भारतीय कृषि का इतिहास महत्व व सुधार Indian Agriculture Hindi

नमस्कार दोस्तों आज के लेख में आपका स्वागत हैं. हम भारतीय कृषि का इतिहास महत्व व सुधार Indian Agriculture Hindi पर बात करेगे. 

आज के लेख में हम भारतीय कृषि के इतिहास वर्तमान स्थिति महत्व चुनौतियां समस्याओं और उनके हल पर बात करेंगे.

भारतीय कृषि का इतिहास महत्व व सुधार Indian Agriculture Hindi

प्राचीनकाल से ही कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की आधारशिला रही है. कृषि एवं उससे सम्बन्ध क्षेत्र भारत की अधिकाँश जनसंख्या खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के लिए मुख्य आजीविका का साधन है. देश की लगभग आधी आबादी आज भी कृषि पर आश्रित है.

हालाँकि योजनाबद्ध विकास की प्रक्रिया ने कृषि का राष्ट्रिय आय में अंश कम हुआ है. फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि का महत्व कई दृष्टिकोण से आज भी बना हुआ है,

आज के लेख में हम भारतीय कृषि का इतिहास, व्यवस्था, विशेषता, इसके प्रकार समस्या और समाधान निबंध तथा 1947 से पहले व बाद में कृषि स्थति पर विस्तार से जानकारी

भारतीय कृषि का महत्व (Importance of Indian agriculture)

भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि के महत्व और योगदान को निम्नलिखित तथ्यों के माध्यम से समझा जा सकता है.

राष्ट्रीय आय में योगदान- 

भारतीय कृषि हमेशा से ही राष्ट्रीय आय का बहुत बड़ा भाग रही है. केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा जारी किये गये आंकड़ो के अनुसार वर्ष 1950-51 में कृषि एवं उसकी सहायक क्रियाओं जैसे वानिकी, लकड़ी काटना, पशुपालन, मछली पालन, खनन, मुर्गी पालन आदि का राष्ट्रीय आय में योगदान 59.2 प्रतिशत था.

जो सन 2012-13 में घटकर (2004-05 के स्थिर मूल्यों पर) 13.7 प्रतिशत हो गया. फिर भी अन्य विकसित देशों के मुकाबले आज भी कृषि, जीडीपी में काफी अधिक योगदान दे रही है.

रोजगार उपलब्ध करवाना-

भारतीय कार्यकारी जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग आज भी कृषि और उसकी सहायक क्रियाओं पर आश्रित है. 1950-51 में जहाँ कुल कार्यकारी जनसंख्या का 70 प्रतिशत भाग कृषि व उसकी सहायक क्रियाओं में कार्यरत था.

वह आज भी 2011 की जनगणना के अनुसार लगभग 48.9 प्रतिशत है.कृषि प्रत्यक्ष रूप से खेती करना, फसल कटाई, छटाई, सिंचाई कार्य आदि में रोजगार तथा पशुपालन, मत्स्य पालन, मुर्गीपालन, वानिकी, खाद्य प्रसंस्करण, फल सब्जियों को बिक्री हेतु तैयार करना, पशुचारा तैयार करना, खली तैयार करना आदि कार्यों में अनेक गैर कृषि लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करती है.

भारत में योजना काल में कृषि का अंश रोजगार में काफी ऊँचा बना हुआ है. किन्तु राष्ट्रीय आय में इसका अंश घट रहा है. जिसे कृषि की नवीन पद्धतियों को अपनाकर बढ़ाया जा सकता है.

अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में योगदान

कृषि का विदेशी व्यापार की दृष्टि से भी काफी महत्व है. हम कई प्रकार के कृषिगत पदार्थों के आयात एवं निर्यात करते है.

भारत से निर्यात की जाने वाली वस्तुओं में चाय, गर्म मसालें, कॉफी, चावल, कपास, तम्बाकू, काजू, फल, सब्जियाँ, फलों का रस, सामुद्रिक पदार्थ, चीनी तथा माँस और माँस से बने हुए पदार्थ मुख्य कृषिगत वस्तुएँ है.

वर्तमान में कुल निर्यात में कृषि तथा उसके सम्बन्ध क्षेत्र का योगदान लगभग 12.5 प्रतिशत है.

औद्योगिक विकास में योगदान

औद्योगिक विकास में कृषि का योगदान दो तरह से होता है.

  1. पहला कृषि हमारे प्रमुख उद्योगों के लिए कच्चा माल उपलब्ध करवाती है. जैसे सूती वस्त्र उद्योग के लिए कपास, पटसन उद्योग के लिए जूट, चीनी उद्योग के लिए गन्ना व चुकंदर, बागानी उद्योगों के लिए फल, सब्जियां, वनस्पति तेल उद्योगों के लिए तिलहन आदि. कुछ दवाइयों के लिए भी कृषि उत्पाद काम में लिए जाते है और आयुर्वेदिक औषधियाँ तो अधिकांशतः कृषि उत्पादों पर ही निर्भर होती है.
  2. दूसरा उद्योगों द्वारा निर्मित माल के लिए कृषि बाजार उपलब्ध करवाती है, जैसे ट्रेक्टर-ट्राली उद्योग, कृषि उपकरण उद्योग, रासायनिक उर्वरक उद्योग, कीटनाशक दवाई उद्योग, बीज उद्योग, पौधशाला आदि सभी वस्तुएं बेचने के लिए कृषि पर ही निर्भर है.
खाद्यान्न व चारा आपूर्ति में योगदान

देश की जनसंख्या एवं पशुओं के लिए खाद्यान्न एवं चारे की व्यवस्था कृषि के माध्यम से ही होती है.

निर्धनता उन्मूलन में योगदान

देश की बढ़ती जनसंख्या के लिए रोजगार एवं आय की व्यवस्था, कृषि एवं उसकी सहायक क्रियाओं में सुधार करके सरलता से की जा सकती है और देश में निर्धनता के प्रसार को रोका जा सकता है.

राजस्व में योगदान

कृषि एवं उनकी सहायक क्रियाओं से सरकार को अल्पमात्रा में करों के रूप में राजस्व की प्राप्ति होती है.

अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के विकास में योगदान

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की नीव होने के कारण अन्य सभी क्षेत्र इससे प्रभावित रहते है. कृषि एवं उसकी सहायक क्रियाओं के विकास से ही ग्रामीण विकास, परिवहन, संसार, बैकिंग तथा औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलेगा. इन सभी कृषि योगदानों को देखते हुए कहा जा सकता है, कि कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की धुरी है.

पशुधन के विकास का आधार

विश्व के सर्वाधिक पशु भारत में है. आज भी कृषि सम्बन्धी अधिकाँश कार्य पशुओं के माध्यम से ही किये जाते है. और अधिकांश पशुपालन कृषकों द्वारा ही किया जाता है.

डेयरी, ऊन, माँस,दूध तथा दूध से बने पदार्थों का उत्पादन तथा नस्ल सुधार इत्यादि कृषि क्षेत्र में लगे होते है. इसलिए पशुधन का विकास भी कृषि क्षेत्र में होता है.

कृषि क्षेत्र में सुधार (current scenario of Indian Agriculture Hindi)

औपनिवेशिक शासनकाल की नीतियों के दुष्परिणाम कृषि क्षेत्र के गतिहीन विकास के रूप में सामने आए. स्वतंत्रता प्राप्ति (15 अगस्त 1947) के समय भारत में कृषि की स्थति दयनीय थी.

कि योजनाकाल में हुए विकासात्मक कार्यों के परिणामस्वरूप कृषि क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय सुधार हुए, 1947 से पहले व बाद में भारतीय कृषि की क्या स्थिति को निम्न बिन्दुओं द्वारा समझा जा सकता है.

खाद्यान्न उत्पादन (Food production)

भारत विविधताओं वाला देश है, यहाँ की जलवायु में मिट्टी, जलस्तर, भौगोलिक सरंचना आदि में अनेक विविधता पाई जाती है.

जिससें यहाँ कई प्रकार की फसलें बोई जाती है. मुख्य रूप से हम भारतीय फसलों का वर्गीकरण दो प्रकार से कर सकते है.

ऋतुओं के आधार पर फसलों के प्रकार (Types of crops based on the seasons)

ऋतुओं के आधार पर फसले तीन प्रकार की होती है.

  1. रबी की फसल (Rabi crop)– ये फसलें अक्टूबर से नवम्बर के मध्य बोई जाती है, तथा मार्च अप्रैल में काटी जाती है. इनमें मुख्यतः जौ, चना, सरसों आदि फसलें आती है.
  2. खरीफ की फसलें (Kharif crops)– ये फसलें जून-जुलाई के मध्य बोई जाती है. यह सितम्बर से अक्टूबर के मध्य काटी जाती है. इसके अंतर्गत चावल, ज्वार, बाजरा, अरहर, मूंग, मक्का, कपास, तिल, गेहू, सोयाबीन तथा मूंगफली की फसलें आती है. चावल एक ऐसी फसल है जो रबी तथा खरीफ दोनों के अंतर्गत है.
  3. जायद की फसलें (Zayed crops)– ये फसलें मार्च से जून के मध्य होती है. जैसे खरबूज, तरबूज, ककड़ी तथा सब्जियाँ, सूरजमुखी आदि फसलें है.

उपयोग के आधार पर फसलों का वर्गीकरण (Classification of crops based on usage)

उपयोग के आधार पर फसलों को दो भागों में विभाजित किया जाता है.

  1. खाद्यान्न फसलें (Food crops)– खाद्यान्न फसलें वे फसलें होती है, जो खाद्यान्न रूप में उपयोग की जाती है. ये निम्न है- चावल, गेंहू, मक्का, मोटे अनाज तथा दालें.
  2. व्यापारिक फसलें या नकदी फसलें (Business crops or cash crops)नकदी फसलें वे फसलें है, जो लाभ कमाने लिए विक्रय के उद्देश्य से उगाई जाती है. किसान इन्हें या तो सम्पूर्ण रूप से बेच देता है या आंशिक रूप से उपयोग करता है. जैसे तिलहन, गन्ना, जूट, कपास, चाय, कॉफी, तम्बाकू.वर्तमान में सभी फसलों के क्षेत्रफल और उनकी उत्पादकता में परिवर्तन हुआ है. विगत वर्षों में खाद्यान्न के उत्पादन में वर्ष 1950-51 से 2012-13 तक के 62 वर्षों में 4.2 गुना, तिलहनों में लगभग 5.3 गुना, गन्ने में लगभग 5.13 गुना कपास में लगभग 3.95 गुना वृद्धि हुई है. तथा जुट में लगभग 2.5 रही है.

भारत में विश्व के कई अन्य देशों के मुकाबले आज भी उत्पादकता कम है, जिसके प्रमुख कारण निम्न है.

प्राकृतिक कारण (Natural reason)

इसके अंतर्गत निम्न कारणों को शामिल किया जाता है.

  1. मानसून पर अत्यधिक निर्भरता
  2. सिंचाई के साधनों का अभाव
  3. निरंतर कृषि कार्य से उर्वरा शक्ति की कमी
  4. पश्चिम क्षेत्र का विशाल मरुस्थल
  5. खरपतवार की समस्या
  6. प्राकृतिक आपदाएं (अकाल, बाढ़, सूखा,चक्रवात)
  7. बंजर एवं बेकार भूमि का बड़ा भाग
तकनीकी कारण (Technical reason)
  1. सिंचाई सुविधाओं का अविकसित एवं पिछड़ा हुआ होना.
  2. विद्युत आपूर्ति की कमी
  3. कृषि उत्पादक जैसे- उन्नत खाद, बीज, औजार आदि का अभाव
  4. परिवहन संचार तथा बैकिंग सुविधाओं का अभाव
  5. कृषि उत्पादन के भंडारण की उच्च लागत
  6. कृषि विपणन की उचित व्यवस्था का न होंना
संस्थागत कारण (Institutional reason)
  1. भू जोतों का आकार छोटा होना
  2. दोषपूर्ण भू-धारण प्रणाली
  3. जनसंख्या की कृषि पर अत्यधिक निर्भरता
  4. कृषकों के जोतों का दूर दूर तक बिखरा होना.

उपर्युक्त कारणों के अतिरिक्त प्राकृतिक आपदाएं तथा वित्तीय संकट भी भारत में कृषि की उत्पादकता को कम करने का मुख्य कारण है.

भारत में भूमि/कृषि सुधार कार्यक्रम (land reform programmes in india)

कृषिगत उत्पादन एवं उत्पादकता को बढ़ाने तथा किसानों की आर्थिक दशा सुधारने के लिए स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भूमि सुधार कार्यक्रमों पर बल दिया गया. जिसके अतिरिक्त निम्न भू सुधार कार्यों का भी क्रियान्वयन किया गया.

  • मध्यस्थों की समाप्ति
  • लगान नियमन
  • भू धारण की सुरक्षा
  • काश्तकारों को भू स्वामी बनने का अधिकार दिलाना
  • जोतों की सीमा का निर्धारण
  • चकबंदी
  • सहकारी खेती
  • भूमिहीन मजदूरों को भूमि वितरण
  • अनुसूचित जाति तथा जनजाति के काश्तकारों की भूमि को अन्य जातियों के हस्तान्तरण पर रोक.
  • भू रिकॉर्ड के कंप्यूटरीकरण की सुविधा.

स्वतंत्रता प्राप्ति से अब तक अनेक सुधार कार्यक्रम अपनाएँ गये है. किन्तु आज भी किसानों की अशिक्षा और अज्ञानता के कारण उसका पूरा लाभ उन्हें नही मिल पा रहा है.

भारतीय कृषि में सिंचाई की व्यवस्था (Types of Irrigation Systems in India)

भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है. वर्षा पर निर्भर रहने के कारण कृषि में सदैव अनिश्चिनता तथा अस्थिरता बनी रहती है.

जिसे ध्यान में रखकर स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात से ही भारत में सिंचाई सुविधाओं के विस्तार पर विशेष ध्यान दिया गया. भारत में सिंचाई के प्रमुख स्रोत नहर, कुँए, चड़स व तालाब आदि है.

भारत सरकार द्वारा योजनाकाल में सिंचाई सुविधाओं के लिए विभिन्न परियोजनाओं का क्रियान्वयन किया गया है. सिंचाई परियोजना को तीन भागों में बांटा गया है.

  1. लघु सिंचाई परियोजनाएँ (Small irrigation projects)– ये 2000 हैक्टेयर तक कृषि योग्य कमांड क्षेत्र वाली परियोजनाएँ होती है.
  2. मध्यम सिंचाई परियोजनाएं (Medium irrigation projects)-ये 2,000 हैक्टेयर से अधिक किन्तु 10,000 हैक्टेयर तक कृषि योग्य कमांड क्षेत्र वाली परियोजनाएँ है.
  3. वृहत सिंचाई परियोजनाएँ (Large irrigation projects)-ये 10,000 हैक्टेयर से अधिक कृषि योग्य कमांड क्षेत्र वाली परियोजनाएँ होती है.

भारतीय कृषि जोतों का पुनर्गठन (land reforms in Indian Agriculture Hindi)

भारत में जोतों का आकार बहुत छोटा है, साथ ही जोते दूर दूर तथा बिखरी हुई है. इसका मुख्य कारण उतराधिकारी नियम के अनुसार पैतृक भूमि का बंटवारा है, जिसे उपविभाजन कहा जाता है.

इससें खेतों का आकार छोटा होता जाता है. दूसरा प्रत्येक किसान के अधीन आने वाकई जोते एक स्थान पर न होकर दूर दूर तक बिखरी हुई है. जिसे अपखंडन कहा जाता है, क्योंकि प्रत्येक उतराधिकारी भूमि की प्रत्येक किस्म में से हिस्सा प्राप्त करता है.

भारत में प्रथम कृषिगत संगणना के अनुसार वर्ष 1970-71 में कृषि जोत का आकार 2.28 हैक्टेयर था जो 2000-01 में घटकर 1.33 हो गया है.

कृषि में सर्वाधिक भाग 62.88 प्रतिशत सीमान्त जोते है. कृषि जोतों को आकार के आधार पर पांच भागों में बांटा गया है.

  1. सीमान्त जोत – 1 हैक्टेयर से कम
  2. लघु जोत- 1 से 2 हैक्टेयर
  3. अर्द्ध मध्यम जोत- 2 से 4 हैक्टेयर
  4. मध्यम जोत- 4 से 10 हैक्टेयर
  5. दीर्घ जोत- 10 व उससे अधिक हैक्टेयर

भारत में छोटी तथा सीमान्त जोतों की संख्या अधिक है. जोतों के आकार को छोटा होने से रोकने के लिए निम्न उपाय अपनाएँ जा रहे है.

  • चकबंदी
  • सहकारी खेती

खाद उर्वरक एवं कीटनाशक दवाइयां (Manure Fertilizers and Insecticides)

कृषि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए खाद और उर्वरकों का अपना एक अलग ही महत्व है. भारतीय कृषक प्रारम्भ से ही पशुओं के गोबर, फसलों की पत्तियाँ और जीवों द्वारा निर्मित खाद और उर्वरकों का उपयोग भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाने के लिए करते आ रहे है.

किन्तु हरित क्रांति के परिणामस्वरूप रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का उपयोग तीव्र गति से बढ़ा है. रासायनिक उर्वरकों में मुख्य रूप से नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटांश का प्रयोग अधिक मात्रा में होता है. वर्तमान में भारत में उर्वरकों के उपयोग का स्तर 239.59 लाख मी. टन हो गया है.

किन्तु आज भी उर्वरकों के उपयोग में भारत विकसित देशों के मुकाबले नीचे स्तर पर है. यही नही भारत के विभिन्न प्रदेशों में उर्वरकों के उपयोग में भी भारी अंतर पाया जाता है. पंजाब में उर्वरक का प्रति हैक्टेयर उपयोग सर्वाधिक है, वही उड़ीसा में यह सबसे कम है.

भारत में कृषि की समस्या Agriculture Problems In India In Hindi

भारत एक कृषि प्रधान देश है. देश की अधिकाश जनसंख्या के रोजगार तथा आय का मुख्य स्रोत कृषि है. देश में कृषि अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार स्तम्भ है. इसके बावजूद भारत में कृषि की दशा सन्तोषजनक नही है.

आज कृषि के क्षेत्र में अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.किसानों की समस्या और समाधान उनकी दशा के बारे में सरकार कुछ कदम उठाकर भारत में कृषि की दशा को सुधार सकती है.

प्राकृतिक आपदाएं (natural disasters)

भारतीय कृषि मानसून का जुआ है. वर्षा की अनियमितता तथा अनिश्चिनता सदैव बनी रहती है. कृषि को सूखा, बाढ़, पाला, चक्रवात, तेज आँधियों का सदैव भय बना रहता है.

इसके अतिरिक्त मृदा अपरदन, मरुस्थल प्रसार, भूमि की उर्वरकता की क्षति, सेम की समस्या, क्षारीयता, कीड़ो का प्रकोप, बीमारियों आदि से भी कृषि क्षेत्र में भारी हानि होती है.

जोतो का छोटा आकार

भारतीय कृषि में पिछड़ेपन का मुख्य कारण जोतो का छोटा आकार है. इस कारण इन पर उन्नत कृषि तकनीक का प्रयोग कर पाना संभव नही है.

दूसरा जोतों बिखरी हुई होने के कारण उसका बहुत बड़ा भाग मेडबंदी में चला जाता है और प्रत्येक जोत पर कृषक उचित ध्यान व तकनीक उपयोग में नही ला पाता है इससे उत्पादकता में कमी आती है.

कृषि वित्त का अभाव

फसल बोने से काटकर बाजार में बेचने तक किसानों को कृषि कार्य तथा जीवन निर्वाह हेतु वित्त की अत्यंत आवश्यकता होती है.

खाद बीज, कीटनाशक, उपकरण बिजली का बिल, मजदूरी का भुगतान करने के लिए किसानों को स्थानीय साहुकारो, महाजनों तथा व्यापारियों से उधार लेना पड़ता है.

जो उनसे ऊँची ब्याज दरे वसूल करते है. तथा किसानो को अपनी उपज जबरन उसे बेचने के लिए बाध्य करते है तथा उपज का उचित मूल्य भी नही देते है. इसलिए कृषक सदैव अभाव में ही जीवन यापन करता है. इससे कृषि की उत्पादकता प्रभावित होती है.

कृषि आगतों का अभाव

किसानों के पास उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक अच्छे औजार आदि की अपर्याप्तता एवं अभाव बना रहता है. अच्छे बीजों एवं तकनीक के अभाव में उत्पादन कम हो पाता है. खाद तथा कीटनाशकों के अभाव में फसल खराब हो जाती है.

सिंचाई सुविधाओं का अभाव

भारतीय कृषि सिचाई के लिए वर्षा पर निर्भर है क्योकिं यहाँ कृत्रिम सिंचाई सुविधाओं का अभाव है तथा जो उपलब्ध है, उनमे भारी क्षेत्रीय असंतुलन पाया जाता है.

तालाबों बावरियों पोखरों जोहड़ो आदि का अनियोजित विदोहन तथा रख रखाव के अभाव में धीरे धीरे अनुपयोगी होते चले गये है.

जिनकी जगह ट्यूबवेल व नलकूपों के अत्यधिक प्रयोग के कारण भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है. सिंचाई के अभाव में यदि वर्षा समय पर नही हो पाती है तो फसलों को भारी नुकसान होता है.

भूमि की उर्वरा शक्ति का हास

रासायनिक उर्वरकों के बढ़ते प्रयोग के कारण भूमि का उर्वरा शक्ति लगातार कम हो रही है. जिससे उत्पादकता में गिरावट आती है.

कृषि विपणन की समस्या

भारतीय किसानों की एक महत्वपूर्ण समस्या यह है कि उसे अपनी फसल बेचने के लिए जिन मंडियों तक जाना पड़ता है वे काफी दूर होती है. यातायात की उचित व्यवस्था नही होने के कारण वहां तक पहुचना कठिन होता है.

इन मंडियों में भंडारण की उचित व्यवस्था नही होने के कारण वर्षा, कीड़े, चूहों आदि के कारण किसानों की फसलें खराब हो जाती है. कभी कभी उन्हें अपनी उपज मजबूरीवश गाँव में ही साहुकारो या बिचोलियों को कम मूल्य पर भी बेचना पड़ता है.

किसानो की रुढिवादिता

आज भी अधिकाश भारतीय किसान रुढ़िवादी परम्पराओं से जकड़े हुए है. वे कृषि कार्यों में व्यय की तुलना में शादी, म्रत्युभोज एवं अन्य सामाजिक परम्पराओं के निर्वाह करने में अधिक व्यय करते है.

इन कार्यों के लिए वे कर्ज भी लेते है. वही दूसरी ओर भाग्यवादिता के कारण अपनी गरीबी को किस्मत का लेख मानकर उससे बाहर निकलने का प्रयास ही नही करते है.

किसानों में शिक्षा

आज भी भारत में किसानों की अशिक्षा अधिक पाई जाती है, जिससे वे न तो कृषि की उन्नत एवं उचित तकनीक को समझ पाते है न ही प्रयोग में ला पाते है. इसी अशिक्षा के कारण उचित मूल्य पर अपनी उपज बेचने का प्रयास करते है.

कृषि के बारे में जानकारी Krashi Agriculture In Hindi

कृषि व्यवसाय जिन्हें खेतीबाड़ी भी कहा जाता हैं. भारत व विश्व की अधिकतर आबादी की आय का साधन कृषि ही हैं.

भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णतया कृषि आधारित है. आधुनिक कृषि, विज्ञान व तकनीकी साधनों के प्रयोग से परम्परागत खेती से आगे जा चुकी हैं.

आधुनिक कृषि कला, विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी का समन्वित प्रयास हैं. इसमें विज्ञान व अनुवांशिक अभियांत्रिकी के सिद्धांत पर बल मनचाहे लक्षणों वाली फसल प्राप्त करना संभव हो पाया हैं. जिससे तेजी से बढ़ती मानव की रोटी कपड़ा व अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है.

आधुनिक कृषि के चरण निम्न हैं.

  • उन्नत बीज– अधिक उत्पादन, रोग प्रतिरोधक क्षमता, परिपक्वता समय में एकरूपता तथा विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थतियों में अनुकूलता बढ़ाने आदि उद्देश्यों की पूर्ति हेतु बीजों की गुणवता में सुधार किया जा रहा हैं.
  • फसलों का खनिज पोषण- फसली पादपों को भोजन बनाने व वृद्धि के लिए विभिन्न प्रकार के पोषक तत्वों की आवश्यकता होती हैं. पादप पोषक तत्व हवा, जल व मृदा से प्राप्त करते हैं. इन पोषक तत्वों की आपूर्ति हेतु मृदा में विभिन्न प्रकार की खाद व उर्वरक का उपयोग किया जाता हैं. खाद के रूप में गोबर खाद, कम्पोस्ट खाद, वर्मी कम्पोस्ट तथा हरी खाद का उपयोग किया जाता है. उर्वरक के रूप में यूरिया, डाईअमोनिया, फास्फेट, सुपर फास्फेट, अमोनियम सल्फेट व कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट का उपयोग किया जाता हैं.
  • खरपतवार- किसान मृदा में फसली पादपों के बीज बोता हैं, मगर मृदा में उपस्थित कई अन्य बीज भी फसल के बीजों के साथ अंकुरित होकर पौधे उत्पन्न कर देते हैं. खेतों में फसली पादपों के साथ उगे अवांछित पादपों को खरपतवार कहते हैं. फसली पादपों में खरपतवार में जल, खनिज तत्वों हेतु प्रतिस्पर्धा होती हैं, जिससे फसली पादपों को पर्याप्त जल व खनिज लवण उपलब्ध नही होते हैं. खरपतवार फसली पादपों को ढक लेती हैं. जिससे फसली पादपों को पर्याप्त सूर्य का प्रकाश ग्रहण करने में बाधा उत्पन्न होती हैं. कुछ खरपतवार जड़ों से निरोधक रसायनों का सरावन कर फसल की वृद्धि पर विपरीत प्रभाव डालती हैं. खरपतवार जीवाणु, विषाणु व रोगाणुओं का आश्रय स्थल होने से फसलों में रोग उत्पन्न होने की संभावना बढती हैं. खरपतवार नष्ट होने हेतु अतिरिक्त श्रम की आवश्यकता होने से फसल की लागत बढ़ जाती हैं. खरपतवार नियंत्रक हेतु हाथों से उखाड़कर रासायनिक व जैविक विधियों का उपयोग किया जाता हैं.
  • पादप रोग- पादप या उसके किसी भाग के असामान्य रूप से  कार्य करने की स्थति को पादप रोग कहते हैं. पादप में रोग विषाणु, जीवाणु व कवक आदि सूक्ष्म जीवों के कारण होते हैं. फसलों  में रोग नियंत्रण हेतु रोग प्रतिरोधी किस्मों का उपयोग तथा पीड़कनाशी का छिड़काव किया जाता हैं.

Agricultural Credit In India | भारत में कृषि ऋण

भारत में कृषिगत अर्थव्यवस्था के पिछड़ेपन का एक कारण ऋण की सुविधाओं का अभाव माना जा रहा है. किसान को खाद, बीज, उर्वरक, कीटनाशक, कृषियंत्र मजदूरी आदि सभी कार्यों के लिए पर्याप्त मात्रा में ऋण की आवश्यकता पडती है, कृषकों को अवधि के आधार पर तीन प्रकार के ऋणों की आवश्यकता पडती है.

Agricultural Credit/Loan In India | भारत में कृषि ऋण के प्रकार

  1. अल्पकालीन ऋण- ये ऋण 15 महीनों से कम की अवधि के लिए दियें जाते है, जो कृषक कृषि सम्बन्धी अल्पकालीन आवश्यकताएं जैसे बीज, खाद, चारा आदि खरीदने तथा घरेलू आवश्यकताओ को पूरा करने के लिए दिया जाता है.
  2. मध्यम कालीन ऋण- ये ऋण 15 महीने से अधिक किन्तु 5 वर्ष से कम की अवधि के लिए दिए जाते है. ये सामान्यतया खेत में सुधार करने, पशु खरीदने, कुआ खुदवाने, कृषि औजार खरीदने के लिए होते है.
  3. दीर्घकालीन ऋण- ये 5 वर्ष से अधिक अवधि के लिए दिये जाते है. ये सामान्यतया नई भूमि खरीदने, पुराने कर्जे को चुकाने लघु सिचाई, बंजर भूमि को कृषि योग्य बनाने, भारी मशीनरी खरीदने, विद्युतीकरण, ट्यूबवेल खुदवाने आदि के लिए दिए जाते है.इन सभी ऋणों की प्राप्ति कृषकों द्वारा दो प्रकार से की जाती है.
  • गैर संस्थागत स्रोत- इसके अंतर्गत स्थानीय ग्रामीण साहूकार, जमीदार, महाजन, कमीशन एजेंट, व्यापारी, बड़े भू स्वामी व पारिवारिक रिश्तेदार शामिल होते है.
  • संस्थागत स्रोत- राष्ट्रीय स्तर पर ग्रामीण साख सुविधाओं के विस्तार हेतु 12 जुलाई 1982 को कृषि एवं ग्रामीण विकास के लिए बैंक नाबार्ड की स्थापना की गई. यह ग्रामीण ऋण व्यवस्था की सबसे शीर्ष संस्था है. संस्थागत ऋण के प्रमुख स्रोतों में व्यापारिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सहकारी बैंक, भूमि विकास बैंक आदि शामिल है.
  • सहकारी समितियों द्वारा प्रदान किये जाते है. जबकि दीर्घकालीन ऋण भूमि विकास बैंक जिसे भूमि बंधक बैंक भी कहा जाता है के द्वारा प्रदान किये जाते है. ऋण के क्षेत्र में संस्थागत स्रोतों के आगमन से कृषकों को संस्थागत स्रोतों द्वारा किये गये शोषण से मुक्ति मिली है. तथा ब्याज भी कम चुकाना पड़ता है.

FAQ

भारतीय कृषि का इतिहास कितना पुराना हैं?

भारतीय कृषि का इतिहास सिन्धु घाटी सभ्यता तक का प्राचीन हैं.

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की स्थापना कब हुई?

16 जुलाई 1929

भारतीय कृषि की सबसे बड़ी समस्या क्या है?

ऊपज की कम कीमते, मानसून आधारित कृषि, उन्नत तकनीकों का अभाव आदि भारतीय कृषि की मुख्य समस्याएं हैं.

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उम्मीद करता हूँ दोस्तों भारतीय कृषि का इतिहास महत्व व सुधार Indian Agriculture Hindi का यह लेख आपकों पसंद आया होगा.

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