कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास जीवनी | Qutubuddin Aibak History In Hindi

कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास जीवनी जीवन परिचय Qutubuddin Aibak History In Hindi: गोरी की मृत्यु के समय कुतुबुद्दीन ऐबक में था. दिल्ली  के मुस्लिम सामंतों ने तत्काल उसका नेतृत्व स्वीकार कर लिया.   

कुछ दिनों  बाद  लाहौर  में मुस्लिम सामंतों ने भी उसे सत्ता ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया. ऐबक ने लाहौर पहुचकर शासन सत्ता अपने हाथ में ले ली. परन्तु उसने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की.

कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास – Qutubuddin Aibak History In Hindi

कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास - Qutubuddin Aibak History In Hindi

केवल मालिक और सिपहसालार की उपाधियाँ धारण की.उसने अपने नाम के सिक्के भी नहीं ढलवाए और न ही अपने नाम का खुतबा पढ़वाया इसका कारण शायद यह रहा हो कि उसे अभी तक दासता के बंधन से विधिवत मुक्ति नहीं मिल पाई थी.

ऐबक भारत की एक स्वतंत्र तुर्की सल्तनत की स्थापना करना चाहता था.परन्तु इसके लिए वह गोर वंशी शासकों से झगड़ा मोल लेना भी नहीं चाहता था.

उसने गोर के शासन गयासुद्दीन महमूद के समक्ष प्रस्ताव भेजा कि यदि उसे भारत के स्वतंत्र शासक के रूप में मान्यता दे दे तो ऐबक उसे ख्वारिज्म के शाह के विरुद्ध सैनिक सहायता देगा.

चूँकि गयासुद्दीन महमूद के लिए ऐबक को अपनी अधीनता में बनाएं रखना संभव नहीं था और उसे ख्वारिज्म के विरुद्ध सैनिक सहयोग की भी आवश्यकता थी.

अतः 1208 ई में गयासुद्दीन ने ऐबक को दासता से मुक्त कर दिया. उसे भारत का स्वतंत्र सुल्तान स्वीकार करते हुए उसके लिए शाही छत्र भिजवाया  इससे ऐबक  की वैधानिक स्थिति मजबूत हो गई और उसने अन्य मुस्लिम प्रतिद्वंद्वियो को दबाने  में आसानी हो गई.

पूरा नामकुतुबुद्दीन ऐबक
जन्मतुर्किस्तान
मृत्यु1210 ई.
मृत्यु स्थानलाहौर
शासन काल1206 ई. से 1210 ई. तक
राज्याभिषेकजून, 1206 ई., लाहौर
धर्मइस्लाम

ऐबक द्वारा बनवाई गई इमारतें

उत्तर भारत में पहली मस्जिद कुवत उल इस्लाम का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने हीं करवाया था। बता दें कि यह मस्जिद दिल्ली में स्थित है, जिसे विष्णु मंदिर को तोड़कर के बनवाई गई थी।

इसके अलावा अजमेर में ढाई दिन का झोपड़ा और दिल्ली में कुतुब मीनार का निर्माण भी कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल के दरमियान हीं हुआ था।

छोटे से कार्यकाल में बड़ा अत्याचार

कुछ विद्वानों ने यह भी कहा है कि अगर कुतुबुद्दीन ऐबक कुछ और साल तक सत्ता पर रह जाता तो निश्चित ही भारत एक इस्लामिक कंट्री बन जाता।

इस बात के कई सबूत भी प्रस्तुत हुए हैं। कुतुब मीनार का निर्माण करने के लिए कुतुबुद्दीन ने तकरीबन 27 हिंदू मंदिरों को तुड़वा दिया था। 

इसके पीछे उसका ऐसा माना था कि अगर यह मंदिर यहां पर रहेंगे तो लोग इस मंदिर की पहचान कर लेंगे। यही वजह है कि मंदिर तोड़ दिए गए।

इस्लाम के अंदर एक बात यह भी है कि कहीं भी कोई भी मूर्ति नहीं हो सकती। यही वजह है कि जितने भी इस्लामिक आक्रमणकारी हुए थे, उन्होंने अधिकतर बूतों को नष्ट करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी थी।

तुर्क साम्राज्य का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक

कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत देश में इस्लामिक सांप्रदायिक राज्य की स्थापना करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। इसीलिए इसे इंडिया में तुर्क सल्तनत का संस्थापक भी कहा जाता है।

हिंदी भाषा के प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर ने अपनी एक किताब में लिखा है कि इस्लाम सिर्फ नया मत नहीं था बल्कि यह हिंदुत्व का बहुत ही विरोधी मत था।

