बिहारी के दोहे और उनके अर्थ | Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning

बिहारी के दोहे और उनके अर्थ Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning शीर्षक के इस लेख में रीतिकाल के उच्चकोटि के कवि बिहारीदास के भक्ति, श्रृंगार, निति और प्रकृति पर आधारित 25 Bihari Couplets का संग्रह आपके लिए किया हैं.

इन दोहों में कवि ने चुनौतीपूर्ण तरीके से भगवान से याचना तो कही नागरी राधा के भव बाधा दूर करने की याचना साथ ही कई जीवन यथार्थ पर आधारित दोहों का हिंदी में सारगर्भित अर्थ (Couplets Meanings) में दिए जा रहे हैं.

उम्मीद करते हैं. ये बिहारी दोहे आपकों अच्छी शिक्षा देगे.

बिहारी के दोहे और उनके अर्थ Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning

बिहारी के दोहे और उनके अर्थ | Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning

बिहारी के दोहे (1)

मेरी भव-बाधा हरौ, राधा नागरि सोइ |
जा तन की झाइं परे, स्यामु हरित-दुति होई ||

दोहे का हिंदी अर्थ

वे चतुर राधा मेरी सांसारिक बाधा को दूर करे, जिनके शरीर की परछाई पड़ने से श्री कृष्ण के शरीर की आभा निष्प्रभ हो जाती हैं.

बिहारी दोहा (2)

करौ कुवत जगु कुटिलता तजौ न दीनदयाल |
दुखी हो हुगे सरल हिय बसत त्रिभंगी लाल ||

दोहा अर्थ

हे कृष्ण मै तो संसार की समस्त बुराइयों को करता रहुगा, और अपनी नीचता को कभी नही छौडुगा. यदि मैंने नीचता छोड़ दी तो मेरा जीवन सरल हो जाएगा. मेरे शरीर में आप टेड़े ढंग वाले निवास कैसे कर पाएगे.

आपकों कष्ट होगा, इसलिए मै यह कुटिलता नही छौडुगा. टेडी वस्तु सीधी वस्तु में कैसे समा सकती हैं. मै चाहता हू कि आप मेरे ह्रदय में निवास करे. आपकी त्रिभंगी निद्रा मेरे ह्रदय में विराजमान हो, इसलिए मै अपने ह्रदय को टेडा ही रखुगा.

बिहारी के दोहे (3)

मोहूँ दीजै मोषू, ज्यों अनेक अघुमनु दीयौ |
जौ बांधे ही तोषु, तौ बाँधो अपनै गुननु ||

दोहा अर्थ

हे प्रभु ! आपने जिस प्रकार अनेक अधम लोगों को मुक्ति प्रदान की हैं उसी प्रकार अधम का कार्य करते रहने वाले मुझे भी मोक्ष प्रदान कर दीजिए. यदि आप मुझे बंधन में नही रखना चाहते हैं

इससे ही आपकों संतोष मिलता हो, तो मेरी आपसे प्रार्थना हैं कि आप मुझे अपने गुणों से बाधिए. मै आपके गुण अपनाऊ, संसार की बुराइयों में न बंधू.

बिहारी के दोहे (4)

पतवारि माला पकरि और न कच्छु उपाय |
तरि संसार-पयोधि कौं, हरि-नावै करि नाउ ||

इस दोहे का अर्थ

हे मनुष्य तू संसार रूपी समुद्र से पार जाना चाहता हैं, तो इसका उपाय यही हैं. तू भगवान् का जप करने के लिए माला ले ले. माला ही पतवार का काम देगी, इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नही हैं.

तू भगवान् के नाम को नौका मान, माला लेकर भगवान् के नाम का जाप कर , इसी से तू संसार रूपी समुद्र से पार हो जाएगा.

बिहारी के दोहे (5)

तौ, बलिये, भलिये बनी, नागर नद किसोर |
जौ तुम निकै कै लख्यो मो करनी की ओर ||

नागर नंद किशोर कृष्ण की छवि बड़ी भली लगती हैं, यदि आप मेरी करनी, मेरे कार्यो की तरफ भली प्रकार देख ले तो मै आपकी बलियारी जाऊ.

मेरे कर्म तो अच्छे नही हैं फिर भी आप मुझे अपना ले, तब तो यह उनकी बड़ी कृपा होगी और मेरे कर्म भी अच्छे हो जाएगे.

दोहा (6)

अब तजि नाऊ उपाव कौ, आए पावस-मॉस |
खेलु न रहिबो खेम सौ केम-कुसुम की वास ||

हे सखी अब तू मान करना छोड़ दे, ऐसा करने के अतिरिक्त तेरे पास और कोई उपाय नही हैं. अब वर्ष त्रतु का महिना हैं, कदम्ब के फूलोँ की खुशबु फैली हुई हैं. वो कामोद्दीपक होती हैं.

तू अब मान किये बैठी नही रह सकती, ऐसे माहौल में निर्वाह करना मुश्किल हो जाता हैं. यह सरल भी नही हैं. तू पति या प्रेमी के बगैर अकेली नही रह पाएगी. इसलिए अच्छा हैं तू मान को त्याग दे.

Bihari DOHA (7)

आवत जात न जानियतु, तेजही तजि सियरानु |
घरहं जँवाई लों घट्यो खरौ पूस-दिन मानु ||

अर्थ-पूस के महीने में सूर्य की धुप और दिन की अवधि में अंतर आ जाता हैं. अब सूर्य का तेज कम हो गया हैं. गर्मी के मौसम जैसी तीव्र धुप प्रंचड अब नही रही. दिन का मान घट गया हैं.

अर्थात दिन छोटे होने लगते हैं. इस कारण दिन कब आता हैं और कब चला जाता हैं, पता ही नही चलता हैं. सूर्य की तीव्रता उसकी धुप दिन की अवधि दिन का मान उसी प्रकार घट गया हैं, जिस प्रकार ससुराल में रहने वाले दामाद का घट जाता हैं.

बिहारी के दोहे (8)

सुनत पथिक-मुहँ,माह निसि चलति लूवै उहि गाँम |
बिनु बुझे, बिनु ही कहे,जियति बिचारी बाम ||

अर्थ कोई यात्री उस गाँव में आता हैं, जहाँ कोई प्रेषितपतिका नायिका रहती हैं. उस गाँव के विरह तप्त वातावरण को देखकर वह कहता हैं, वहाँ माघ महीने की रातों को भी लूएँ चलती हैं.

लेखक ने यह सुनकर बिना पूछे कहे यह अनुमान कर लिया कि उसकी प्रिय अभी तक जीवित हैं. उसके द्वारा निश्वास छोड़े जाने पर शीत के मौसम में भी लुए चलने लगती हैं.

बिहारी के दोहे (9)

नहि पावसु,त्रितुराज यह, तजि तरवर चित-भूल |
अपतु भए बिनु पाईहै क्यों नव दल,फल फुल ||

बिहारी के दोहे का अर्थ हे श्रेष्ट वृक्ष तू यह चित में जान ले कि अब वर्षा की त्रुतु नही हैं. जिसमे वर्षो पर हरे-भरे पत्ते होते हैं. तू वर्षा का भूल जा यह त्रुतुराज वंसत हैं.

वृक्षों पर नये पत्ते फुल फल तभी आ सकते हैं. जब वे पहले वाले पत्तो से रहित हो. पत्तो से रहित हुए बिना नए पत्ते और फुल कैसे आ सकते हैं.

बिहारी के दोहे हिंदी में  (10)

रुक्यो सांकरे कुञ्ज-मग,करतु झंझी झाकुरातु |
मंद मंद मारुत-तुरंग खुन्दुतु आवतु जातु ||

दोहे का सार हिंदी में- कवि कहता हैं कि कुञ्ज रूपी संकीर्ण संघन मार्ग में रुकता हुआ, झंझा शब्द करता, शरारत सी करता, झुकता-झूमता हुआ मंद-मंद पवन रूपी घोड़ा अपने पैरो से धरती को खोदता, धुल उड़ाता चला आ रहा हैं.

बिहारी के दोहे संग्रह (11)

तंत्री-नाद, कवित्त-रस,सरस-राग, रति-रंग |
अनबूढ़े-बुडे तरे जे बुडे संग अंग ||

अर्थसहित -कवि कहता हैं, कि विणा आदि वाध्य यंत्रो के स्वर, काव्य आदि ललित कलाओं की रसानुभूति तथा प्रेम के रस में जो स्र्वगनो से अर्थात पूर्ण रूप से तल्लीन भाव से डूब जाते हैं.

वे ही इनके संसार-सागर को पार कर सकते हैं. जो इसमे लीं नही हो सकते, डूबते नही. इसके सागर में फस जाते हैं. आनन्द प्राप्त नही कर सकते.

बिहारी के दोहे (12)

कनक कनक ते सौ गुनि मादकता अधिकाय |
उहि खाएं बौराई जगु, इहि पाएँ बौराई ||

दोहे का हिंदी में अर्थ-कवि बिहारी कहते हैं, कि सोने से धतूरे में सौ गुनि मादकता नशा होता हैं. उस धतूरे को खाने पर ही दुनियाँ बावली हो जाती हैं.

किन्तु इस सोने को पाने के लिए इनमे बावलापन आ जाता हैं. अर्थात धन सम्पति को पाकर दुनियाँ बौरा जाती हैं.

बिहारी के दोहे (13)

नहि परागु,नहिं मधुर मधु, नहि विकास इहि काल |
अली, कली ही सौ बिध्यो, आगे कौन हवाल ||

अर्थ कवि कहता हैं, कि इसमे अभी न तो प्राग आया है न मधुरता. इसके प्रस्फुटित होने का समय भी नही आया हैं. अरे भ्रमर दोस्त अभी तो यह एक कली हैं तुम अभी इसके मोह में ग्रस्त हो रहे हो.

जब आगे यह एक फूल के रूप में खिलेगी तब तुम्हारी दशा क्या होगी. कवि भ्रमर फुल और कली के माध्यम से कहना चाहता हैं. इसके अभी यौवन का पूर्ण विकास नही हुआ हैं.

फिर भी तुम इसके पीछे इतने पागल हो रहे हो. जब यह युवती हो जाएगी, और अपने पूर्ण सौदर्य को प्राप्त कर लेगी तब तुम्हारी दशा क्या होगी.

बिहारी के दोहे (14)

नीच हिये हुलसे रहें गहे गेंद के पोत |
ज्यो ज्यो माथे मारियत ,त्यों त्यों ऊचें होत||

अर्थ कवि कहता हैं कि नीच व्यक्ति बार-बार अपमानित किये जाने पर भी उसी प्रकार प्रसन्न रहता हैं. जिस प्रकार गेंद सिर पर टकराने के बाद अधिक ऊपर उछलती हैं. इसी प्रकार नीच व्यक्ति का स्वभाव गेद की तरह का होता हैं.

बिहारी के दोहे (15)

स्वारथु ,सुकृत न श्रमु वृथा ,देखी बिहग बिचारी |
बाज पराए पानी परि तू पच्छीनु न मारि ||

अर्थ अरे पक्षी तुम विचार करके देखो कि इस कार्य के करने से न तुम्हारा कोई स्वार्थ पूरा होता हैं. और उन्हें न कोई पुण्य प्राप्त होता हैं, इस कार्य से तुम्हारा परिश्रम व्यर्थ ही जा रहा हैं.

तुम पराएँ व्यक्ति के हाथ पर बैठकर इन स्वजनों को मत मारो. बाग़ के माध्यम से कवि ने राजा जयसिंह को कहा- कि तुम विचार करके देखो भावुकता में आकर यह कार्य मत करते जाओ,

तुम मुंगल बादशाह शाहजहाँ के कहने पर अपने ही जातीय हिन्दू राजाओ का वध मत करो. ऐसा करने से न तो आपका कोई स्वार्थ पूर्ण होगा, न हि पुण्य की प्राप्ति होगी.

बिहारी के दोहे (16)

लाज -लगाम न मानही ,नेना मो बस नाह़ि |
ए मुहजोर तुरग ज्यो ऐचत हू चली जाए ||

बिहारी के दोहा का अर्थ नायिका अपनी सखी से कहती हैं, कि मेरे नेत्र अब मेरे वश में नही हैं. ये लाज रूपी लगाम को नही मानते हैं. खीचने या रोकने पर भी मुह जोर घोड़े की तरह नायक की ओर चले जाते हैं.

जिस प्रकार लगाम को मुँह से दबा देने वाला घोड़ा लगाम को खीचने पर नही रुकता हैं. आगे की ओर दोड़ता ही चला जाता हैं. उसी प्रकार अब मेरे नेत्र लज्जा का अनुभव किये बिना बार बार नायक की तरह उत्क्रष्ट हो जाते हैं.

बिहारी के दोहे हिंदी अर्थ के साथ (17)

जोग-जुगति सिखए सबै,मनौ महामुनि मैंन |
चाहत पिय-अद्वैतता कानन सेवत नैन ||

अर्थ सखियाँ नायिका से कहती हैं कि ऐसा लगता हैं कि महामुनि कामदेव ने तेरे नेत्रों को योग साधना की सभी युक्तियाँ प्रिय से मिलने के सभी उपाय सिखा दिए हैं.

तभी तो कानो तक लम्बे तेरे नेत्र प्रिय से आकर उसी प्रकार मिलना चाहते हैं. जिस प्रकार महामुनि द्वारा योग की युक्तियाँ गये शिष्य ब्रम्हा से आत्मा की अद्वेद्ता स्थापित करने के लिए वन में निवास करने लगते हैं.

बिहारी का दोहा (18)

कौन सुनै,कासौ कहौ, सुरति विसारी नाह |
बदाबदी ज्यो लेत हैं, ए बदरा बदराह ||

अर्थ विरहिणी नायिका मन में सोचती हैं कि मेरी पीड़ा कौन सुनेगा. उसे किससे कहू? क्या कोई मेरी पीड़ा सुनना चाहेगा. मेरे स्वामी ने मेरी सारी स्म्रतियो को भुला दिया हैं.

ये बादल भी तो बुरी राह पर चलने लगे हैं. बुरा व्यवहार करने लगे हैं. मै विरह में दुखी हु. और ये गर्जना कर रहे हैं. मानो प्रिय की निष्ठुरता से प्रतिद्दीता कर रहे हैं. इस प्रकार ये मेरी पीड़ा को बढ़ा रहे हैं.

बिहारी के दोहे (19)

कुटिल अलक छुटी परतमुख बधिगो इतौ उदोतु |
बंक बकारी देत ज्यो दामु रुपैया होतु ||

दोहे का अर्थ एक सखी दूसरी सखी से कहती हैं, कि स्नान करके आई हुई नायिका के सिर के बालो की एक लट उनके मुह पर तिरछी पड़ी हुई हैं. इससे उसके मुख की सोभा इतनी अधिक बढ़ गईं हैं.

कि जितनी दमड़ी के आगे टेडी लकीर लगा देने पर उसका रूपये के रूप में मूल्य बढ़ जाता हैं. अर्थात दमड़ी के आगे विकारी लगा देने पर रूपये के मूल्य की धोतक हो जाती हैं.

बिहारी के दोहे (20)

रहौ ऐचि अंतु न लहै अवधि-दुससनु बीरू |
आली, बाढ़तु विरह ज्यो पंचाली कौ चिरु ||

अर्थ हिंदी भाषा में- विरहिणी नायिका अपनी सखी को कहती हैं कि अवधि रूपी दु:शासन विरह रूपी पांचाली के चिर को निरंतर खीचने का प्रयास कर रहा हैं. फिर भी इसका छोर नही आ रहा, यह विरह समाप्त नही हो रहा यह द्रोपदी के चिर की तरह बढ़ता ही जा रहा हैं.

बिहारी के दोहे (21)

दुसह दुराज प्रजानु कौं क्यों न बधे दुःख-दंदु |
अधिक अंधेरो जग करत मिली मावस रवि चंदु ||

अर्थ-कवि कहता हैं, कि द्वैत शासन प्रणाली प्रजा को सहा क्यों न लगे, उनके मन में दुःख व द्वंद क्यों न बढे. अर्थ यह हैं कि द्वैत शासन प्रणाली लागू हो तो जनता को असहनीय लगेगी.

प्रजा के दुःख बढ़ेगे. न उनके मन में द्वन्व्द क्रांति का भाव जगेगा ही. ये इसी प्रकार बढ़ेगे. जिस प्रकार कि अमावस्या की रात में सूर्य और चन्द्रमा एक ही राशि में होने पर सम्पूर्ण संसार में अन्धकार बढ़ जाता हैं.

बिहारी के दोहे (22)

तीय कित कम नैती, पढ़ी बिनु जिहि भौह कमान |
चलचित-बेझे चुकति नहिं बंकबिलोकनि-बान ||

अर्थ कवि बिहारीलाल ने सखी द्वारा नायिका के नेत्रों की प्रशंसा किये जाने के बारे में वर्णन किया हैं. सखी नायिका से कहती हैं हे स्त्री- तुमने ऐसी अच्छी धनुर्विद्या कहा से सीखी हैं.

जो तुम बिना डोर के भौह रूपी धनुष ने बंकिम द्रष्टि रूपी तीर चलाकर चंचल चिंतो को बेधने से कभी रूकती ही नही हो. तात्पर्य यह हैं, कि धनुर्धारी तो डोरी से युक्त धनुष पर तीर चढ़ाकर ही लक्ष्य भेदता हैं. किन्तु तुम तो बिना डोरी के धनुष से टेडी चितवन के तीर चलाकर चंचल हितों को बेधा करती हो.

बिहारी के दोहे (23)

आडे दै आले बसन जाड़े हूँ की राति |
साहसु ककै सनेह-बस सखी सबै ढिंग जाति ||

अर्थ,व्याख्या, सार- जिसका पति बाहर गया हुआ हैं. उस प्रेषित पतिका नायिका की सखी नायक से कहती हैं. कि शीतकाल की रात्री में भी गीले किये हुए कपड़े शरीर पर धारण करके तथा साहस जुटाकर सखिया नायिका के पास जाती हैं.

सखिया नायिका के प्रति स्नेह रखने के कारण ऐसी विषम परिस्थतियों में भी उनके पास पहुच जाति हैं. भाव यह हैं कि सखियों को विराह्तापयुक्त नायिका के पास जाने में अपने झुलस जाने का डर लगता हैं. इसलिए वे वस्त्रों को गीला करके पहनती हैं.

बिहारी के दोहे (24)

कौड़ा आँसू-बूद, कसि सांकर बरुनी सजल |
कीने बदन निमुंद,द्रग-मलिंग डारे रहत ||

इस दोहे का हिंदी में अर्थ– एक सखी नायक से कहती हैं कि उस नायिका के नेत्र रूपी मलंग अश्रु बिंदु रूपी कौड़ियो को धारण किये हुए हैं.

उसकी आँखों की बिरोनियाँ सजल रहती हैं जो नेत्र रूपी मलंग मेखला, कर्धनी हैं, नायिका निरंतर कुछ-न-कुछ बडबडाने के कारण मुख भी खोले रखती हैं.

यह भी पढ़े

मित्रो बिहारी के दोहे आपकों ये लेख कैसा लगा कमेंट कर जरुर बताए. बिहारी के दोहे को अपने मित्रो के साथ जरुर शेयर करे.

इसके अतिरिक्त यदि आपके पास बिहारी के दोहे और उनके अर्थ Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning के बारे में कोई सामग्री हो तो प्लीज कमेंट के जरिए हम तक पहुचाने का कष्ट करे.

आपकी सामग्री की पोस्ट में आपका नाम सम्मलित किया जाएगा.

1 thought on “बिहारी के दोहे और उनके अर्थ | Bihari Ke Dohe With Hindi Meaning”

  1. कौड़ा आंसू बूंद। दोहे का अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ जी
    कृपया और समझाएं

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *