संवैधानिक उपचारों का अधिकार क्या है | Right To Constitutional Remedies In Hindi

संवैधानिक उपचारों का अधिकार क्या है | Right To Constitutional Remedies In Hindi: भारतीय संविधान में प्रदान किये गये मूल अधिकारों की पालना सुनिश्चित करने के लिए कॉन्स्टिट्यूशन रेमेडी का प्रावधान किया गया हैं.

इस मौलिक अधिकार के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने अधिकारों के हनन की स्थिति न्यायलय जा सकता हैं. संवैधानिक उपचार संविधान के article 32 में वर्णित हैं. जिसमें नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए कई प्रावधान किये गये हैं. यहाँ हम विस्तार से मौलिक अधिकार को जानेगे.

संवैधानिक उपचारों का अधिकार क्या है Right To Constitutional Remedies In Hindi

संवैधानिक उपचारों का अधिकार क्या है Right To Constitutional Remedies In Hindi

यदपि संविधान में मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं. किन्तु यदि इनकी उचित क्रियान्विति की व्यवस्था न की जाए तो इसका कोई अर्थ नहीं रहेगा.

संविधान निर्माताओं ने इसी तथ्य को मध्यनजर रखते हुए संवैधानिक उपचारों का अधिकार दिया गया हैं. इसका अभिप्रायः यह है कि नागरिक अधिकारों को लागू कराने के लिए न्यायपालिका की शरण ले सकता हैं.

डॉ अम्बेडकर ने तो अनुच्छेद 32 का महत्व स्पष्ट करते हुए कहा था कि यदि मुझसे कोई पूछे कि संविधान का वह कौनसा अनुच्छेद हैं. जिनकें बिना संविधान शून्य प्रायः हो जाएगा तो मैं इस अनुच्छेद को छोड़कर किसी और अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता.

यह तो संविधान का ह्रदय व आत्मा हैं. सर्वोच्च व उच्च न्यायालय द्वारा मूल अधिकारों की रक्षा के लिए निम्न पांच प्रकार के लेख जारी किये जा सकते हैं.

What Is Meaning Of Right To Constitutional Remedies In Hindi

बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कार्पस): यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता हैं. जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बंदी बनाया गया हैं.

इसके द्वारा न्यायालय सम्बन्धित अधिकारी को यह आदेश देते है कि बंदी बनाए गये व्यक्ति को निश्चित समय व निश्चित स्थान पर निश्चित प्रयोजन के लिए उपस्थित करे जिससे न्यायालय यह जान सके कि उसे वैध रूप से बंदी बनाया गया हैं या अवैध. अगर बंदी बनाने का कारण अवैध होता है तो न्यायालय तत्काल इसे मुक्त करने की आज्ञा देता हैं.

परमादेश (मेंडेमस) : इस आदेश द्वारा न्यायालय उस पदाधिकारी को अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए आदेश जारी कर सकता हैं. जो पदाधिकारी अपने कर्तव्य का समुचित पालन नहीं कर रहा हैं.

प्रतिषेध लेख (प्रोहिबिशन); यह आलेख सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा अपने अधीनस्थ न्यायालयों को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में कार्यवाही न करे क्योंकि यह उनके क्षेत्राधिकार से बाहर हैं.

उत्प्रेषण लेख (क्यूओ वारंटों): इस आज्ञा पत्र का उपयोग किसी भी विवाद को निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए जारी किया जाता हैं. जिससे कि वह अपने शक्ति से अधिक अधिकारों का प्रयोग न करे और न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत की पालना की जा सके.

अधिकार पृच्छा: जब कोई व्यक्ति गैर कानूनी तौर पर किसी सरकारी या अर्द्ध सरकारी या निर्वाचित पद को संभालने का प्रयास करे तो ऐसा आदेश जारी किया जा सकता हैं कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा हैं. जब तक वह संतोषजनक जवाब नहीं देता तब तक वह कार्य नहीं कर सकता. न्यायालय उस पद को रिक्त घोषित कर सकता हैं.

बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट कैसे दायर की जाती है?

जो व्यक्ति खुद बंदी है वह भी बंदी प्रत्यक्षीकरण के लिए अप्लाई कर सकता है साथ ही जो व्यक्ति बंदी है उसकी साइड से कोई अन्य व्यक्ति भी बंदी प्रत्यक्षीकरण के लिए अप्लाई कर सकता है.

इसमें यह भी प्रावधान है कि अगर जेल में किसी कैदी के द्वारा अवैध काम किया गया है तो कोर्ट में बैठे हुए न्यायाधीश को पत्र एक्सेप्ट करना पड़ सकता है।

बता दे कि दिल्ली प्रशासन और सुनील बत्रा बनाम के एक केस में एक दोषी ने सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश को लेटर लिखकर के अपने साथी दोषी को बुरी यातना देने का आरोप लगाया था,

जिस पर सुप्रीम कोर्ट के जज स्वर्गीय न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने बंदी के द्वारा प्रस्तुत किए गए बंदी प्रत्यक्षीकरण की याचिका के रूप में उस याचिका को स्वीकार किया और संबंधित मामले से उचित आदेश पारित किया।

कोर्ट चाहे तो किसी भी तिमाही से प्राप्त हुई किसी भी इंफॉर्मेशन पर जस्टिस के हित में खुद ही हस्तक्षेप करके जरूरी कार्रवाई कर सकती है।

इन मामलों में नहीं जारी होता बंदी प्रत्यक्षीकरण

कुछ ऐसे भी मामले होते हैं जहां पर बंदी प्रत्यक्षीकरण जारी नहीं होता है जो कि इस प्रकार है।

  1. ऐसे व्यक्ति के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण जारी नहीं हो सकता जिसके खिलाफ रिट जारी की गई है।
  2. ऐसे व्यक्ति के खिलाफ भी बंदी प्रत्यक्षीकरण जारी नहीं हो सकता जिसकी रिहाई को बचाने के लिए अदालत ने क्रिमिनल केस के तौर पर उसे कैद किया हुआ है।
  3. शिव कांत शुक्ला और एडीएम जबलपुर के केस में यह माना गया था कि बंदी प्रत्यक्षीकरण के रिट को इमरजेंसी की सिचुएशन में भी खारिज नहीं किया जा सकता। इस मामले को बंदी प्रत्यक्षीकरण का ऐतिहासिक मामला माना गया था।
  4. बंदी प्रत्यक्षीकरण के मामले में कोर्ट चाहे तो मुआवजा भी देने का ऐलान कर सकता है। दरअसल भीम सिंह और जम्मू कश्मीर राज्य में सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा ₹50000 मुआवजे के तौर पर दिलवाए गए थे। इस प्रकार से यह सिद्ध होता है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण का रीट पर्सनल स्वतंत्रता का कवच होता है।

बंदी प्रत्यक्षीकरण के रिट के लिए उल्लेखनीय मामले

जिला मजिस्ट्रेट बनाम कानू सान्याल में बंदी प्रत्यक्षीकरण के रीट के वास्तविक ‌दायरा को क्लियर करते हुए भारत की सुप्रीम कोर्ट के द्वारा यह कहा गया था कि जिस व्यक्ति को अरेस्ट किया गया है, कोर्ट उस व्यक्ति की जरूरत के बिना हिरासत की वैधता की जांच कर सकती है।

उड़ीसा गवर्नमेंट बनाम नीलावती बेहरा के मामले में पुलिस के द्वारा पूछताछ करने के उद्देश्य से याचिकाकर्ता के बेटे को अरेस्ट किया गया था और फिर उसका पता नहीं लगाया जा सका.

जब लंबे समय तक याचिका लंबित रही तो उस याचिकाकर्ता के बेटे की लाश रेलवे ट्रैक पर प्राप्त हुई। इस प्रकार से कोर्ट के आदेश पर याचिकाकर्ता को तकरीबन 150000 का मुआवजा प्राप्त हुआ।

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