जयचंद के साथ युद्ध की तैयारी

जब कुतुबुद्दीन ऐबक ने भारत में एंट्री की तब अन्य इस्लामिक आक्रमणकारियों की तरह उसका भी यही उद्देश्य था कि वह कैसे अधिक से अधिक दूसरे धर्मों के लोगों को खत्म करें और उनके मंदिरों को तोड़कर के भारत में इस्लामिक साम्राज्य को कायम करें। 

अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने कई राजाओं के साथ युद्ध किया और उन्हें हराया और अंत में वह दिन भी आ गया, जब उसके रास्ते में जयचंद जैसे राजा बाधा बनते हुए दिखाई दे।

इसीलिए उसने योजना बनानी चालू कर दी और कन्नौज पर आक्रमण करने के लिए अपनी सेना भेज दी। उस समय कन्नौज के राजा जयचंद कन्नौज से लेकर के वाराणसी तक अपना राज पाठ चला रहे थे।

कुतुबुद्दीन ऐबक का सैनिक अभियान 

कुतुबुद्दीन ऐबक ने गौरी के सहायक के तौर पर विभिन्न क्षेत्र में चलाए जाने वाले सैन्य अभियान में पार्टिसिपेट किया और इसमें महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। इसी वजह से खुश होकर के गोरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को उन क्षेत्रों का सूबेदार बना दिया।

जब मोहम्मद गौरी जीत गया तो उसने राजपूताना में राजपूत राजकुमारों को सत्ता सौंप दी थी परंतु राजपूत राजा इस्लामिक आक्रमणकारियों के प्रभाव को खत्म करने के लिए आतुर थे।

इसलिए उन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार नहीं की। वहीं दूसरी तरफ जाटों ने भी मुगलों की नाक में अपने अपने इलाके में दम करके रखा था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने जाटों को हराकर के हांसी के किले पर अधिकार कर लिया था।

ऐबक की कठिनाइयों का अंत (Qutubuddin Aibak Life History In Hindi)

स्वतंत्र शासक बनते ही ऐबक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा. किन्तु ऐबक ने धैर्य और साहस के साथ अपनी कठिनाइयों एवं विषम परिस्थतियों पर विजय प्राप्त की.

उसने अपने उदार व्यवहार और कूटनीति के द्वारा तुर्क अमीरों का सहयोग प्राप्त करने का प्रयत्न किया. उसने कुछ प्रभावशाली तुर्की सरदारों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी आंतरिक स्थिति को मजबूत किया. उसने अपनी पुत्री का विवाह इल्तुतमिश नामक एक साहसी सेनानायक के साथ कर दिया.

सिंध के सूबेदार उसका बहनोई था और उसने ऐबक के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया. बिहार और बंगाल के खलजी सरदार अभी आपसी संघर्ष में उलझे हुए थे, अतः उनकी तरफ से विशेष खतरा नहीं था.

ऐबक को सर्वाधिक खतरा गजनी के सूबेदार यल्दौज से था. गौरी की मृत्यु के बाद यल्दौज ने कुबाचा पर आक्रमण करके मुल्तान को जीतने का प्रयास किया.

चूँकि कुबाचा ऐबक का नेतृत्व स्वीकार कर चुका था. अतः ऐबक ने सेना सहित यल्दौज के विरुद्ध प्रयाण किया और उसे परास्त कर खदेड़ दिया.

विजय से प्रोत्साहित ऐबक ने आगे बढ़कर गजनी पर भी अधिकार कर लिया. यहाँ ऐबक ने भोग विलास में डूब गया और उसके सैनिकों ने गजनी की नागरिकों पर अनेक प्रकार के अत्याचार किये.

फलस्वरूप गजनी के विरुद्ध उठ खड़े हुए और उन्होंने पुनः यल्दौज को आमंत्रित किया.ऐसी स्थिति में केवल चालीस दिन के बाद ही ऐबक को वापिस लौटना पड़ायदपि यल्दौज का गजनी पर पुनः सत्तारूढ़ हुआ. इस प्रकार बंगाल और बिहार के महत्वपूर्ण प्रान्त दिल्ली सल्तनत की अधीनता में आ गये.

