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आज हम भारत के पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी की जीवनी इतिहास को संक्षिप्त में जानेगे. सादा जीवन और उच्च विचार की मिसाल रहे शास्त्री जी के जीवन की यात्रा में फर्श से अर्श तक की कहानी हैं.
लाल बहादुर शास्त्री का जीवन परिचय व निबंध | Lal Bahadur Shastri Biography Essay In Hindi
देश की राजनीति में फैले भ्रष्टाचार और उच्च पदों पर बैठे लोगों में अपने पद के प्रति उदासीनता को देखकर यकीन करना मुश्किल रहता है. कि इस दिन में लाल बहादुर शास्त्री नाम के एक प्रधानमन्त्री हुए थे.
जिन्होंने अपनी जीत की पूर्ण स्थति के उपरांत भी यह सार्वजनिक ऐलान किया था कि ” यदि एक भी व्यक्ति मेरे खिलाफ होगा,
उस स्थति में मै प्रधानमन्त्री नही बनना चाहुगा” जी हां हम बात कर रहे है भारत के दुसरे राष्ट्रपति श्री लाल बहादुर शास्त्री की, जो विरले राजनेता थे जिनकी नजर में स्वहित से पहले राष्ट्रहित सर्वोपरी था.
लाल बहादुर शास्त्री की जीवनी
लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को बनारस जिले में स्थित मुगलसराय नामक गाँव में हुआ था. उनके पिताजी शारदा प्रसाद जी एक शिक्षक थे. दुर्भाग्य से जब शास्त्रीजी मात्र डेढ़ वर्ष के थे उस समय ही शारदा प्रसाद जी का देहांत हो गया था.
बालपन में ही पिता के छाये से बिछड़ चुके लाल बहादुर शास्त्री के पालन पोषण की जिम्मेदारी माता श्रीमती रामदुलारी देवी जी के कन्धो पर आ गई. माँ शास्त्री को लेकर मायके चली गई. लाल बहादुर शास्त्री के पिताजी के देहांत के कारण उनकी शिक्षा ननिहाल में ही सम्पन्न हुई.
बचपन और आरम्भिक शिक्षा
पिताजी के देहांत के बाद नानाजी का सहारा मिलने के बाद भी शास्त्रीजी की कठिनाईया समाप्त नही हुई. अब प्राथमिक शिक्षा के लिए उन्हें गंगा नदी के पार विद्यालय जाना था.
पारिवारिक हालत अच्छे नही होने के कारण नाव या अन्य साधन के जरिये नदी पार कर पढाई करना एक जंग से कम नही था. मगर शिक्षा प्राप्ति की लग्न और अपने दृढ निश्चय से उन्होंने सभी विपरीत परिस्थितियों के उपरांत अपनी शिक्षा जारी रखी.
नदी में तैरकर तैसे वैसे उन्होंने छटी कक्षा तक की पढाई अपने ननिहाल में ही पूरी की. इसके बाद आगे की पढाई के लिए लाल बहादुर शास्त्री को उनके मौसाजी के साथ भेज दिया गया.
तभी महात्मा गांधी के सम्पर्क में आने के बाद इन्होने अपनी पढ़ाई छोड़कर 1920 में शुरू किये असहयोग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया.
कुछ वर्षो तक गांधीजी के प्रश्रय में रहने के उपरांत उन्हें आगे की पढ़ाई की प्रेरणा गांधी जी से ही मिली और फिर से 1925 में काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की. इसके पश्चात इन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र सेवा में समर्पित कर दिया.
लाल बहादुर शास्त्री का योगदान
महात्मा गांधी से प्रभावित होकर ही इन्होने शिक्षा को छोड़कर असहयोग आंदोलन में भाग लिया, फिर गांधीजी के कहने पर ही इन्होने वापिस जाकर काशी विद्यापीठ से शिक्षा अर्जन कर शास्त्री की पदवी प्राप्त की.
इस घटना से अंदाजा लगाया जा सकता है लाल बहादुर शास्त्री अपने जीवन में महात्मा गांधी को कितना महत्व देते थे. ऐसें व्यक्तित्व को वो अपना आदर्श मानते थे.
वर्ष 1920 में असहयोग आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के चलते शास्त्री जी को ढाई वर्षो के लिए जेल में बंद कर दिया गया, और यही से इनका स्वतंत्रता संग्राम का पाठ शुरू हो गया.
