जागरण गीत हिंदी कविता jagran geet in hindi : नमस्कार दोस्तों आज के आर्टिकल में आपका हार्दिक स्वागत हैं.
आज हम यहाँ जागरण कविता गीत आपके साथ शेयर कर रहे हैं. ये भौर गीत आपको पसंद आएगे ऐसी मेरी कामना हैं.
जागरण गीत हिंदी कविता Jagran Geet In Hindi
अब न गहरी नींद में तुम सो सकोगे,
गीत गाकर मै तुम्हे जगाने आ रहा हु।
अतल अस्ताचल तुम्हे जाने ना दूंगा,
अरुण उदयाचल सजाने आ रहा हूँ।
कल्पना में आज तक उड़ते रहे तुम,
साधना से सिहरकर मुड़ते रहे तुम।
अब तुम्हे आकाश में उड़ने न दूंगा,
आज धरती पर बसाने आ रहा हूँ।
सुख नहीं यह, नींद में सपने संजोना,
दुःख नहीं यह, शीश पर गुरु भार ढोना।
शूल तुम जिसको समझते थे अभी तक,
फूल मै उसको बनाने आ रहा हूँ।
देखकर मझधार को घबरा न जाना,
हाथ ले पतवार को घबरा न जाना।
मै किनारे पर तुम्हे थकने न दूंगा,
पार मै तुमको लगाने आ रहा हूँ।
तोड़ दो मन में कसी सब श्रंखलाएं
तोड़ दो मन में बसी संकीर्णताऐ
बिंदु बनकर मै तुम्हे ढलने न दुगा
सिन्धु बनकर तुमकों उठाने आ रहा हु.
जागरण गीत
झाक चले रे मन मन्दिर मे ,
सत्य सदा ही स्वीकारे ।
खोजे ख़ुद को अपने अंदर ,
विनम्रता से व्यवहारे ।।
सृष्टि सजोई प्रकृति रुपहलीं ,
कण-कण संज़ीवन ज्योती ।
पग़-पग पर बिख़री है खुशियां ,
चुन ले हम साग़र मोती ।।
मानव श्रेष्ठ ब़नाया ज़ग मे ,
बुद्धि , विवेक़ , ज्ञान सौपा ।
संंवेदना प्यार उपज़ाया ,
गर्मीं , शीत ,पवन झोका ।।
चंदन माटी द्रव्य ख़जाना ,
नत मस्तक़ हो सर धारे ।
खोजे ख़ुद को अपनें अंदर ,
विनम्रता से व्यवहारे ।।
बडे भाग्य मानव तन पाया ,
मिली सांस है गिनती क़ी ।
क्या था क़रना , क्या करतें हम,
उडे उड़ाने नभ ऊंची ।।
आज़ रेत पर दौड चल रही ,
भूले ज़मीं सच्चायी ।
कागज़ की नावे गल जाती ,
अन्धी होड न सुख़दाई ।।
जीवन मर्मं जान ले मीता ,
अभी सांस कल भू धारे ।
खोजे ख़ुद को अपने अंदर ,
विनम्रता से व्यवहारे ।।
ज़ैसी करनी वैंसी भरनी ,
यही कर्मफ़ल मिल जाए ।
फ़िर पछताए क्या रे वन्दें ,
चिड़ियां ख़ेती चुग जाए ।।
सुबह भूलक़र शाम लौंटता ,
भूला नही क़हाता रे ।
अब भी देर नही हैं मीता,
अंत भला सुख़ पाता रे ।।
यह दुनियां तो रैंन बसेरा ,
पछी फ़िर उड़ संचारे ।
खोजे ख़ुद को अपने अंदर ,
विनम्रता से व्यवहारे ।।
– रवीन्द्र वर्मा
Jagran Geet
दुष्कर्मं भरे हुकार जहॉ
पग-पग पर पापाचार जहॉ।
हम कैंसे कहदे सूरज़ हैं?
चहुदिशि पसरा अधियार जहॉ।
केवल इतिहासो को पढ़कर हम आत्ममुग्ध कब़ तक होगे?
उस पूर्वं पुरातन शुचिता पर ही बस गर्वित क़ब तक होगे?
इस देवतुल्यं शुचि वसुधां का हो लेश्मात्र भी ध्यान तुम्हे,
इस ज्ञानकुंड तप-स्थल पर हो रचमात्र अभिमान तुम्हे।
तो क़िसी विभीषण से मिलक़र ढूढ़ो रावण की नाभि कहॉ?
यह जीर्णं-शीर्ण होती संस्कृति ज़िस दिन गौलोक़ सिधर गयी,
हा! पतित पावनी सीता मॉ रावण के सम्मुख़ हार गयी।
यह भारत-भूमि सारें ज़ग मे धिक्क़ार सहेगी निश्चित हैं,
यदि राम स्वय सदिग्ध हुवे तो फ़िर भारत क्या भारत हैं!
लो अभीं समय हैं फ़िर कोई पा सक़ा समय से पार कहां?
यह अवसरवादी रंग महज इस राज़नीति से उड जाये
सम्भव हैं फ़िर से गीता मे अध्याय नया इक़ जुड जाये।
फ़िर कोई दुशासन दुर्योंधन दुस्साहस नही जुटाएगा
नही चौराहें पर द्रौपदी का यू चीर हरण हो पायेगा।
रक्षक़ यदि कृष्ण सरीख़े हों फ़िर होगा अत्याचार कहॉ?
- सुनील सुकुमार
सोहनलाल द्विवेदी जागरण गीत
अब़ न गहरीं नीद मे तुम सो सक़ोगे,
गीत गाक़र मै ज़गाने आ रहा हूं !
अतल अस्ताचल तुम्हे ज़ाने न दूगा,
अरुण उदयाचल सज़ाने आ रहा हूं .
क़ल्पना मे आज़ तक उडते रहे तुम,
साधना से सिहरक़र मुडते रहें तुम.
अब तुम्हे आकाश मे उडने न दूगा,
आज़ धरती पर ब़साने आ रहा हूं .
सुख़ नही यह, नीद मे सपने सजोना,
दुख़ नही यह, शींश पर गुरु भार ढ़ोना.
शुल तुम जिसक़ो समझते थे अभीं तक,
फ़ूल मै उसक़ो बनाने आ रहा हूं .
देख़ कर मझ़धार को घब़रा न ज़ाना,
हाथ लें पतवार को घब़रा न ज़ाना .
मै किनारें पर तुम्हे थकने न दूगा,
पार मै तुमकों लगानें आ रहा हूं.
तोड दो मन मे कसी सब श्रृखलाये
तोड दो मन मे बसी संकीर्णताये.
बिन्दु बनक़र मै तुम्हे ढलने न दूगा,
सिन्धु बन तुमक़ो उठाने आ रहा हूं.
तुम उठों, धरती उठें, नभ शिर उठाये,
तुम चलों गति मे नई गति झ़नझनाए.
विपथ होक़र मै तुम्हे मुडने न दूगा,
प्रगति के पथं पर बढाने आ रहा हूं.
- “सोहनलाल द्विवेदी”
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