कुतबुद्दीन ऐबक हिस्ट्री (Qutubuddin Aibak Ki History Hindi Mein)

ऐबक ने हिन्दू सरदारों की बढ़ती हुई शक्ति को भी रोकने का प्रयास किया. उसने बदायू के हिन्दू सरदारों का दमन किया और अपने दामाद इल्तुतमिश को यहाँ सूबेदार नियुक्त किया. जिन हिन्दू सरदारों तथा राजाओं ने उसे देना स्वीकार कर लिया. उसने उन्हें अपनी अपनी भूमि का स्वामी बने रहने दिया.

फिर भी मानना पड़ेगा कि यल्दौज और ख्वारिज्म के भय के कारण वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति के साथ राजपूतों की शक्ति से लोहा नहीं ले पाया.

वह कालिंजर और ग्वालियर को जीतने में असफल रहा. लगभग चार वर्ष शासन करने के बाद नवम्बर 1210 ई में लाहौर में चैगान खेलते समय घोड़े से गिर पड़ा और उसकी मृत्यु हो गई.

ऐबक का मूल्यांकन

ऐबक को भारत में तुर्क सल्तनत की स्थापना करने वाला माना जाता हैं. गोरी की विजयों में तो उसका सहयोग रहा ही, परन्तु गोरी की अनुपस्थिति में विजित प्रदेशों की सुरक्षा करना और हिन्दू शासकों के विद्रोहों का दमन करके साम्राज्य का विस्तार करना उसकी सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता हैं.

गोरी की मृत्यु के बाद भारत के विभिन्न मुस्लिम प्रभुत्व वाले क्षेत्रों का एक राजनीतिक सत्ता के अंतर्गत लाने में तथा भारत के मुस्लिम राज्य को एक स्वतंत्र राज्य बनाकर मध्य एशिया की राजनीति से उसे पृथक करके ऐबक ने बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण काम किया.

प्रोफेसर हबीबुल्ला ने लिखा हैं कि इस पर अधिक बल देने की आवश्यकता नहीं हैं. कि मुइजुद्दीन की भारत की सफलताओं का मुख्य श्रेय ऐबक के अथक परिश्रम और वफादार सेवा को था.

क्योंकि मुइजुद्दीन ने केवल प्रेरणा शक्ति प्रदान की थी जबकि ऐबक दिल्ली राज्य की विस्तृत योजनाओं और उनके निर्माण के लिए उत्तरदायी थी. सुल्तान के बाद ऐबक अधिक समय तक जीवित नहीं रहा,

अतः वह कला, साहित्य और भवनों के निर्माण की तरफ विशेष ध्यान नहीं दे पाया. फिर भी उसने विद्वानों को आश्रय स्थापत्य कला का प्रारम्भ उसी के प्रयासों का परिणाम था.

उसने दिल्ली में कुवातुक इस्लाम मस्जिद का निर्माण करवाया. और ख्वाजा कुतुबुद्दीन की यादगार में कुतुबमीनार का निर्माण कार्य शुरू करवाया, अजमेर में उसने हिन्दू मन्दिरों की निर्माण सामग्री से एक मस्जिद बनवाई जो ढाई दिन का झोपड़ा के नाम से आज भी विख्यात हैं.

संक्षेप में 1206 ई से 1210 ई तक के अपने अल्प शासनकाल में ऐबक ने अपनी योग्यता शूरवीरता तथा कूटनीति के माध्यम से दिल्ली सल्तनत की आधारशिला रखी. उसका महत्व इस बात में भी हैं. कि उसने भारत के मुस्लिम राज्य को गजनी की प्रभुसत्ता से पृथक करके स्वतंत्र राज्य का स्तर प्रदान किया.

कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु व शुभ्रक घोड़ा

घोड़े हमेशा से अपने मालिक के प्रति वफादारी का उसूल निभाते आ रहे हैं ऐसी ही एक कहानी गुलाम शासक कुतुबुद्दीन ऐबक और शुभ्रक घोड़े की हैं. मेवाड़ के राजा कर्ण सिंह के पास एक उत्तम नस्ल का घोडा था दौड़ हो या युद्ध का मैदान उसका सानी कोई और नहीं था.

लाहौर फतह के बाद ऐबक ने अपने राज्य की सीमाओं के विस्तार के लिए मेवाड़ मारवाड़ और उत्तरी पश्चिमी भारत के अन्य क्षेत्रों पर निरंतर आक्रमण जारी रखे.

मेवाड़ आक्रमण के समय इनकी नजर शुभ्रक घोड़े पर पड़ी. युद्ध का नतीजा कर्ण सिंह के खिलाफ रहा वे बंदी बना लिए गये और शुभ्रक घोड़े को अब ऐबक की शान बनना था.

मौजूद विवरण के अनुसार कहा जाता है एक दिन कर्ण सिंह ने ऐबक की जेल से बच निकलने की योजना बनाई मगर वे इसमें विफल रहे और सैनिकों ने इन्हें पकड़ लिया. अगले दिन कुतुबुद्दीन ऐबक के समक्ष इन्हें उपस्थित किया गया.

ऐबक ने आदेश दिया कि पोलो खेले लम्बा समय हो गया अतः हम इस काफिर के सर से कल खेलेगे. अगले दिन उन्हें मैदान में लाया गया, उधर खेलने के लिए कुतुबुद्दीन शुभ्रक पर सवार होकर आया. कहते है जैसे ही शुभ्रक घोड़े की नजर अपने स्वामी कर्ण सिंह पर पड़ी वह बेकाबू हो गया. उस पर बैठा कुतुबुद्दीन नीचे गिर पड़ा. शुभ्रक ने ताव में आकर उसकी छाती पर कई वार किए जिसके बाद वह मर गया.

अगले ही पल वह कर्ण सिंह को अपनी पीठ पर बिठाकर मेवाड़ की ओर चल दिया. एक ही श्वास में उसने अपने मालिक को उनके महल तक पहुंचा दिया.

जब कर्ण सिंह ने नीचे उतरकर घोड़े पर हाथ फेरा तो उन्होंने पाया कि वह अपने प्राण त्याग चूका हैं. जानवरों की ऐसी स्वाभिभक्ति के उदाहरण विरले ही मिलते हैं. आज भी शुभ्रक की समाधि बनी हुई.

‘शुभ्रक’ घोड़े के उपरोक्त प्रसंग की सच्चाई

इतिहास में कई बार कपोल कल्पनाओं और ऐसे किस्सों को रसा बसा लिया जाता है कि तथ्य और सच्चाई उसके ठीक बिलकुल उल्ट ही होती हैं.

कुतुबुद्दीन ऐबक और शुभ्रक घोड़े से मौत की कहानी भी एक काल्पनिक लोक कहानी से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होती. इस किस्से को दो बड़े तथ्य झुठला देते हैं.

1210 में लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय कुतुबुद्दीन ऐबक की मौत घोड़े से गिरने की वजह से हुई थी, यह सत्य घटना कही जाती है मगर वह घोडा शुभ्रक ही था तथा उसके मालिक कर्ण सिंह थे इसके कोई ऐतिहासिक प्रमाण या कोई विवरण नहीं मिलता हैं. क़ुतुबुद्दीन ऐबक़ के शासनकाल के समय मेवाड़ की सत्ता मंथन सिंह के हाथ में थी उनकी शासन अवधि 1191 से 1211 तक थी.

बात कर्ण सिंह की करें तो ये 1158 से 1168 ई तक मेवाड़ के शासक थे, जबकि कर्ण सिंह-2 का शासनकाल 1620 से 1628 ई तक था. अगर यह भी मान लिया जाए कि कर्ण सिंह प्रथम के पास कोई शुभ्रक नाम का घोडा था तो इसके विपक्ष में पहला तर्क यह है कि कुतुबुद्दीन ऐबक और कर्णसिंह का आमना सामना हुआ इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता हैं.

दूसरा तर्क कहता है कि दोनों के बीच 32 साल का अंतर था ऐसे में घोड़े की अवधि महज 20 से 25 वर्ष होती है फिर वह जीवित कैसे रहा होगा.

ये दोनों मत अपनी अपनी जगह ठीक हैं, हम ऐसा कोई दावा नहीं करते है कि क्या सही है और क्या गलत हैं. क्योंकि इतिहास लेखन और उसकी कालखंड की गणना पर हमेशा से प्रश्न किये जाते रहे हैं.

साथ ही भारत में इतिहास लेखन में भेदभाव को लेकर हमेशा से आलोचना की जाती रही हैं. निसंदेह राजपूताना के कई शासकों ने अपने अपने काल में अद्वितीय शौर्य का प्रदर्शन किया था, मगर बात इतिहास की हो तो वहां तथ्य और संगत व्याख्यान आवश्यक मान लिए जाते हैं.

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उम्मीद करते हैं दोस्तों Qutubuddin Aibak History In Hindi का यह लेख आपकों पसंद आया होगा. कुतुबुद्दीन ऐबक का इतिहास जीवनी के बारे में दी गई जानकारी आपको पसंद आया होगा. Qutubuddin Aibak In Hindi Qutubuddin Aibak Biography In Hindi को अपने फ्रेड्स के साथ जरुर शेयर करे.

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