मनु का जीवन परिचय और मनुस्मृति | Manu Maharaj Biography And Manusmriti in Hindi​

मनु का जीवन परिचय और मनुस्मृति Manu Maharaj Biography And Manusmriti in Hindi​: प्राचीन भारतीय राजनीतिक चिंतक मनु के विचारों को जानने का आधार मनुस्मृति हैं.

इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति से लेकर, व्यक्ति समाज एवं राज्य के विविध कार्यों एवं दायित्वों का विशद विवेचन किया गया हैं. आज के लेख में हम मनु के सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक विचारों को जानेगे.

मनु ने पूरे समाज को चार वर्णों में विभाजित कर जन्म के आधार पर प्रत्येक वरण के नियम निषेध तय किये हैं. मनु की आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के जीवन को आयु के आधार पर विभाजित कर तदरूप दायित्व निर्धारित किया हैं.

मनु का जीवन परिचय मनुस्मृति Manu Biography Manusmriti in Hindi​

मनु का जीवन परिचय और मनुस्मृति | Manu Maharaj Biography And Manusmriti in Hindi​

मनुस्मृति में स्त्री पुरुष सम्बन्धों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया हैं. लेकिन जन्म एवं लिंग आधारित मनु की समाज व्यवस्था में स्त्रियों एवं शूद्रों को निम्नतम पायदान पर रखा गया हैं.

आज के इस manu meaning & manusmriti in hindi chapter 5 में हम मनु के राजनीतिक विचारों की चर्चा करेगे. मनु ने राज्य की उत्पत्ति से लेकर राजा का कार्य दायित्व शासन एवं न्याय के स्वरूप प्रक्रिया का प्रतिपादन किया हैं.

मनु का शासक दैवीय शक्ति सम्पन्न होते हुए भी धर्म और दंड के अधीन था. मनु के राज्य एवं राजा का स्वरूप जन कल्याणकारी एवं नैतिक मूल्यों से युक्त हैं.

मनु ने राज्य के सप्तांग सिद्धांत द्वारा राज्य के प्रमुख अंगों का ही विवेक सम्मत विवेचन नहीं किया बल्कि परराष्ट्र सम्बन्धों के लिए भी सार्थक परामर्श दिया गया हैं. इस सम्बन्ध में दिया गया मंडल एवं षडगुण्य सिद्धांत एक सफल एवं सशक्त राज्य की कल्पना का यथार्थ मार्ग दिखाता हैं.

जो आधुनिक काल में कूटनीतिक दृष्टि से उतना ही प्रासंगिक है. मनु द्वारा प्रतिपादित कर व्यवस्था राज्य एवं व्यक्ति के आर्थिक लाभ की कामना पर आधारित हैं.

इसी सन्दर्भ में ह्गुम भारतीय राजनीतिक चिंतन के पंडित चाणक्य एवं मनु के विचारों का संक्षेप में तुलनात्मक अध्ययन भी पढेगे. यह पढने के बाद आप जान पाएगे कि भारतीय राजनीतिक चिंतन परम्परा अति प्राचीन हैं.

इसकी महत्ता और प्रासंगिकता को समझने के लिए हमें पश्चिमी राजनीतिक चिंतन को कसौटी नहीं बनाकर इसका स्वतंत्र अध्ययन एवं मूल्यांकन किया जाना चाहिए.

मनु का इतिहास, जीवन परिचय, जीवनी (who was manu in hindi)

मनु के जीवन काल में विषय में ऐतिहासिक प्रमाण का अभाव है. इसलिए मनु के जीवन काल को जानने के लिए प्रतीकात्मक तथ्यों का अधिक सहारा लिया गया है. मनु एक ऐतिहासिक पुरुष थे.

जिनके नाम के साथ धार्मिक दृष्टि से प्रामाणित सामग्री जुड़ती चली गई. प्रश्न यह है कि मनुस्मृति को उन्होंने स्वयं लिखा या यह प्राचीन भारतीय मनीषियों के चिंतन का संग्रहण मात्र है, जिसे मनु के साथ जोड़कर प्रामाणिकता का आवरण पहनाया गया हैं.

पौराणिक परम्परा में मनु को प्रथम विधिवेत्ता माना गया है. अन्य विधि संग्रहों के मध्य मतभेदों की दशा मनुस्मृति को प्राथमिकता दी गई है. मनु कौन था.

इसका जन्म कब हुआ और सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ. इन प्रश्नों का उत्तर जानने के लिए प्राचीन ग्रंथों में मनु के बारे में दो तरह की कथाएँ प्रचलित हैं.

  1.  जब सम्पूर्ण विश्व महाप्रलय के आवेग में ध्वस्त होकर जलपलावित हो गया था तो मनु ही शेष रहे, जिन्होंने नयें सिरे से मानव समाज की रचना की.
  2. महाभारत के शांति पर्व के अनुसार आरम्भ में यह संसार, बर्बरता, अराजकता तथा अन्धकार में लीन था. कोई नियम कानून या संगठन नहीं था. ऐसी अन्धकारमयी असुरक्षित स्थिति से संस्थापक माना गया हैं.

मनुस्मृति का काल एवं विषय वस्तु (subject object & period Of manusmriti in hindi)

मनु के समस्त विचारों का आधार मनुस्मृति है, लेकिन मनु के जीवन काल के विषय में मतभेद होने के कारण यह कहना कठिन हैं. कि मनुस्मृति की रचना कब हुई.

