धूप का ऊन हिंदी कविता
बज रहे ठंडी सुबह के आठ
दिन भी चढ़ गया है
उतरती आती छतो से
सर्दियों की धूप
उजले ऊन की मृदु शाल पहिने
वह मुंडेरो पर ठहर कर
झांकती है झंझरीयों से
रात को धोये हुए आंगन में
और अलसाए हुए
कम्बल, लिफाफों बिस्तरों पर
जो उठाए जा रहे है
रात को मीठी कथा के
पृष्ट पलटें जा रहा है
धुले मुख सी धूप यह गृहणी सरीखी
मंद पग धर आ गई है
चाय की लघु टेबिलों पर
कभी बनती केतली की
प्यालियों की भाप मीठी
कभी बनती स्वयं ही
रसधार ताजे दूध की
या ढाल कर निज प्यार
वह हर वस्तु की बनती
समस्त मिठास की अधरों पर पिया के
सुबह के अखबार की वह नई खबर
अब पुरानी हो गई
सुर्खियों के रंग मद्दिम पड़ गये है
गुलभरी सिगरेट के अंतिम धुंए से
उड़ गई वे पताका सी सूचनाएँ