भारतीय कृषक पर भाषण | Speech On Indian Farmer In Hindi

भारतीय कृषक पर भाषण Speech On Indian Farmer In Hindi: नमस्कार दोस्तों आज के भाषण / Speech में आपका स्वागत हैं.

भारतीय कृषक (Indian Farmer) का जीवन उनकी कठिनाईयाँ, समस्याएं किसान की दशा आदि के बारें में  हम आज भाषण भारतीय कृषक किसान पर यहाँ हिंदी में साझा कर रहे हैं.

भारतीय कृषक पर भाषण | Speech On Indian Farmer In Hindi

भारतीय कृषक पर भाषण | Speech On Indian Farmer In Hindi

hello friends here is short essay & Speech On Indian Farmer In Hindi Language For School Students Of Class 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10.

कृषक पर भाषण Speech On Farmer In Hindi

ब्रह्मा सृष्टि का निर्माण करते है विष्णु पालन करते है तथा महेश संहार करते हैं. इस पर विश्वास करके यदि कृषक को ही विष्णु कहे तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी.

आकाश में उड़ने वाले स्वतंत्र पक्षी, पृथ्वी पर विचरण करने वाला मानव, यहाँ तक कि जलचर भी कृषकों पर ही निर्भर हैं.

तपस्या भरा त्याग, अभियान रहित उदारता और क्लान्ति रहित परिश्रम का चित्र देखना हो तो आप भारतीय कृषक को देखिये. वह स्वयं न खाकर दूसरों को खिलाता हैं स्वयं न पहनकर दूसरों को वस्त्र देता हैं. उसके अनुपम त्याग की समानता कोई नहीं कर सकता.

भारतीय कृषक की आकृति ऐसी प्रतीत होती है कि मानो कोई वीतराग सन्यासी हो जिसे न मान काहर्ष है और न अपमान का खेद, न फटे पुराने कपड़े पहनने का दुःख न अच्छे कपड़े पहनने की प्रसन्नता. जिसे न दुःख में दुःख और न सुख में सुख की कामना हैं.

जिसे न अज्ञानता से आत्म ग्लानी होती है और न ही दरिद्रता से हीनता. किसान वह साधक है जिसके ह्रदय में साधना करते हुए कभी सिद्धि की इच्छा उत्पन्न नहीं होती. यह वह कर्मयोगी है जो फल प्राप्ति की इच्छा से रहित होकर कर्म में तल्लीन रहता हैं.

उसका छोटा सा संसार इस संसार से अलग हैं. वह उसी में पैदा होता है और कामना रहित जीवन व्यतीत करके उसी में समाप्त हो जाता हैं. कडकडाती जाड़ों की भयानक रातें हो या शरीर को चीरकर बाहर जाने वाली सनसनाती हवा हो, वह हाथ में तसला लिए खेत में बैठा रहता हैं.

चारों ओर घनीभूत अंधकार, जिससे निकट के वृक्ष भी भूत प्रेत होने का संकेत करते हैं, जंगली जानवरों के रोने की आवाज और उल्लुओं की अशुभ ध्वनियों के बावजूद भी वह अपने खेतों में पानी देता रहता हैं. देश सो रहा होता है पर वह देश के लिए जाग रहा होता हैं. खेत में पानी और उसके पैर उस बर्फ जैसे पानी में.

पक्षी प्यास से व्याकुल होकर इधर उधर पानी की खोज में उड़ रहे होते हैं, सूर्य अपनी अग्नि जैसी किरणों से संसार को भून डाल रहा होता है, गर्म हवा अपने झोकों से शरीर को झुलसा रही होती हैं,

लोग अपने अपने घरों में दरवाजे बंद किये आराम कर रहे होते हैं, धनिकों के दरवाजों पर खस की पट्टियाँ लगा रखी होती हैं, ऊपर से जला देने वाली धूप और नीचे सड़े पैरों में छाले डाल देने वाली तपन, किन्तु कृषक तब भी नंगे पांव अपने खेत में होता हैं.

पशु पक्षी तक सघन वृक्षों की छाया में विश्राम कर रहे होते हैं तब भी भारतीय कृषक को यह ध्यान नहीं रहता कि धूप के अति रिक्त कहीं छाया भी हैं. बादल आए, उमड़ घुमड़, गरजे लरजे और बरसने लगे. इतने बरसे की गाँव की गलियों में घुटने तक पानी हो गया.

कडकडाती हुई बिजलियाँ चमकने लगी. माताएं अपने बच्चों को बिजली के डर से घर में छुपा ले. काली भैंसों के स्वामी अपनी भैंसों को खोलकर भीतर ले जाए इस भय से कि काली चीज पर बिजली न गिर जाए,

किन्तु भारतीय कृषक का धूप से जला हुआ काला शरीर तब भी खेत में होता है. कही खेत में अधिक पानी न हो जाए, इस भय से कही मेड को तोड़कर पानी सर्वनाश न कर दे.

देश में उषा की लालिमा फेलने से पूर्व ही किसान एक सजग प्रहरी की भांति जाग उठता हैं. घर में नहीं, जहाँ उसका पशु धन होता हैं. वह तो वहां सोता है, न उसे पत्नी से प्रेम होता है न उसे बच्चों से ममता. उठते ही पशु धन की सेवा और इसके बाद अपनी कर्म भूमि खेत की ओर उसके पैर स्वयं ही उठ जाते हैं.

खेत पर ही तो उषा उसका अभिवादन करती है. उसका भोजन और विश्राम एकांत खेतों में ही होता हैं. बात करने के लिए बैल है हल हैं. जब मन आया उन्ही से हंस बोल लिया.

धन्य है रे मीन तपस्वी. तूने देश के वीतराग सन्यासियों में प्रथम स्थान प्राप्त कर लिया. तू संकोच की साकार मूर्ति है, तू त्याग और तपस्या का चिर सिंचित वैभव हैं.

यह हर्ष का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय कृषक के आंसू कुछ रुके हैं. अब नई सरकारी नीतियों की घोषणा होने पर उसके मुख पर भी मुस्कराहट दौड़ने लगी हैं. जमींदारों के शोषण से तो सर्वथा मुक्ति मिल ही चुकी हैं, परन्तु फिर भी हमारा अन्नदाता पूर्ण रूप से सुखी नहीं हैं.

आज भी पचास प्रतिशत भारतीय कृषक ऐसे है जिनके पास दोनों समय का पेट भर भोजन नहीं हैं. शरीर ढकने के लिए पर्याप्त कपड़ा नहीं हैं.

उनकी गृहलक्ष्मियाँ फटी हुई धोतियों से अपनी लज्जा को छुपाएँ जीवन यापन करती हैं. मूलतः हमारे कृषकों की इस स्थिति की जिम्मेदार उनकी निरक्षरता हैं.

बिना शिक्षा के उनका मानसिक विकास नहीं हुआ हैं. वे कूप मंडूप बने हुए हैं. पुरानी पद्धतियों से खेती करने के कारण उनको शारीरिक परिश्रम भी अधिक करना पड़ता हैं.

अधिक परिश्रम करने पर भी उनको पारिश्रमिक कम ही मिलता हैं. जिस कारण वह गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करता हैं. गरीबी के कारण ही उसको गरीबी से उत्पन्न सभी परेशानियों को सहना पड़ता हैं.

यदि वास्तव में हम भारतीय कृषक का सर्वांगीण विकास करना चाहते हैं तो सरकार के साथ साथ समाज को भी प्रयत्नशील होना पड़ेगा.

कृषकों की शिक्षा के लिए विद्यालय, स्वास्थ्य के लिए चिकित्सालय, डाक की सुविधा के लिए डाकघर और शहरों से सम्पर्क रखने के लिए अच्छी सड़कों का निर्माण करना होगा.

कृषि की उन्नति के लिए अनेक प्रकार के खाद, नवीन यंत्र प्रदान करने होंगे. भिन्न भिन्न संस्थाओं तथा सरकार के द्वारा समय समय पर सामूहिक उन्नति के लिए प्रयोगशालाएं लगानी होगी, यदि इन सब कार्यक्रमों को आरम्भ कर दिया तो कोई कारण नहीं है कि हमारा कृषक बेचारा कृषक कहलाएं.

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