मनुस्मृति में ऐसे श्लोक व विचार है, जो अति प्राचीनतम स्मृति है यहाँ तक कि महाभारत में भी कई स्थानों पर मनु का जिक्र आता हैं.

इस प्रकार मनु के श्लोकों का मूल अति प्राचीन होने के बावजूद संत बीतने के साथ उनमें वृद्धि होती रही और अंत में उन्हें मनुस्मृति के रूप में पुनः संग्रहित कर लिया गया.

जो बहुत बाद की रचना है. विद्वानों ने इसके रचनाकाल को लेकर मतभेद है जैसे बी ए सोलेटोर ने इसकी शासनकाल 1900 से 1800 ई पू माना हैं.

मैक्समूलर ने इसे चौथी शताब्दी के बाद की रचना माना है. जबकि बहुलर का मत है कि ईसा के पश्चात दूसरी शताब्दी में मनुस्मृति निश्चित रूप से अस्तित्व में थी.

के पी एस जायसवाल तथा पी बी काणे ने भी बहुलर के मत का समर्थन किया है. उल्लेखनीय है कि भारत में मनुस्मृति का सर्वप्रथम मुद्रण 1813 ई में कलकत्ता में हुआ.

वर्तमान मनुस्मृति में 12 अध्याय 2694 श्लोक है. जो सरल और प्रवाह शैली में रचित है. इसका व्याकरण अधिकांशतः पाणिनि सम्मत है.

भाषा एवं सिद्धांतों दृष्टि से मनुस्मृति एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में बहुत समानता है. मनुस्मृति में वर्णित मुख्य निम्न हैं.

  1. संसार की उत्पत्ति
  2. जाति कर्मादि संस्कार विधि एवं ब्रह्मचर्य
  3. पंच महा यज्ञ, नित्य श्राद्ध विधि
  4. स्नातक के नियम
  5. भक्ष्य तथा अभक्ष्य पदार्थ
  6. वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रम
  7. व्यवहार के मुकदमों का निर्णय, कर ग्रहण आदि राजधर्म
  8. साक्षियों के प्रश्न विधि
  9. स्त्री और पुरुष के धर्म सम्बन्धी विधि, सम्पति का विभाजन
  10. आपत्ति काल के कर्तव्य, धर्म
  11. पाप की निवृति के लिए प्रायश्चित आदि
  12. मोक्षप्रद आत्मज्ञान, नैतिक मूल्य

इस प्रकार मनुस्मृति की उपरोक्त अध्याय योजना में मानव जीवन के अधिकांश पक्षों को शामिल करते हुए उनके नियमन के लिए आचार संहिता प्रस्तुत की गई है,

जो तत्कालीन परिस्थतियों एवं जीवन मूल्यों पर आधारित है. यही संहिता इसके बाद की समाज व्यवस्था और मूल्यों के नियामन का आधार बनी हैं.

मनु के सामाजिक विचार (manu’s social laws in hindi)

मनुस्मृति के राजनैतिक विचार की तुलना में सामाजिक विचार को अधिक ख्याति प्राप्त हुई है. इसमें सामाजिक संगठनों के सिद्धांत, विभिन्न वर्णों के कर्तव्यों तथा सामाजिक व्यवस्था के सम्बन्ध में राज्य के दायित्वों आदि की सविस्तार विवेचना की गई है.

मनु के अनुसार जो व्यक्ति वर्ण, धर्म, आश्रम व्यवस्था के अनुसार जीवन व्यतीत करेगा, वहीँ जीवन में धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को प्राप्त कर सकता हैं.

मनु की वर्ण व्यवस्था (manu indian caste system)


मनुस्मृति में धर्म और कर्म के आधार पर समाज को चार वर्गों में बाटा गया है और इन चार वर्गो को वर्ण का नाम दिया गया है. ये वर्ण इस प्रकार है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र.

इन चारो की उत्पत्ति ब्रह्मा द्वारा की गई. ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पैरों से शूद्र का जन्म हुआ.

मनुस्मृति में इन चार वर्णों का स्थान एवं कर्म जन्मानुसार निर्धारित है, जैसे ब्राह्मण का जन्म ब्रह्मा के मुख से होने के कारण वह वेदों का ज्ञाता है. अतः उसका कर्तव्य पढ़ना, पढ़ाना यज्ञ करना, दान लेना देना है.

जहाँ एक ओर मनु ब्राह्मणों को समाज में सर्वोच्च स्थान देता है. वहीँ दूसरी ओर ब्राह्मणों से अपने स्थान के अनुरूप व्यवहार की अपेक्षा भी करता है. ताकि उनके व्यवहार और कर्मों की निरंकुशता या स्वेच्छाकारिता जन्म ना ले सके.

क्षत्रिय का जन्म ब्रह्मा की बाहों से होने के कारण यह ताकत का प्रतीक है. अतः क्षत्रिय का मुख्य दायित्व प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयों में आसक्ति नहीं रखना आदि हैं. मनु इस बात पर भी बल देता है कि क्षत्रिय अपनी ताकत के आधार पर अपने अधिकारों का दुरूपयोग न करें.

वैश्य का प्रमुख दायित्व राज्य की आर्थिक व्यवस्था का संचालन एवं विकास है. इसके अलावा पशुओं की देखभाल, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना और कृषि कार्य करना भी उसके दायित्वों में शामिल हैं.

