न्याय पर सुविचार अनमोल वचन | Justice Quotes in Hindi

न्याय पर सुविचार अनमोल वचन | Justice Quotes in Hindi : हर समाज देश का अपना न्यायिक सिस्टम होता है जिसके द्वारा नागरिकों को न्याय दिलाने का कार्य किया जाता हैं. असल में न्याय की रक्षा कर पाने की क्षमता ही न्याय और अन्याय में फर्क करती हैं.

आजकल कानून बनाकर उसी के आधार पर न्याय देने का सिस्टम हैं. भारत की न्यायिक व्यवस्था की बात करे, तो न्याय मिलता है मगर कई बार अपने पिता के इन्साफ की गुहार उनके बेटे को ही मिलती हैं,

कई सालों तक मुकदमें चलते है कथित आरोपी को सजा होने से पूर्व ही अपनी जिन्दगी काल कोठरियों में बिता देनी पड़ती हैं. बहरहाल जो भी हो हर व्यक्ति न्याय चाहता है.

आज हम न्याय पर सुविचार (Justice Quotes Hindi) में जस्टिस के बारे में दार्शनिकों के थोट्स को जानेगे.

न्याय पर सुविचार अनमोल वचन | Justice Quotes in Hindi

न्याय अँधा होता है, वह किसी को पहचानता नही हैं.


अधिकांश मनुष्यों में न्याय के प्रति प्रेम इस भय के कारण होता है कि उन्हें अन्यायपूर्ण दंड न भुगतना पड़े.


शक्तिरहित न्याय प्रभुत्वहीन होता है, न्यायरहित प्रभुत्व अत्याचारपूर्ण होता हैं.


एक सीमा के आगे न्याय भी अन्यायपूर्ण बन जाता हैं.


केवल न्याययुक्त व्यक्तियों के कार्य उनकी शाख में मधुर गंध देते है और फूल की तरह खिलते हैं.


उदार होने के पहले न्यायपूर्ण बनिये.


भले ही आसमान गिर पड़े, परन्तु न्याय किया जाना चाहिए.


न्याय पक्ष, मित्रता और रिश्तेदारी को अस्वीकार करता हैं और इसलिए उसका प्रतिनिधित्व एक अंधे व्यक्ति के रूप में किया जाता हैं.


परमात्मा की चक्की धीरे परन्तु निश्चित पीसती हैं.


परमात्मा के यहाँ देर है अंधेर नही.


जो व्यक्ति वही कहता है जो वह न्यायपूर्ण समझता है, अंत में ठीक वही प्राप्त करता है, जिसका वह अधिकारी होता हैं.


पूर्ण स्वतंत्रता न्याय का उपहास करती है और न्याय स्वतंत्रता को अस्वीकार करता हैं.


जो न्यायपूर्ण हैं उसको शक्तिशाली बनाने में असमर्थ होने के कारण हमने शक्तिशाली को न्यायपूर्ण बना दिया हैं.


न्याय सभ्य समाज की स्थायी नीति होता हैं.


सटीक न्याय दया की अपेक्षा दीर्घकाल में सामान्यतः अधिक उदार होता है, क्योंकि वह मनुष्य में उन सशक्त गुणों की वृद्धि करता है, जो उन्हें अच्छे नागरिक बनाते हैं.


उदारतारहित न्याय शाइलोक का न्याय बन सकता हैं.


न्याय के मूलभूत सिद्धांत यह है कि किसी को गलत रूप में कष्ट न भोगना पड़े और सार्वजनिक कल्याण की सेवा की जाए.


किसी भी जगह पर होने वाला अन्याय सर्वत्र न्याय के लिए एक धमकी बन जाता हैं.


समस्त नैतिक कर्तव्यों के योग का नाम न्याय हैं.


न्याय में विलम्ब अन्याय हैं.


न्याय में देर करना न्याय न करना हैं.

न्याय पर सुविचार

ईश्वर की अदालत सर्वोपरि है। ईश्वर का न्याय अच्छे बुरे कर्म के फल स्वरूप मिलता ज़रूर है।


ईश्वर की अदालत में मनुष्य के कर्मों का सही फैसला किया जाता है।


अगर न्याय सही हो तो कल्याणकारी साबित होता है अन्यथा न्याय को अन्याय बनने में समय नहीं लगता है।


समाज में अदालत अन्याय के प्रति न्याय दिलाने की जगह है जो अपराध कम करने में समाधान स्वरूप बनाई गई है।


ईश्वर का न्याय मनुष्य के न्याय से कहीं अधिक स्पष्ट होता है क्योंकि कई बार मनुष्य की अदालत जहाँ सही फैसला नहीं दे पाती है वहाँ ईश्वर का न्याय सर्वश्रेष्ठ फैसला करता है।


अपराध को रोकने के लिए न्याय व्यवस्था की जाती है जो मनुष्य के हित में कार्य करती है।


न्याय हकीकत से इत्तेफाक कर कार्य के प्रमाण स्वरूप समक्ष लाया जाता है।


गलत कार्यों का एक ही न्याय होना चाहिए सज़ा जो मनुष्य को सुधरने का मौका देती है।


न्याय का ताल्लुक सत्य के दर्शन से है जो कर्म होते हैं उनका प्रमाणित स्वरूप न्याय के रूप में समक्ष आता है।


मनुष्य के स्वभाव में कई भाव विद्यमान होते हैं जो जीवों में नहीं मिलते हैं इसके गलत तरीके से इस्तेमाल व न्याय के अभाव से मनुष्य अन्याय का भोगी हो जाता है।


अदालत में मनुष्य को न्याय के नाम पर सही फैसले मिले यही आशा होती है लेकिन फैसला अनुरूप न होने पर न्याय की नींव कमज़ोर पड़ जाती है।


आधुनिक युग में न्याय सच्चा स्वरूप दिखाई नहीं पड़ता लेकिन सही सच्चा न्याय ईश्वर के न्याय स्वरूप ही होता है।


अदालत में न्याय दलीलों पर नहीं सबूतों के बलबूते पर फैसला पाती है इसलिए सही गलत का फैसला अक्सर दो रूपों में बँट जाता है। सही हो तो जीवन निखर जाता है और गलत हो तो जीवन पर असर करता है।


कभी कभी न्याय के नाम पर अपराध की सज़ा दया हो तो कई मामलों में अधिक सफल स्वरूप प्रस्तुत करती है।


न्याय अपनी वास्तविकता खो देता है अगर उसमें भ्रष्टाचार रूपी अंधकार छा जाता है।


मनुष्य अगर न्याय की गुहार एकजुटता स्वरूप  में करे तो जल्दी फलित होता है क्योंकि एकता में शक्ति होती है।


मनुष्य को अगर न्याय चाहिए तो समाज में होने वाले अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज़ उठानी चाहिए क्योंकि न्याय अन्याय जैसी बुराई को अच्छाई में बदलने की मुहिम है।


मनुष्य के कई कर्तव्य न्याय को फलित करते हैं जिनमें नैतिकता का स्वरूप विद्यमान होना चाहिए।


न्याय अन्याय के खिलाफ शीघ्र लागू व फलित हो तो सही रहता है लेकिन न्याय मिलने में अधिक देरी होती है तो अन्याय की श्रेणी में आ जाती है।


मनुष्य के न्याय से भी बड़ा न्याय ईश्वर की अदालत में मिलता है। मनुष्य चाहे कितना भी अन्याय कर ले उसे उसका फल मिलता है।


अगर समाज की अदालत विफल होती है तो ईश्वर का न्याय सही फैसला करता है भले देर हो सकती है लेकिन सही न्याय मिलता है।


किसी देश की सरकार की सफलता उसकी न्याय व्यवस्था में परिलक्षित होती है।


मनुष्य को अगर अपराध के लिए न्याय चाहिए तो कदम उठाना पड़ता है, अपराध के खिलाफ लड़ना पड़ता है, बिना लड़े न्याय मिलना संभव नहीं हो पाता है।


कानून व्यवस्था कड़ी होगी तो न्याय मिलने में मनुष्य आशा रख सकता है कि उसे सही फैसला मिलेगा।


न्याय का असली उद्देश्य होना चाहिए कि गरीबों, अहसायों का शोषण नहीं होना चाहिए।


न्याय ऐसा हो कि सही कर समर्थन और गलत को सज़ा होनी चाहिए।


प्रकृति का न्याय बड़ा विचित्र होता है कहीं गड्ढे में गिरी बच्ची भी बच जाती है और कोई बैठे बैठे ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।


समाज में गलत कार्यों के लिए सज़ा निर्धारित की गई है जो अदालत में न्याय और अन्याय के बीच फैसले के इंतजार में तारीखों के मध्य गुजरती जाती है। समय पर न्याय हो जाए यही आशा सार्थक रूप देती है।


न्याय का सही रूप यह है कि किसी निर्दोष को सज़ा ना मिल पाए और अपराधी को सज़ा मिले।


अदालत और समाज की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होती है कि दोषी को सज़ा मिले और कोई बेगुनाह न फँसे। जिसका पालन सही रूप से हो तो देश के लिए हितकर होता है और पालन ना होने पर परेशानी के बादल छा जाते हैं।


न्याय का दायित्व है कि हर बात की सही रूपरेखा प्रस्तुत की जाए और बिना मतलब के सही दिशा में सही न्याय हो पाए।


न्याय अन्याय में बदल जाता है अगर अन्याय के  खिलाफ आवाज़ न उठाई जाए और मूक दर्शक के समान जिसे देखते रहा जाए।


मनुष्य को न्याय की उम्मीद तभी करनी चाहिए अगर वह अन्याय के खिलाफ कदम उठा सकता है वरना न्याय मिलने की आशा नहीं करनी चाहिए।


न्याय के लिए लड़ना पड़ता है। अपने हक के लिए आगे आना पड़ता है। आवाज़ उठानी पड़ती है। हिम्मत करनी पड़ती है तभी न्याय की उम्मीद सार्थक रूप प्रदान करती है।


समाज जागरूक रहे और अपराध से मुक्त रहे जिसके लिए समाज में न्याय को संतुलित करना पड़ता है और न्याय व्यवस्था में सुचारूपन लाना पड़ता है।


मनुष्य अदालत से न्याय की उम्मीद करता है लेकिन मनुष्य को सही न्याय न मिलने पर वह ईश्वर से न्याय की आशा में अपनी कोशिश उस ओर उन्मुख कर लेता है।


मनुष्य में न्याय और अन्याय के फलस्वरूप मनुष्य की सफलता व असफलता निर्भर करती है।


मनुष्य की ताकत कम पड़ जाती है और पतन होना निश्चित हो जाता है अगर मनुष्य अन्याय करता है लेकिन इसके विपरीत न्याय से शक्ति का संचार एवं विकास होता है।


न्याय में वो शक्ति होती है कि जिंदगी बन भी जाती है और किसी की जिंदगी बिगड़ भी जाती है अतः न्याय हमेशा सही होना चाहिए, सत्य के स्वरूप सार्थक रूप प्रदान करने वाला होना चाहिए।


न्याय में अगर ढील होगी तो अपराध में बढ़ोत्तरी होगी अतः न्याय का सही रूप होना ज़रूरी है।


न्याय पर विश्वास बरकरार रहने के लिए न्याय मिलना चाहिए सही समय पर न्याय का मार्ग प्रशस्त होना चाहिए।


समाज में न्याय व्यवस्था का निर्माण मनुष्य ने किया है जिसमें कई बार अन्याय का पलड़ा भारी होने से दोषी न्याय से बच जाता है इसलिए न्याय की प्रक्रिया सुलभ व सहज होनी चाहिए।


दोषी को सज़ा और निर्दोष को न्याय सही समय पर मिलना चाहिए तभी समाज की न्याय व्यवस्था आदर्श न्याय व्यवस्था कहलायेगी।


न्याय में विफलता पर ईश्वर की न्याय व्यवस्था से गुज़र कर मनुष्य न्याय पाता है।


भले कई बार अपराधी छूट जाते हैं लेकिन कर्मों का हिसाब ईश्वर के पास रहता है। अदालत में मनुष्य न्याय से अगर बच जाता है तो ईश्वर की अदालत में सज़ा पाता है।


अन्याय के खिलाफ लड़ना ही अन्याय का खात्मा और न्याय की जीत होती है।


अन्याय होते हुए मूक दर्शक बनने की बजाए विरोध करना बेहतर है।


न्याय पक्ष विपक्ष की अपेक्षा तथ्यों पर निर्भर करता है इसलिए कई बार कानून को अंधा की संज्ञा दी जाती है जो देख नहीं पाता की क्या सही और क्या गलत है या देखकर भी अनदेखा कर देता है।


मनुष्य अगर अपना जीवन न्याय से पूर्ण बनाए वही कहे जो उसे सही लगता है तो वह वही प्राप्त करता है जो उसके हिसाब से प्राप्त करना चाहता है।


समाज में न्याय व्यवस्था के ज़रिए मनुष्य न्याय प्राप्त कर न्याय की सुरक्षा की क्षमता को परिभाषित करता है।


हमें अपनी क्षमता अनुसार आत्मनिर्भर बनाना चाहिए ताकि अपने अधिकारों व न्याय को प्राप्त कर सकें एवम् संघर्ष के द्वारा अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा को बनाए रखना चाहिए। 

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