गाधिवादी विचारधारा को मानने वाले शास्त्रीजी को 1930 में नमक सत्याग्रह के दौरान फिर से जेल में बंद कर दिया गया था. जेल से रिहाई के बाद इन्हे राष्ट्रिय कांग्रेस पार्टी का उत्तरप्रदेश राज्य के महासचिव के पद की जिम्मेदारी सौपी गई.
यह वह वक्त था, जब अंग्रेजो की लाठी के नीचें कांग्रेस देशवासियों की नशों में पल रही थी. वर्ष 1935 में इन्हे महासचिव बनाया गया, 1938 तक तीन वर्षो में राज्य में पार्टी की नीव को मजबूत करने में लाल बहादुर शास्त्री ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
जब 1937 में पहली बार उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए तो इन्हें मुख्यमंत्री का संसदीय सचिव बनाया गया. इसके अलावा इन्हे उत्तरप्रदेश कमेटी के महामंत्री का पद की जिम्मेदारी दी गई. लाल बहादुर शास्त्री वर्ष 1941 तक इस पद पर बने रहे.
उसी समय महात्मा गांधी ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की शुरुआत कर दी. देश के स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाले शास्त्री जी भारत की आजादी की खातिर कई बार जेल गये थे. इस बार उन्हें फिर से जेल में बंद कर दिया गया.
लाल बहादुर शास्त्री इन हिंदी (आजादी के बाद)
जब वर्ष 1946 में भारत में पहली अंतरिम सरकार बनी उस समय पं गोविन्दवल्लभ पन्त जी को उत्तरप्रदेश राज्य के मुख्यमंत्री बनाए गये.
पन्त ने शास्त्री जी को अपना सभा सचिव बनाया, तथा अगले वर्ष इन्हें अपनी मंत्रीमंडल में शामिल कर लिया गया.
जिस पद की जिम्मेदारी दी गई उनके प्रति अपनी कृतव्यनिष्ठा और बलिदान को देखते हुए शीर्ष नेताओं ने 1951 में लाल बहादुर शास्त्री जी को राष्ट्रीय कांग्रेस के महासचिव के पद पर नियुक्त किया गया.
इसके बाद प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु ने इन्हें अपने मंत्रिमंडल में रेलमंत्री का पद दिया गया. रेलमंत्री के पद पर रहते हुए लाल बहादुर शास्त्री जी ने एक ऐसा उदाहरण पेश किया जिनकी ईमानदारी और कृतव्यनिष्ठा के कारण 1956 में हुई रेल घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इन्होने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था.
1957 के चुनावों में शास्त्री जी इलाहबाद सीट से फिर निर्वाचित हुए और इस बार फिर से इन्हें पंडित नेहरु की मंत्रिमंडल में परिवहन और संचार मंत्री की जिम्मेदारी दी गई.
अगले साल इन्हें वाणिज्य और उद्योग मंत्री का पद दिया गया. जब 1961 में गोविन्द वल्लभपन्त के देहांत के बार गृहमंत्री का कार्यभार इन्हें सौपा गया था.
इस तरह 1930 से शुरू हुए राजनितिक सफर में अपनी जिम्मेदारी और ईमानदारी को निभाते हुए कार्य करने वाले शास्त्री जी 9 जून 1964 को पंडित नेहरु के बाद सभी दलों की सहमती से भारत के दुसरे प्रधानमंत्री चुने गये.
लाल बहादुर शास्त्री के विचार
शास्त्री जी कठिन से कठिन परिस्थिति में सहजता से व साहस के साथ धैर्य से उस समस्या का सामना करने का अमादा रखते थे. इस प्रकार की स्थति उनके प्रधानमन्त्री पद पर रहते हुए भी आई.
वर्ष 1965 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण करने का दुशाह्स किया तो लाल बहादुर शास्त्री जी के नारे जय किसान जय जवान से उत्साहित होकर जहाँ वीर जवानो ने राष्ट्र की रक्षा के लिए अपनी जान हथेली पर रख दी.
तो दूसरी तरफ किसानों ने अधिक से अधिक उपजाने का संकल्प लिया. इसी के परिणामस्वरूप भारत को इस युद्ध में अभूतपूर्व विजय मिली. बल्कि देश के सभी भंडार अन्न से भर गये.
अपनी राजनितिक सुझबुझ और साहस के बल पर अपने कार्यकाल के दौरान लाल बहादुर शास्त्री जी ने देश के सामने उपस्थित कई बड़ी समस्याओं का बहादुरी से सामना किया.
लाल बहादुर शास्त्री की मृत्यु
1965 में भारत पाक युद्ध की समाप्ति के साथ ही 1966 में संधि प्रयत्न के सिलसिले में दोनों देशों के प्रतिनिधियों की बैठक ताशकंद में बुलाई गई थी. 10 जनवरी 1966 को भारत के प्रधानमन्त्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने एक संधि पर हस्ताक्षर किये.
और उसी रात्रि को लाल बहादुर शास्त्री एक गेस्ट हाउस में इनकी ह्रद्यघात से आकस्मिक मृत्यु हो गई. उनकी इस तरह आकस्मिक मृत्यु से पूरा राष्ट्र शोकाकुल हो गया.
शास्त्री जी की मृत्यु से जो देश को क्षति हुई उसकी पूर्ति कतई संभव नही है. किन्तु देश के उनके द्वारा तप और निष्ठा एवं कार्यो को सदा आदर और सम्मान के साथ याद करेगा. तीव्र प्रगति और खुशहाली के लिए आज देश के लिए लाल बहादुर शास्त्री निस्वार्थ नेताओं की आवश्यकता है.
लाल बहादुर शास्त्री पर निबंध
लाल बहादुर शास्त्री 27 मई 1964 को देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहर लाल नेहरु की मृत्यु के बाद देश को साहस एव निर्भीकता के साथ नेतृत्व करने वाले नेता की आवश्यकता थी.
प्रधानमन्त्री पद के दावेदार के रूप में मोरारजी देसाई और जगजीवनराम जैसे नेता सामने आए. तो इस पद की गरिमा और प्रजातंत्रिक मूल्यों को देखते हुए शास्त्री जी ने चुनाव में भाग लेने से स्पष्ट मना कर दिया था. अन्तः कांग्रेस अध्यक्ष कामराज ने कांग्रेस की एक बैठक बुलाई जिसमे शास्त्री जी को समर्थन देने की बात कही गई.
और 2 जून 1964 को कांग्रेस के संसदीय दल ने सर्व सम्मति से उन्हें अपना नेता स्वीकार कीया गया. इस तरह 9 जून 1964 को लाल बहादुर शास्त्री जी को देश के दुसरे प्रधानमन्त्री पद की शपथ दिलाई गई.
हर वर्ष 2 अक्टूबर को शास्त्री जयंती मनाई जाती है. इस दिन लाल बहादुर शास्त्री के जन्मदिन के साथ साथ गांधी जयंती भी है. जिन्हें वे अपना आदर्श मानते थे.
लाल बहादुर शास्त्री पर निबंध | Essay on Lal Bahadur Shastri In Hindi
आज के सरल निबंध में पूर्व प्रधानमंत्री श्री शास्त्री के जीवन के बारे में उनका आरम्भिक जीवन, राजनैतिक करियर, प्रधानमंत्री के रूप में और अंतिम समय और मृत्यु के बारे में जानकारी दी गई हैं.
“मरो नहीं, मारो” एवं ”जय जवान जय किसान” जैसे उद्घोषक श्री लाल बहादुर शास्त्री जिनका जन्म 2 अक्टूबर (गांधी जयंती) के दिन उत्तरप्रदेश के मुगल सराय कस्बे के प्रारम्भिक शाला के प्राध्यापक मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर हुआ था.
इनकी माता जी का नाम रामदुलारी देवी था जो मिर्जापुर के हजारीलाल की बेटी थी. माँ के साथ इन्होने अपना आरम्भिक जीवन मामा के घर ही बिताया यही के प्राथमिक शाला में इनकी पढाई हुई.
आरम्भिक जीवन
लाल बहादुर शास्त्री जी की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि ”वे एक सामान्य परिवार में पैदा हुए थे. सामन्य परिवार में ही उनकी परवरिश हुई तथा जब वे देश के सबसे महत्वपूर्ण पद प्रधानमन्त्री तक पहुचे. विनम्रता सादगी और सरलता उनके व्यक्तित्व में एक विशेष प्रकार का आकर्षण पैदा करती थी.
इस द्रष्टि से शास्त्री जी का व्यक्तित्व राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बहुत करीब था. और कहना न होगा कि बापू (महात्मा गाँधी) से ही प्रभावित होकर ही उन्होंने सनः 1921 में अपनी पढाई छोड़ी थी.
शास्त्री पर बहुत से भारतीय चिंतको भगवानदास और बापू का कुछ ऐसा प्रभाव रहा कि वह जीवन भर उनके आदर्शो पर चलते रहे और औरो को भी प्रेरित करते रहे. शास्त्री जी के सम्बन्ध में मुझे बाइबिल की वह पंक्ति बिलकुल सही जान पड़ती है. कि विनम्र ही पृथ्वी के वारिश होंगे.
स्वतंत्रता आंदोलन
शास्त्री जी ने हमारे देश के स्वतंत्रता संग्राम में जब प्रवेश किया था. जब वे एक स्कुल में एक विद्यार्थी थे. उस समय उनकी उम्र 17 वर्ष की थी. गांधीजी के आवहान पर वे स्कुल छोड़कर बाहर आ गये थे.
उसके बाद काशी विद्यापीठ में इन्होने अपनी शिक्षा पूरी की थी. उनका मन हमेशा देश की आजादी और सामजिक कार्यो की ओर लगा रहा. परिणाम ये हुआ कि ये सन 1926 में ”लोक सेवा मंडल” में शामिल हो गये. जिसके ये जीवनभर सदस्य रहे
इस संगठन में शामिल होने के बाद शास्त्री जी ने गांधीजी के विचारों के अनुरूप अछूतोद्धार के काम में अपने आप को लगाया. और यही से ही लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन का एक नया अध्याय शुरू हुआ.
सन 1930 में नमक सत्याग्रह (नमक कानून तोड़ो आंदोलन) शुरू हुआ, तो शास्त्री जी ने उसमे भाग लिया जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें जेल भी जाना पड़ा. यहाँ से शास्त्री जी के जेल की जो यात्रा शुरू हुई तो सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन तक निरंतर रूप से चलती रही.
इन 12 वर्षो के दौरान वे 7 बार जेल गये इसी से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि शास्त्री जी के अंदर देश की आजादी को लेकर कितनी ललक थी.
शास्त्री जी ने दूसरी जेल यात्रा 1932 के किसान आंदोलन में भाग लेने के लिए करनी पड़ी. सन 1942 की 3 साल की जेल यात्रा की थी. जो उनके जीवन की सबसे बड़ी जेल यात्रा थी.
राजनीतिक जीवन
इस दौरान जहाँ एक ओर गांधी जी द्वारा बताएं गये रचनात्मक कार्यो में लगे हुए थे. दूसरी ओर पदाधिकारी के रूप में जनसेवा के कार्य में लगे रहे. इसके बाद छ वर्षो तक वे इलाहबाद की नगरपालिका से किसी न किसी रूप से जुड़े रहे.
लोकतंत्र की इस आधारभूत इकाई में कार्य करने के कारण वे देश की छोटी छोटी समस्याओं और उनके निवारण की व्यावहारिक प्रक्रिया से अच्छी तरह परिचित हो गये थे.
कार्य के प्रति निष्ठा और अदम्य क्षमता के कारण 1937 में लाल बहादुर शास्त्री सयुक्त प्रांतीय व्यवस्थापिका सभा के लिए निर्वाचित हुए.
सही मायनों में यही से उनके संसदीय जीवन की शुरुआत हुई, जिसका समापन देश के प्रधानमन्त्री पद तक पहुचने में समाप्त हुआ.
जब शास्त्री जी 1964-65 में भारत के राष्ट्रपति बने उस समय देश बड़े संकट के दौर से गुजर रहा था. कुछ ही समय पूर्व तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरु के देहांत के बाद जहाँ एक तरफ अनुभवी नेता की कमी खल रही थी,
जो देश को आगे की ओर ले जाए दूसरी तरह भारत में राजनितिक अस्थिरता के हालात समझकर पाकिस्तान ने 1965 में सैन्य आक्रमण कर दिया था. मगर एक आदर्श राजनेता और राष्ट्रनायक की भूमिका निभाते हुए शास्त्री जी ने सुझबुझ से पाकिस्तान को चारो खाने चित कर दिया.
1965 में ताशकंद नामक स्थान पर भारत पाकिस्तान के राष्ट्रनेता (अयूब खान और शास्त्री जी ) युद्ध विराम के लिया समझौता हुआ. इस समझौते के कुछ ही समय बात ताशकंद में ही उनका देहांत हो गया था.
इस तरह एक सच्चे राष्ट्रभक्त और आज की युवा पीढ़ी के आदर्श लोकनायक की स्देहस्पद हालात में हुई मृत्यु के बारे में कई बार सवाल उठे मगर अभी तक यह दुर्घटना/साजिश एक राज ही बनी हुई है.
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