शूद्र का जन्म ब्रह्मा के पैरों से होंने के कारण इनका कार्य शेष तीन वर्णों की सेवा करना है. मनु की वर्ण व्यवस्था में शूद्रों को का स्थान निम्नतम है. इनके लिए वेदों का अध्ययन भी गम्भीर अपराध माना गया है.

उपर्युक्त चार वर्णों से मिलकर समाज का निर्माण हुआ है. इन वर्णों को पृथक् पृथक् विशेषीकृत कार्य होने के बावजूद भी मनु ने एक दूसरे की निर्भरता पर बल दिया है.

मनु के अनुसार इनमें से किसी वर्ण के बिना समाज व्यवस्था का चलाना सम्भव नहीं हैं. लेकिन मनु की इस वर्ण व्यवस्था का कमजोर पक्ष यह है कि जन्म पर आधारित विशेषाधिकारों एवं निर्योग्यताओं का प्रतिपादन करती हैं.

मनु की आश्रम व्यवस्था (What do you mean by ashram system?)

मनुस्मृति के अनुसार मानव जीवन को चार आश्रमों में बांटा गया है. चार आश्रम है. ब्रहाचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम एवं सन्यास आश्रम.

  • ब्रह्मचर्य आश्रम (Brahmacharya Ashram)- इस आश्रम का समय जन्म से २५ वर्ष तक है. इसमें बालक के गुरु के साथ रहकर अध्ययन करता है. इस अवस्था में बालक का शारीरिक, बौद्धिक तथा मानसिक विकास होता हैं. बालक के बौद्धिक विकास के लिए वेदाअध्यय, यज्ञ करना तथा शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करना शामिल है. ब्रह्मचर्य की व्यवस्था स्त्रियों और शूद्रों के लिए वर्जित हैं.
  • गृहस्थ आश्रम (Gharastha ashram)– प्रथम आश्रम के उपरान्त मानव अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति तथा वंश परम्परा बनाएं रखने के लिए गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है. व्यक्ति विवाहोंउपरांत गृहस्थ हो जाता है और संतानोत्पत्ति द्वारा पूर्वजों के ऋण से तथा राज आदि करके देवों के ऋण से मुक्त हो जाता है. मनुस्मृति में एक गृहस्थ के लिए धन संचयन तथा स्त्रियों के प्रति सम्मान का नाश करने वाला माना गया हैं.
  • वानप्रस्थ आश्रम (Wanaprastha Ashram) – गृहस्थ के द्वारा लगभग 50 वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने पर वह वानप्रस्थ आश्रम में प्रविष्ट होता है. मनु के अनुसार इस आश्रम में व्यक्ति का कार्यक्षेत्र परिवार न होकर सम्पूर्ण समाज होता है. उसे अब मान अपमान, शीत ताप, सुख दुःख आदि के प्रति विरक्ति भाव को अपनाना चाहिए तथा मानव मात्र के प्रति मित्र भाव एवं दया भाव बनाए रखना चाहिए.
  • संन्यास आश्रम (sanyas ashram) मनुस्मृति में मानव जीवन के अंतिम चतुर्ताश को सन्यास आश्रम के रूप में स्वीकार किया गया हैं. मनु का मानना है कि सन्यास आश्रम में प्रवेश से पूर्व व्यक्ति को देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण से मुक्त हो जाना चाहिए. अन्यथा वह नरकगामी होता हैं. वेदों के विधिपूर्वक अध्ययन और पुत्रप्राप्ति के उपरान्त ही सन्यास आश्रम के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति संभव हैं.

इस व्यवस्था को बनाए रखना राज्य का कर्तव्य है. जब भी यह व्यवस्था खंडित होगी, समाज में बिखराव तथा टकराव आएगा. मानव को भी अपने आश्रम के अनुरूप कर्म करके सहयोग करना चाहिए.

इस प्रकार आश्रम व्यवस्था व्यक्ति की आयु के अनुसार उसके कार्यो एवं दायित्वों का विभाजन कर धर्म, अर्थ काम और अंत में सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करती हैं.

लेकिन इस व्यवस्था की कमजोरी यह है कि सभी वर्णों को समान रूप से आश्रम का उपभोग करने की इजाजत मनुस्मृति नहीं देती.

स्त्रियों के बारे में मनु के विचार (Manu Opinion on Women)

मनु के अनुसार किसी भी स्त्री को घर में कोई कार्य स्वाधीन होकर नहीं करना चाहिए, उसे बाल्यकाल में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र के नियंत्रण व संरक्षण में रहना चाहिए.

ईश्वर ने ही स्त्रियों की प्रवृत्ति में कुछ ऐसे दुर्गुणों का स्रजन कर दिया है कि उन्हें स्वतंत्र छोड़ दिया गया तो वे व्याभिचार जैसे दोषों में लिप्त हो जाएगी. अतः को अत्यंत ध्यानपूर्वक उन पर नियंत्रण रखना चाहिए.

मनु ने स्त्री स्वतंत्रता का विरोध किया है, परन्तु स्त्री का पुत्री, पत्नी और माता के रूप में उचित सम्मान करने की बात कही है. मनु का यह कथन बड़ा प्रसिद्ध है. जहाँ नारियों की पूजा की जाती है वहां देवता वास करते हैं.

मनु ने स्त्री की स्वतंत्रता पर नियंत्रण नहीं लगाया अपितु पुरुषों के दायित्वों का भी निर्धारण किया हैं. यदि विवाह योग्य लड़की का विवाह पिता नहीं करता है तो पिता निंदा योग्य तथा अपराधी माना जाएगा.

पिता की मृत्यु उपरान्त माता का ध्यान न रखने वाला पुत्र निदा योग्य हैं. धार्मिक अनुष्ठान में स्त्री पुरुष भागीदारी का समान महत्व है. स्त्रीधन पर उसी के अधिकार की बात कही है.

स्त्री के सम्बन्ध में मनुस्मृति अपने युग की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती हैं, जहाँ स्त्री एक व्यक्ति न होकर पुर्णतः पुरुष के अधीन है. मनुस्मृति ने स्त्रियों को हीनता का वैधानीकरण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई हैं.

मनु के राजनीतिक विचार (political thought of manu)


मनु के प्रमुख राजनीतिक विचारों को हम निम्न बिन्दुओं के अंतर्गत समझने की कोशिश करेगे.

राज्य की उत्पत्तिमनुस्मृति के सातवें अध्याय में राजधर्म का प्रतिपादन करते हुए मनु ने लिखा है कि आदिकाल में राजा के न होने से चारो ओर अराजक तथा अशांत स्थिति थी.

बलवान के डर से प्रजा इधर उधर भाग कर जीवन यापन कर रही थी. इस बर्बर, अराजक स्थिति से सबकी रक्षार्थ ब्रह्मा ने राजा की सार्ष्टि की. ईश्वर ने इंद्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरूण, चन्द्रमा और कुबेर का सारभूत नित्य अंश लेकर राजा की स्रष्टि की.

इंद्र जैसे श्रेष्ठ देवताओं के अंश से उत्पन्न राजा सब प्राणियों में पराक्रमी और श्रेष्ठ होता है. वह बालक भी हो तो उसका कोई अनादर नहीं कर सकता, क्योंकि वह मानव रूप में देवता है अर्थात राज्य एवं राजा की दैवीय शक्ति का मनु ने समर्थन किया हैं.

सप्तांग सिद्धांतमनुस्मृति में राज्य के लिए सप्तांग का सिद्धांत दिया गया है. मनुस्मृति के 9 वें अध्याय में राज्य के निम्न सात अंग बताए गये हैं. स्वामी/राजा, मंत्री, पुर, राष्ट्र, कोष, दंड, मित्र ये सात राजप्रवृतियां है.

  1. राजा- मनु ने राजा के लिए स्वामी शब्द का प्रयोग किया हैं. जिसका तात्पर्य यह है कि वह सम्पूर्ण व्यवस्था में राजा को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है. मनु के अनुसार राजा के बिना राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती हैं. राजा को नैतिक गुणों, प्रशासनिक क्षमता तथा दायित्वों के प्रति निष्ठां से युक्त होना चाहिए.
  2. मंत्री- मनु का मत है कि राज्य कार्य योग्य और कुशल मंत्रियों से परामर्श प्राप्त करते हुए राज्य का कार्य किया जाना चाहिए. मनु ने मंत्रियों के लिए आवश्यक गुणों व योग्यताओं का भी विस्तार से वर्णन किया गया हैं. जैसे मंत्री को कुलीन, शास्त्रज्ञाता, विद्वान, शूरवीर, विश्वसनीय, कर्मठ आदि गुणों से सम्पन्न होना चाहिए.
  3. पुर- पुर का अर्थ किला, परकोटा या राजधानी है. मनु का मत है कि पुर पूर्णतया सुरक्षित हो तथा उसमें रक्षा एवं भरण पोषण की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए. मनु ने पुर की कई श्रेणियां यथा- धन्व दुर्ग, महि दुर्ग, जल दुर्ग, वश्क्ष दुर्ग, मनुष्य दुर्ग एवं गिरि दुर्ग का उल्लेख किया हैं. इसमें गिरि दुर्ग को श्रेष्ठ बताया गया है. अतः राजा को इसे प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए. विभिन्न दुर्गों की संरचना एवं विशेषताओं का वर्णन किया गया.
  4. राज्य- राज्य के अंगों में एक अंग के रूप में मनु द्वारा राज्य का उल्लेख भ्रम उत्पन्न करता हैं. वास्तव में मनु ने राज्य शब्द का प्रयोग जनपद के अर्थ में किया हैं. यहाँ राज्य का तात्पर्य है राज्य की भूमि तथा उसमें निवास करने वाली जनता.
  5. कोष- मनु के अनुसार कोष राज्य का अनिवार्य तथा अति महत्वपूर्ण अंग हैं. कोष के अभाव में राजा, प्रजा की सुरक्षा एवं उनके कल्याण के विभिन्न योजनाओं को पूरा नहीं कर पाएगा. इसलिए राजा के पास समुचित मात्रा में कोष होना चाहिए.
  6. दंड- दंड का आशय राज्य की रक्षा करने वाली शक्ति अर्थात सेना से हैं. मनु ने सेना के अनेक अंगों यथा हस्ती सेना, रथ सेना, अश्व सेना, जल सेना, पदाति सेना का उल्लेख किया है. मनु ने राज्य को परामर्श दिया है कि वह राज्य के समस्त को मजबूत बनाकर राज्य की रक्षा की उचित व्यवस्था करे.
  7. मित्र- मित्र का अर्थ अन्तराष्ट्रीय राजनीति में एक राज्य अन्य राज्य के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध. राज्य को अपनी रक्षा तथा विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अन्य राज्यों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध बनाने चाहिए. ये मित्र ऐसे होने चाहिए. जो विपत्ति में साथ दे सके. राज्य के इन सातों अंगों का पूर्ण समन्वय आवश्यक हैं. एक प्रवृति का विनाश सम्पूर्ण राज्य व्यवस्था के विनाश का कारण बन सकता हैं. अर्थात उपरोक्त तत्वों का सशक्त एवं सामजस्यपूर्ण अस्तित्व राज्य की ताकत का आधार हैं.

राज्य का कार्य क्षेत्र

मनुस्मृति का मत है कि राज्य का क्षेत्र व्यापक है. राज्य पुलिस कार्य ही नहीं करता अपितु यह समाज की रक्षा एवं कल्याण भी करता हैं, इसके अलावा आंतरिक और बाह्य आक्रमण से रक्षा तथा शक्तिशाली से कमजोर की रक्षा करना भी राज्य का दायित्व हैं.

मनु का मानना था कि राज्य की मत्स्य न्याय से प्रजा की रक्षा हुई हैं राज्य मानव से वर्ण धर्म एकं आश्रम धर्म का पालन कराता हैं. मनु के अनुसार राज्य का कार्य सुरक्षा व्यवस्था तक ही सीमित न होकर लोक कल्याणकारी भी हैं.

राजा के कर्तव्य (King’s Duty)

मनु राजा के दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत के समर्थक होने के बावजूद राजा की निरंकुश सत्ता के समर्थक नहीं हैं. राजा विधि तथा धार्मिक नियमो के अधीन हैं. वह धार्मिक दंड को क्रियान्वित करने का साधन मात्र हैं. वास्तविक राजा तो धर्म का विधान हैं.

एक ओर तो राजा को देवत्व का अंश मानकर उसके धर्म को पालन करने को प्रजा का धर्म कहा गया हैं. वही दूसरी ओर राजा द्वारा धर्म विरुद्ध कार्य करने पर सिंहासन च्युत करना या मार डालना भी उचित ठहरा कर मनु ने राजा को निरंकुशवादी होने से बचाया हैं. इन दोनों विपरीत धारणाओं के पीछे मूलरूप से दो विचार रहे होंगे.

  1. भारतीय चिंतकों ने वर्ण और आश्रम व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए आने वाले कालों में सामजिक अव्यवस्थाएं पैदा न हो, इसलिए राजा को देवत्व प्रदान किया गया ताकि प्रजा उसकी आज्ञा का पालन करती रहे. यह धारणा सामान्य जन के लिए बताई गई थी.
  2. परन्तु बुराइयों से ग्रस्त या धर्म विरुद्ध कार्यों में लिप्त राजा या मंत्री का स्वतः नाश या मृत्यु हो जायेगी यह धमकी भी दी गई हैं.

राजा को राजधर्म का पालन करते हुए शत्रूओं से प्रजा प्राण तथा सम्पति की रक्षा करनी चाहिए. उसे गाँवों और नगरों की सुव्यवस्था के लिए योग्य अनुभवी और ईमानदार, लगनशील विद्वान तथा कर्मचारियों का आदर सत्कार करना चाहिए.

अयोग्य, भ्रष्ट, लापरवाह, रिश्वतखोर, देशद्रोही कर्मचारियों को पदमुक्त कर उनको निजी सम्पति से वंचित कर देश निकाला दे देना चाहिए.

राजा को शासन व्यवस्था सुचारू रूप से चलाने के लिए योग्य एवमं अनुभवी मंत्रियों की नियुक्ति करणी चाहिए तथा राजा को भी चाहिए कि वह अपने निकटस्थ मंत्रियों के साथ अच्छा व्यवहार करे.

परन्तु समय समय पर अपने गुप्तचरों से मंत्रियों के इरादों और व्यवहार की जानकारी लेते रहना चाहिए. मनु के अनुसार राजा अविश्वासी पर विशवास न करे.

विश्वासी पर भी अधिक विशवास न करे. बगुले के समान अर्थ चिंतन करे, सिंह के समान पराक्रम दिखाए, भेड़िये के समान शत्रु का नाश करे. और खरगोश की तरह दुश्मन के घेरे से निकल जाए.

शत्रुओं के आक्रमण से रक्षा के लिए ऐसे दुर्ग का निर्माण करना चाहिए, जो पहाड़ी पर निर्मित हो, जहाँ से शत्रु पर वार करके जीता जा सके. दुर्ग अस्त्र शस्त्रों, धन धान्य, वाहन, ब्राह्मणों, कारीगरों, यंत्रों तथा चारे पानी से भरपूर रखना चाहिए.

क्योंकि युद्ध में इन चीजों की कमी सैनिक शक्ति का पतन करती हैं. पुरे साजो सामान से सुसज्जित राज्य को उचित अवसर देखकर युद्ध भी करना चाहिए. युद्ध का नेतृत्व राजा को स्वयं करना चाहिए.

मनु के अनुसार जो वीर युद्ध में शत्रु को पराजित करता हैं, वह पृथ्वी के सुखों को भोगता है और जो युद्ध में वीरगति को प्राप्त होता है वह स्वर्ग में जाता हैं.

युद्ध में वीरगति को प्राप्त राजा का गुणगान चारो दिशाओं में होता हैं. जो युद्धस्थल से भागकर जान बचाता है वह कायर कहलाता हैं. मनु के अनुसार राजा को वृद्धों, अंधों विधवाओं, अनाथों एवं असहायों की सहायता करनी चाहिए. तथा उद्योग या व्यवसाय द्वारा दीन हीन, क्षत्रियों वैश्यों शूद्रों की समय समय पर सहायता करनी चाहिए.

एक राजा को हमेशा चुस्त दुरस्त रहने के लिए कुछ नियमों का पालन करना चाहिए. जैसे प्रातः स्नान, ध्यान, अध्ययन, पूजा. इसके बाद न्याय, जनता की शिकायतों का निवारण, मंत्रियों से मन्त्रणा, विदेशों में स्थित दूतों तथा गुप्तचरों के साथ वार्तालाप, सेनापति से सेना सम्बन्धी जानकारी प्राप्त करनी चाहिए.

मध्यान्ह तथा रात्रि के भोजन में राजा की दिनचर्या इस प्रकार निर्धारित की गई हैं. व्यायाम, स्नान, आराम और निवास. सेना और युद्ध सामग्री का निरक्षण, सांय प्रार्थना, गुप्त परामर्श तथा संगीत और अंत में सोना. यह नियमित रूप से राजा की दिनचर्या होनी चाहिए.

मनुस्मृति के अनुसार राजा बालक क्यों न हो, उसका अपमान नहीं करना चाहिए. मनु के इस कथन से कुछ विचारकों ने अर्थ लगा दिया कि राजा पूर्ण स्वतंत्र हैं. उसकी आज्ञाओं का पालन मानव कर्तव्य हैं. प्रश्न यह है कि क्या राजा निरंकुश हैं.

जबकि मनु और याज्ञवल्कय ने राजा को धर्म के अधीन रखा हैं. राजा हमेशा प्रजापालन व रक्षार्थ तैयार रहना चाहिए. मनु ने धर्म और दंड को ही राजा कहा हैं. इन दोनों प्रसंगों से समझ में आता हैं कि मनु ने सर्वप्रथम तो राजा को निरंकुश सत्ता प्रदान की.

इसमें असीमित शक्ति का दुरूपयोग होने लगा. फिर असीमित शक्ति को नियंत्रित करने के लिए धर्म और दंड की स्थापना कर राजा को इसके अधीन कर दिया. इस प्रकार मनुस्मृति में दो विरोधी मत दिखाई देते हैं. एक असीमित राजतंत्र और दूसरा सीमित राजतंत्र का.

शासन व्यवस्था (administration)


मनु के अनुसार शासन का मुख्य प्रयोजन धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति में साधक बनना हैं. अतः राजा को अपने मंत्रियों की सहायता से इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रयासरत रहना चाहिए.

मनु की दृष्टि में राजा को अप्राप्त भूमि और धनादि को प्राप्त करना चाहिए. जो कुछ भी प्राप्त हो गया हैं. उसकी रक्षा करना जो रक्षित है उसमें विभिन्न प्रकार से बढ़ोतरी करना और जो कुछ बढ़ोतरी हो उसे सुपात्रों में बाँट देना चाहिए. राजा को को पिता तुल्य पालन करना चाहिए.

मनुस्मृति में बताया गया है कि सरल कार्य भी अकेले व्यक्ति के लिए कठिन होता हैं. अतएवं राज्य जैसा महान फल प्रदान करने वाला कार्य अकेले राजा से कैसे हो सकता हैं.

इसलिए राजा को उच्चकुलीन, शास्त्रज्ञाता, विद्वान, शूरवीर, शस्त्र चलाने में निपुण, आलस्य रहित, कर्मठ, विश्वसनीय व्यक्ति को महत्वपूर्ण कार्यों में सलाह लेने के लिए मंत्री नियुक्त करने चाहिए.

योग्य मंत्रियों की नियुक्ति के उपरान्त राजा को पहाड़ या एकांत वास में मंत्रियों से मंत्रणा करनी चाहिए. मंत्रणा के समय राजा को ध्यान देना होगा कि जड, मूक, बहरे, वृद्ध, स्त्री, म्लेच्छ, रोगी और अंगहीन को मंत्रणा से हटवा दे.

क्योंकि ये सब मंत्रणा का भेदन करने वाले होते हैं. मध्याह या आधी रात को मानसिक खेड़ तथा शारीरिक खिन्नता से मुक्त राजा को मंत्रियों से मंत्रणा करनी चाहिए.

राजकार्य को सम्पन्न करवाने के लिए एक होगी, जिसमें राजा, मंत्री और अन्य कर्मचारी होंगे. आधुनिक मंत्रिमंडल की भांति प्रत्येक मंत्री के अधीन कुछ विभाग होंगे. वे मंत्री अपनी सफलता और असफलता के लिए राजा के प्रति होने चाहिए.

प्रयास यह किया जाना चाहिए कि निर्णय बहुमत से हो. राजा एक विद्वान को महामंत्री नियुक्त करे. महामंत्री के विशवास और परामर्श से शासन किया जाना चाहिए.

मंत्रिपरिषद छोटी, सुव्यवस्थित और ऐसी मंत्रियों से बनी होनी चाहिए कि वह राष्ट्रीय कार्यों को सही रूप से निर्देशन कर सके.

इन मंत्रियों के चारित्रिक गुणों की जाँच राजा को गुप्तचरों से करवानी चाहिए. केवल उन्ही लोगों को इन पदों पर लिया जाना चाहिए, जो सर्वगुण सम्पन्न और चरित्रवान हो.

भूमि के आधार पर मनु ने राज्य को दो भागों पुर तथा राष्ट्र में बांटा हैं. पुर से तात्पर्य राजधानी तथा राष्ट्र से तात्पर्य सारे देश के भूभाग से हैं. कि सफल प्रशासन के लिए राज्य को इकाइयों में विभाजित किया जाना चाहिए.

मनुस्मृति में यह विभाजन १ गाँव, १० गाँव, २० गाँव, १०० ग्राम और १००० गाँवों की प्रशासनिक इकाइयों में व्यवस्था दी गई हैं. इसमें शासन की सबसे छोटी इकाई गाँव हैं. जिसका अधिकारी ग्रामिक कहलाता हैं.

ग्रामिक का कर्तव्य गाँव में शान्ति व्यवस्था बनाए रखना हैं. तथा गाँवों में पैदा होने वाली फसल में से राजांश इकट्ठा कर उसे प्रशासन की अगली इकाई १० गाँव के अधिकारी दशग्रामपती को सौपने की हैं.

दशग्रामपति ही ग्रामिक के विरुद्ध शिकायतों की सुनवाई करता हैं. इसी प्रकार बीस, सौ और हजार ग्रामों के अधिकारियों को क्रमशः विशति, शताध्यक्ष तथा सह्स्त्रपति कहा गया हैं.

मनु के उपरोक्त शासन संगठन में शासन की छोटी इकाई को क्रमशः ऊपर की इकाई के प्रति उत्तरदायी बनाकर शासन की पदसोपानीय व्यवस्था को गाँव, पुर तक जोड़कर संगठित कर दिया हैं.

सरकार का द्वितीय अंग विधायिका परिषद हैं. जिसका प्रमुख दायित्व कानूनों की व्यवस्था करना हैं. मनु के अनुसार परिषद् शब्द का तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के संगठन से हैं, जो तीनों वेदों के ज्ञाता हो.

इसकी सदस्य संख्या अधिकतम दस होनी चाहिए. इसके निर्माण का आधार संख्यात्मक न होकर वैक्तिक योग्यता और बौद्धिकता होनी चाहिए.

मनुस्मृति में राजा को न्यायपालिका के औपचारिक अध्यक्ष का दर्जा दिया गया हैं. इसके अनुसार न्यायिक कार्यों के सफल सम्पादन के लिए राजा को न्याय सभा में सदा ऐसे ब्राह्मणों तथा पार्षद के साथ बैठना चाहिए.

जो विधिवेत्ता, ज्ञान में पारंगत हो तथा जो न्यायिक कार्यों में दोषमुक्त सलाह दे सके. मनु ने न्याय क्षेत्र में राजा की भूमिका को पर्यवेक्षक प्रकृति को माना है लेकिन न्याय कार्य विधि सम्मत है या नहीं यह देखना भी राजा का दायित्व हैं.

मनुस्मृति के अनुसार न्यायधीश द्वारा उचित न्याय न प्रदान करने पर अधर्म के अंध में निम्न लोग बराबर के भागिदार होंगे.

अधर्म करने वाला, गवाह, न्यायधीश तथा राजा. इस प्रकार फरियादी को न्याय न मिलने की स्थिति में इसके लिए राजा को भी समान रूप से भागीदार और उत्तरदायी माना जाता हैं. क्योंकि न्याय प्रदान करने वाला न्यायधीश राजा के अधीन रहकर कार्य करता हैं.

मनुस्मृति में सामजिक नियमों के विपरीत किये गये कार्यों को अपराध की संज्ञा दे दी गई हैं, दूसरों को क्षति पहुचाने वाला अपराधी हैं.

दीवानी तथा फौजदारी क्षेत्र के प्रमुख अपराधों में चोरी, झूठी गवाही, खाद्य पदार्थों में मिलावट, व्यापारियों द्वारा अधिक मूल्य वसूली, धार्मिक अपराध, राज्य के अन्न भंडार या शस्त्रागार को तोड़ना, शारीरिक हिंसा, बलात्कार, धन चोरी, धोखाधड़ी, कर्जा न चुकाना, जेब कतरना, गवाही देने के लिए उपस्थित न होना तथा डकैती आदि प्रमुख हैं. इन अपराधों के लिए अलग अलग प्रकार के दंड की व्यवस्था की गई हैं.

हम जानते है कि इन अपराधों की सुनवाई और निष्पादन के लिए मनु ने योग्य ब्राह्मण, न्यायधीश की नियुक्ति की व्यवस्था की हैं. ब्राह्मण न्यायधीश उपलब्ध न होने पर क्षत्रिय तथा वैश्य को भी न्यायधीश बनाया जा सकता हैं. लेकिन शुद्र की नियुक्ति इस पद के लिए पूर्ण रूप से निषेध की गई हैं.

