आचार्य भिक्षु और तेरापंथ का इतिहास | Jain Saint Acharya Bhikshu & Terapanth In Hindi

आचार्य भिक्षु और तेरापंथ का इतिहास | Jain Saint Acharya Bhikshu & Terapanth In Hindi: जैन परम्परा में आचार्य भिक्षु का उदय एक नये आलोक की दृष्टि से है.

इस महान संत का जन्म मारवाड़ कटालिया ग्राम आषाढ़ शुक्ल त्रयोदशी विक्रम संवत् 1783 और 2 जुलाई 1726 में हुआ था.

लगभग 25 वर्ष की आयु में मार्गशीष कृष्णा 12 विक्रम संवत 1808 में वे जैन आचार्य रघुनाथ जी के सम्प्रदाय में मुनि हुए.

लगभग 8 वर्ष तक वे अपने गुरु के सानिध्य में रहे. उस समय आचार की शिथिलता का बोलबाला था.

आचार्य भिक्षु और तेरापंथ का इतिहास

आचार्य भिक्षु और तेरापंथ का इतिहास | Jain Saint Acharya Bhikshu & Terapanth In Hindi
मूल नामसंत भीखण जी
जन्मवि. स. १७८३ आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी
जन्म स्थलीकंटालिया (मारवाड़)
पिता का नामशाह बल्लुजी
माता का नामदींपा बाई
जातिओसवाल
गुरुआचार्य रघुनाथजी
धर्मजैन

अनेक जैन साधू पथ भ्रष्ट हो रहे थे. मर्यादा से अधिक वस्त्र रखते थे, अधिक सरस आहार लेते थे तथा शिष्य बनाने के लिए आतुर रहते थे. उस समय राजनगर के अनुयायी श्रावकों में रघुनाथ जी के आचार विचार सम्बन्धी मान्यताओं को लेकर काफी अन्तर्द्वन्द था.

रघुनाथ जी ने अपने अपने प्रमुख शिष्य भीखणजी (भिक्षु) के नेतृत्व में साधुओं का एक दल 1758 ईसवीं में राजनगर के अनुयायियों को समझाने व अपने आचार्य के प्रति श्रद्धा व्यक्त कराने के लिए भेजा.

राजनगर आकर भीखणजी ने उन्हें खूब समझाया लेकिन शास्त्र मर्मज्ञ चतरोजी पोरवाल एवं बच्छराज ओसवाल के साथ हुई चर्चाओं के बाद भीखणजी स्वयं मानसिक संघर्ष में लीन हो गये.

1758 ई का चातुर्मास उनके इसी संघर्ष का काल रहा, उन्होंने आगमों (जैन शास्त्रों) का गहराई से मंथन किया. शास्त्र सम्मत मार्ग से भटकने की भूल उन्हें अनुभव हुई.

चातुर्मास समाप्त होने पर वे अपने गुरु रघुनाथ जी के पास आए. उन्हें वस्तु स्थति से परिचित करवाया किन्तु आचार्य रघुनाथजी ने उसे स्वीकार नही किया. अतः विवश होकर भीखणजी ने अपने गुरु से सम्बन्ध तोड़ दिए.

1760 में जोधपुर के बाजार में एक खाली दूकान में आचार्य भिक्षु के मत को मानने वाले तेरह श्रावक धार्मिक क्रिया कर रहे थे. उस समय आचार्य भिक्षु के साथ भी 13 साधू ही थे.

आचार्य भिक्षु का जीवन परिचय- acharya bhikshu biography in hindi

आचार्य भिक्षु का जन्म 1726 ई में पाली जिले के कंटालिया गाँव में हुआ. उनके पिता का नाम बल्लूजी व माता का नाम दीपाजी था.

जैन साधुओं के सामीप्य से उनके वैराग्य भावना का बीजारोपण हुआ. उनकी पत्नी का स्वर्गवास होने पर 25 वर्ष की आयु में वे स्थानकवासी परम्परा में दीक्षा ग्रहण कर जैन साधु बन गये.

आचार्य भिक्षु ने समानता, सहस्तित्व और सहयोग के सिद्धांतों को अपने धर्म संघ में क्रियान्वित किया. उन्होंने धर्म को धर्मस्थानों से बाहर निकालकर जीवनगत बनाने के सूत्र दिए. भिक्षु क्षमता के प्रतीक थे. छोटे और बड़े जीवों को वे समान मानते हैं.

गरीब, निरीह, कमजोर, आदि को मारकर अमीर और ताकतवर का पोषण करने को उन्होंने अधर्म बताते हुए कहा- राकां ने मार झींका न पोसे, ते बात घणी छः गैरी. आचार्य भिक्षु सहज कवि और साहित्यकार भी थे.

उन्होंने अड़तीस हजार पदों की रचना की. उनकी साहित्य रचना का प्रमुख विषय शुद्ध आचार परम्परा का प्रतिपादन, तत्व दर्शन का विश्लेषण और संघ की मर्यादाओं का सरल निरूपण था.

1803 ई में ग्राम सिरियारी, जिला पाली में उन्होंने समाधिमरण प्राप्त किया. सिरियारी ग्राम जहाँ आचार्य भिक्षु का अंतिम संस्कार हुआ था, राजस्थान का लोकतीर्थ बन गया हैं.

तेरापंथ का इतिहास (Terapanth In Hindi)

उस दौरान जोधपुर के दीवान फतहमल सिंघी गुजर रहे थे. उनसे हुई चर्चा में 13 श्रावक व 13 साधु के योग को देखकर उन्हें तेरापंथी कहकर पुकारा.

इस पर विरोधी लोगों ने भीखण जी/आचार्य भिक्षु के अनुयायियों को तेरापंथी कहकर चिढाना आरम्भ कर दिया किन्तु भीखणजी ने इस नामकरण को तुरंत स्वीकार कर लिया और कहा हे प्रभो यह तेरा पन्थ है इसमे मेरा कुछ नही है. . हम सब निर्भ्रान्त होकर इस पंथ पर चलने वाले है, अतः हम तेरापंथी ही है.

आपने इस संख्यापरक अर्थ करते हुए भी कहा है कि पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति- इन तेरह नियमों की पूर्ण रूप से श्रद्धा तथा पालना करने वाले व्यक्ति ही तेरापंथी है.

इस प्रकार शिथिलाचार एवं रूढ़ियों के विरुद्ध आचार्य भिक्षु (भीखणजी) द्वारा धर्म घोष ”तेरापंथ” धर्म सम्प्रदाय के रूप में विख्यात हुआ.

आचार्य रघुनाथ जी से अलग होने के बाद भी आचार्य भिक्षु का प्रथम चातुर्मास केलवा में हुआ. यहाँ पर उनके विरोधियों की संख्या बहुत ज्यादा थी परन्तु भीखणजी आचार्य भिक्षु इससे भयभीत नही हुए अपितु विरोध को विनोदस्वरूप समझकर अपनी आत्मा का तपाना ही उनका ध्येय था.

आचार्य भिक्षु ने कठोर संयम, अडिग धैर्य के समक्ष विरोधी नतमस्तक हो गये. आचार्य भिक्षु जी ने आषाढ़ी पूर्णिमा को तेरापंथ धर्म संघ की स्थापना भी केलवा में ही की.

संघ के ये आरम्भिक दिन बड़े कठोर परिक्षण के थे. कदम कदम पर विरोध, प्रताड़ना व विपतियों का सामना करना पड़ रहा था. परन्तु आचार्य भिक्षु (भीखण जी) ने आत्म कल्याण के लिए घर छोड़ा था.

अतः उन्होंने विरोध का उत्तर कठिन साधना व जिन भाषित धर्म पर चलकर दिया था. जिसका लोगों पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा आचार्य भिक्षु ने जैन धर्म की सैदान्तिक बातों को जन साधारण तक पहुचाने के लिए महावीर स्वामी की भांति जन भाषा का प्रयोग कर सामान्य व्यक्ति तक पहुचाने का भरसक प्रयास किया.

राजस्थानी भाषा में आचार्य भिक्षु ने गद्य एवं पद्य में विपुल साहित्य लिखा. आचार्य भिक्षु ने तेरापंथ के आचार्य के रूप में केलवा, राजनगर, पाली, पीपाड़, नाथद्वारा, आमेट, सिरियारी, कंटालिया, खेरवा, बगड़ी, बरलू, सवाईमाधोपुर, पादू, पुर, सोजत, बनेड़ा आदि कई स्थानों पर चातुर्मास के मध्य अपने उपदेशों से जन मानस को काफी प्रभावित करते हुए अपने मत का प्रचार प्रसार किया.

आचार्य भिक्षु की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उन्होंने विरोधियों की तनिक भी परवाह न करते हुए उनके विरोध को भी सदैव अपने पक्ष में सकारात्मक रूप में लिया.

गुरूवार 2 सितम्बर 1803 विक्रम संवत 1860 भाद्रपद शुक्ला 13 को आचार्य भिक्षु का सिरियारी पाली में स्वर्गारोहण हुआ.

आचार्य भिक्षु आचार विचार की शुद्धता के प्रबल पक्षधर थे. उनकी मान्यता था कि महावीर के उपदेश सर्वकालिक है और उनके अनुसार चलना आज कठिन नही है.

धार्मिक सहिष्णुता व साम्प्रदायिक सदभाव के ये प्रबल हिमायती थे. इन्होने अपने धर्मसंघ के साधुओं को एक ही आचार्य की मर्यादा व अनुशासन पर चलने पर बल दिया तथा अन्य साधुओं को अपने शिष्य नही बनाने का निर्देश दिया.

दीक्षा लेकर साधू बनने वालों के लिए भी उनके परिवार की स्वीकृति लेना अनिवार्य कर दिया. साधुओं के लिए निर्मित भवन में ठहरने तथा रहने की उन्होंने मनाही कर दी तथा साधुओं के लिए यह भी जरुरी कर दिया कि वे एक ही घर से नियमित भोजन ग्रहण नही करे और साधुओं के लिए बने भोजन को भी स्वीकार नही करे.

साधुओं को नियमों से ज्यादा वस्त्र, पात्र आदि रखने तथा उन्हें अपने पास रूपये पैसे रखने पर भी पाबंदी लगा दी. अपने अनुयायी श्रावकों को भी महावीर के उपदेशों को कड़ाई से पालन करने का निर्देश दिया.

आचार्य भिक्षु ने एक व्यवस्थित, सुस्थापित एवं नियम आधारित तेरापंथ सम्प्रदाय की स्थापना की एवं स्वानुशासन पर बल दिया.

उन्होंने एक आचार्य एक शिष्य एवं एक विचार के सिद्धांत का प्रतिपादन किया. उन्होंने बताया कि धर्म की बात साधारण व्यक्ति के समझ में आनी चाहिए ताकि वह उसका पालन करते हुए मोक्ष के मार्ग की ओर बढ़ सके. भिक्षु के इस सुधार कार्यक्रम का भविष्य में काफी प्रचार प्रसार हुआ और लोकप्रियता बढ़ी.

तेरापंथ के आचार्यों की सूची

1. आचार्य भिक्षु
2.आचार्य भारिमल
3. आचार्य रायचंद
4. आचार्य जितगणि
5. आचार्य मघराज
6. आचार्य माणकलाल
7. आचार्य डालचंद
8. आचार्य कालूराम
9. आचार्य तुलसी
10. आचार्य महाप्रज्ञ
11.आचार्य महाश्रमण (वर्तमान)

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