीन, सुई धागा, अंगुस्ताना, टेलर चाक के अलावा लकड़ी का एक बड़ा तख्ता जिस पर पर कपड़े की कटिंग करता हैं.

ये अपने पास विविध रंगों व डिजाइन के वस्त्र भी रखता हैं. इसके अतिरिक्त सभी रंग के धागे भी अपने पास रखता हैं वह अपने ग्राहकों के नाप तोल के लिए एक रजिस्टर बनाकर रखता हैं जिसमें वह हिसाब किताब रखता हैं. उसके कई कार्य में पत्नी व बच्चें मदद करते है जैसे शर्ट के बटन, तुरपाई या प्रेस करने में सहयोग करते हैं.

उसकी दुकान

छोटी बड़ी आबादी के स्थानों पर अक्सर एक या अधिक दर्जी की दुकाने होती हैं. कुछ कपड़ा का व्यापार भी करते है तो कुछ कपड़े के व्यापारियों के पास ही अपनी दूकान बनाते हैं.

उसकी दुकान में कपड़े टांगने की खूटियाँ हमेशा सिले हुए कपड़ों से लदी रहती हैं जिन्हें देखकर लोगों के मन में आकर्षण का भाव भी बढ़ता हैं.

गाँवों में रहने वाले अधिकतर दर्जी अपने घरों या छोटे से स्टाल में ही दुकान बना लेटे हैं. उनके पास सिलाई के अपेक्षाकृत कम ग्राहक होते हैं.

जबकि शहरों में दर्जियो की दुकाने बेहद आकर्षक, लुभावनी एवं साइन बोर्ड से सुसज्जित होती हैं जिस पर दर्जी के स्टोर का नाम इत्यादि बड़े अक्षरों में अंकित रहता हैं.

उसका काम

वर्तमान में कपड़े सिलाई का उद्योग बेहद व्यापक एवं उच्च रोजगार प्रदान करने वाला क्षेत्र बन चुका हैं, इसके प्रशिक्षण के लिए कई संस्थान भी कार्य कर रहे हैं जहाँ नौसिखए लोगों को सिलाई का कार्य सिखाया जाता हैं.

कुछ लोग एक कुशल दर्जी के साथ काम करना सीखते हैं. जब तक वह व्यक्ति की इच्छा के अनुरूप कपड़े सिलना नहीं सीखता है तब तक वह उसके साथ कार्य करता है तथा साथ बैठता हैं.

अमूमन एक दर्जी के परिवार के सभी सदस्य सिलाई के कार्य में दक्ष होते हैं. वे बचपन से ही इस कार्य को नजदीकी से देखते रहने के कारण इसमें माहिर बन जाते हैं.

इस व्यवसाय में शिक्षित व्यक्ति के लिए काम करना अधिक आसान होता है, कम पढ़े लिखे दर्जी को नाप तौल और हिसाब के कार्य में अक्सर समस्याओं का सामना करना पड़ता हैं.

जब कोई व्यक्ति उसकी दुकान पर कपड़े सिलवाने के लिए आता हैं तो सर्वप्रथम वह उसकी इच्छा पूछता है कि उन्हें क्या व कैसा कपड़ा सिलवाना हैं.

इसके बाद वह शरीर का नाप लेता हैं तथा अपनी डायरी में अंकित कर देता हैं और ग्राहक को एक पर्ची देकर नियत तिथि पर कपड़े ले जाने के लिए कहता हैं.

ग्राहक के जाने के बाद दर्जी उस कपड़े को लकड़ी के तख्ते पर फैलाकर टेलर चोक की मदद से नाप के अनुसार चिह्न लगाकर कटिंग करता हैं तथा उन टुकड़ों को कच्चे टाँके की मदद से एक झाका देता हैं.

पेट, शर्ट, कोट, सलवार, कमीज, धोती जिस तरह के कपड़े का माप दिया है उसे पक्के टाँगे से सिलाई के बाद बटन, तुरपाई आदि के कार्य हाथ से सम्पन्न करता है तथा अंत में जब ड्रेस पूरी तरह बनकर तैयार हो जाती है तो वह इस्त्री कर इसे अलमारी में सहेज कर रख देता हैं और जब ग्राहक आता है तो उससे सिलाई खर्च लेकर कपड़े दे देता हैं.

उसकी मजदूरी

दर्जी का कार्य बेहद श्रमसाध्य एवं जोखिम भरा हैं निरंतर एक स्थान पर बैठे रहकर हाथों की सुरक्षा का ख्याल करते हुए उन्हें कपड़े सिलने पड़ते हैं.

आज के दौर में गाँव के दर्जी की तुलना में शहर के दर्जी बड़ी मात्रा में धन कमाते हैं उनके कपड़े सिलाई की कीमते बहुत ऊंची होती हैं, जबकि गाँव का दर्जी आज भी लोगों को राहत देने वाली छोटी कीमत पर कपड़े सिलकर देता हैं कड़ी मेहनत के उपरान्त वह शाम होते होते उतनी कमाई कर लेता हैं जिससे उसके परिवार का खर्च आसानी से चल जाता हैं.

जिस तरह समय के साथ सिलाई कर्म में बदलाव आए हैं उसी तरह समय के साथ दर्जियों ने भी अपने व्यवहार में परिवर्तन किये हैं. एक समय उन्हें समय पर काम न करने वाले, वायदे के कमजोर और ग्राहकों को बार बार चक्कर लगवाने वाले माना जाता था,

मगर आज न केवल ये कपड़े के भरोसेमंद व्यापारी व दर्जी के कारोबार चलाते है बल्कि समय पर काम भी किया जाता है तथा कपड़े के साथ हेर फेर भी कम हुआ है, जो किसी समय एक दर्जी की पहचान मानी जाती थी.

उपसंहार

आज के दौर में कपड़ा सिलाई एक आधारभूत व्यवसाय बन चूका हैं. एक दक्ष दर्जी इस कार्य को अपनाकर अपने जीवन का निर्वहन आसानी से कर सकता हैं.

जीवन में कपड़े सिलाई करने का स्वप्न रखने वाले युवक युवतियाँ प्रशिक्षण प्राप्त कर अल्प खर्च में अच्छा व्यवसाय शुरू कर सकते हैं.

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