दंड और अपराध (Punishment and Crime)


मनु ने दंड की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए कहा कि दंड ही समस्त प्रजा पर शासन करता है. जब प्रजा सोती है तो दंड जागता है. चोर दंड के भय से चोरी नहीं करते है.

दंड धर्म है राजा का कर्तव्य होता है दंड का प्रयोग स्वहित में न करते हए जनहित में करना चाहिए. अन्यथा वह राजा के नष्ट होने का कारण बन सकता हैं. मनुस्मृति के अनुसार दंड का प्रयोग धर्म सम्मत तथा अपराध की मात्रा के अनुसार होना चाहिए.

मनु ने अपराध के अनुसार दंड निम्न चार प्रकार के दंडों का प्रावधान किया गया हैं.

  1. वाग्दण्ड
  2. धनदंड
  3. कामदंड
  4. घिग़दंड

मनु द्वारा दंड की मात्रा व प्रकृति के निर्धारण के इस तथ्य पर ध्यान देना जरुरी हैं. कि सम्बन्धित अपराधी अपराध के गुण दोष को जानता था या नहीं. अज्ञातवशकिये गये अपराध को जानबुझकर किये गये अपराध से कम गम्भीर माना गया हैं.

लेकिन मनु की न्याय व्यवस्था का यह कमजोर पक्ष यह है कि वर्ण व्यवस्था के आधार पर अपराध की गम्भीरता का का निर्धारण करती हैं. जिसमें समान अपराध के लिए सभी को समान रूप से दंडित नहीं किया जाता है.

वर्ण के आधार पर व्यक्ति से व्यवहार की अपेक्षा की जाती हैं. उदाहारणतः ब्राह्मण को कटु वचन कहने के अपराध में क्षत्रिय तथा वैश्य को क्रमशः सौ पण तथा दौ सो पण का दंड देना होगा. किन्तु उसी अपराध के लिए शुद्र को अंगच्छेद का दंड देय होगा.

इसी कारण यदि ब्राह्मण किसी को कटु वचन बोलता है तो उसे आर्थिक दंड देकर छोड़ दिया जाए. जबकि ये ही कार्य कोई शुद्र करता है तो उसकी जीभ काट ली जानी चाहिए.

मनु द्वारा ब्राह्मण वर्ग के प्रति विशेष व्यवहार तथा शूद्रों के प्रति पूर्वाग्रह से निश्चित रूप से वर्ण धारित भेदभाव दिखाई देता हैं, जिसका कोई विवेक सम्मत आधार नहीं हैं.

कर व्यवस्था (Tax System)


राज्य की सुरक्षा, सम्रद्धि, सुद्रढ़ता तथा प्रजा शीर सुख सुविधा के लिए राजकोष की व्यवस्था होती हैं. यह कोष प्रजा पर कर लगाकर ही किया जा सकता हैं. राजा को स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों तथा मनमाने से कर संग्रह नहीं करना चाहिए.

जिस प्रकार जोंक, बछड़ा और मधुमक्खी थोडा थोड़ा करके अपने लिए क्रमशः रक्त दूध व शहद लेते हैं. उसी प्रकार राजा को अपनी प्रजा से थोड़ा थोड़ा करके कर वसूलना चाहिए.

मनुस्मृति में करों की दरों के बारे में लिखा गया है. व्यापारियों से कर उनके कार्य एवं लाभ को देखकर ही लिया जाना चाहिए.

भूमि की गुणवत्ता, उपजाऊपन, परिश्रम आदि विचार कर किसानों से आय का छठा, आठवां तथा बाहरवाँ भाग ग्रहण करना चाहिए. वृक्ष, मांस, घी, गंध, औषधि, चमड़ा, मिटटी के बर्तन तथा पत्थर की बनी वस्तुओं का छठा भाग कर के रूप में लेना चाहिए.

संकट काल में राजा के चौथे भाग तक कर वसूल कर सकता हैं. लेकिन कारीगर, बढाई, लौहार आदि अति निर्धन व्यक्तियों पर राज्य द्वारा किसी प्रकार का कर नहीं लगाया जाना चाहिए.

इसके स्थानों को ऐसे व्यक्तियों से प्रति माह एक दिन श्रम करवाना चाहिए. ब्राह्मण, बूढ़े, पंगु, असहाय लोगों से किसी प्रकार का कर न वसूल ना करने की सलाह दी हैं. राज्य की आय का एक स्रोत जुर्माने को भी माना हैं.

इस प्रकार कर निर्धारण व वसूली में राजा की स्वेच्छाकारिता को अस्वीकार करते हुए इस सम्बन्ध में निश्चित एवं स्पष्ट नियमों का प्रतिपादन किया हैं.

मनुस्मृति कर संग्रह को राज्य का उद्देश्य न मानकर प्रजा की रक्षा तथा कल्याण के लिए एक साधन माना गया हैं. अतः यह आवश्यक है कि कर व्यवस्था प्रजा कल्याण की मूल भावना के अनुरूप हो.

यह भी पढ़े

आशा करता हूँ दोस्तों आपकों मनु का जीवन परिचय और मनुस्मृति | Manu Maharaj Biography Manusmriti in Hindi​ से जुड़ी इन्फोर्मेशन अच्छी लगी होगी.

यदि आपकों Manusmriti & Manu In Hindi का हमारा ये  लेख अच्छा लगा हो तो प्लीज इसे अपने दोस्तों के साथ भी शेयर करे.

2 comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *