माता-पिता की शिक्षा में भूमिका पर निबंध | Essay On Role Of Parents In Education In Hindi

नमस्कार दोस्तों आपका हार्दिक स्वागत हैं, आज हम माता-पिता की शिक्षा में भूमिका पर निबंध | Essay On Role Of Parents In Education In Hindi का निबंध लेकर आए हैं. हमारी शिक्षा अथवा बच्चों की शिक्षा में पेरेंट्स की भूमिका योगदान क्या हैं आदि पर आदि का निबंध, भाषण, अनुच्छेद स्पीच सरल भाषा में दिया गया हैं.

माता-पिता की शिक्षा में भूमिका पर निबंध

माता-पिता की शिक्षा में भूमिका पर निबंध | Essay On Role Of Parents In Education In Hindi

माता-पिता केवल हमें जन्म देने वाले भर नहीं हैं वे हमारे जीवन में सब कुछ होते हैं. सनातन संस्कृति में माँ बाप के चरणों को स्वर्ग कहा गया हैं. हमारे समाज में बच्चें के जीवन में माता पिता को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हैं.

माँ को बच्चें की प्रथम गुरु अथवा शिक्षिका भी कहा जाता हैं, तथा परिवार को बालक की प्रथम पाठशाला की संज्ञा दी जाती हैं. बच्चें के व्यक्तित्व की नींव परिवार में ही पड़ती हैं जहाँ से उसकी औपचारिक शिक्षा की शुरुआत हो जाती हैं.

बालक के व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया में सबसे बड़ा कारक उसके माता पिता एवं पारिवारिक प्रष्ठभूमि होती हैं जिसे वंशानुगत और वातावरण कहा जाता हैं.

मैकाली की शिक्षा प्रणाली ने निश्चय ही प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति से हमें बहुत दूर कर दिया हैं, जिसमें बालक के गुरु एवं माता पिता के साथ विशिष्ट सम्बन्ध हुआ करते थे.

पश्चिमी भौतिकवादी नजरिये के अनुकरण के फलस्वरूप हमारी शिक्षा में भी इसका बड़ा प्रभाव देखने को मिलता हैं. हमारी शिक्षा बालकों को मौलिक अधिकारों के विषय में तो बहुत कुछ सिखाती हैं, मगर कर्तव्यों दायित्वों के नाम पर चुप्प ही प्रतीत होती हैं. निसंदेह बालक की शिक्षा में माता पिता की भूमिका उतनी ही हैं जितनी की एक शिक्षक की होती हैं.

उदाहरण के लिए एक स्कूल की एक कक्षा में पढने वाले सभी बच्चों को एक ही अध्यापक द्वारा एक ही विषयवस्तु पढ़ाई जाती हैं, जबकि समझ विकसित करने उसे आत्मसात करने में बच्चों में एकसमान योग्यता भले ही न हो, मगर एक स्तर तक सभी में समानता होनी चाहिए. यहाँ दो बच्चों के बीच दिखने वाला अंतर बालक के माता पिता और परिवार के प्रभाव को दिखाता हैं.

जिन बालकों के माता पिता स्वयं शिक्षित एवं जागरूक होते हैं, वे घर पर बच्चें की शिक्षा के लिए समुचित प्रबंध एवं वातावरण उपलब्ध कराते हैं. बच्चा अपने एक दिन के समय का मात्र तीसरा भाग ही विद्यालय में व्यय करता हैं.

शेष अधिकतर समय वह घर में ही बिताता हैं, अतः यदि बच्चें के माता पिता बालक की शिक्षा के प्रति गम्भीर हैं तो यकीन उसके परिणामों में स्पष्ट फर्क देखने को मिलता हैं.

शिक्षा को बालक तभी अधिकतम ग्रहण कर पाएगे जब वे मानसिक एवं शारीरिक रूप से स्वस्थ होंगे. स्वास्थ्य में माता पिता का बड़ा योगदान हैं. प्रारम्भिक स्कूल के समय बालक को यथेष्ठ प्रेम, अपनत्व और स्वीकार्यता की आवश्यकता होती हैं.

जो माँ बाप बच्चों के साथ अच्छा वक्त बिताते है उनकी जरूरतों का पूरा ध्यान रखते हैं. किसी शारीरिक अथवा मानसिक चिंता का निवारण करते हैं तो इसका सीधा सा प्रभाव उसकी शिक्षा पर पड़ता हैं.

यदि किसी बालक के घर में कलह का वातावरण रहता हैं, माता पिता सदैव झगड़ा करते हैं तो बालक की मानसिक दशा पर इसका हानिकारक दुष्प्रभाव पड़ता हैं.

वह हमेशा मानसिक तनाव में रहता हैं यहाँ तक कि उसकी दिनचर्या भी पूरी तरह प्रभावित हो जाती हैं, वह अधिकतर अकेला रहना पसंद करता हैं. वही दूसरी ओर यदि बालक के परिवार में अनुशासन, शान्ति का माहौल हैं तो निश्चय ही बालक मानसिक रूप से परिपक्व होगा.

बहुत से माता- पिता बच्चें तथा उसकी शिक्षा व स्कूल को लेकर पूरी तरह उदासीन बने रहते हैं. एक बार विद्यालय में दाखिला दिला देने के बाद वे अपनी जिम्मेदारियों का इति श्री कर लेते हैं.

ऐसे में बालक को न तो प्रोत्साहन मिलता हैं न उसे अपने कर्म की प्रतिपुष्टि मिल जाती हैं. वह क्या कर रहा हैं, किसी विषय में उसकी क्या राय हैं, उनकी जिज्ञासाओं तथा सपनों को यदि बल नहीं मिलता है तो धीरे धीरे उसकी बहुत सी अच्छी आदतों एवं विचारों का दफन हो जाता हैं.

हमारे माता पिता और बच्चों में एक चीज का मूलभूत अंतर होता हैं वो हैं अनुभव का. जीवन की दौड़ में वर्षों तक सफर करने के बाद उन्हें मोती रुपी सच्चे जीवन के अनुभव प्राप्त होते हैं. जो पेरेंट्स अपने बच्चों के साथ समय समय पर अनुभव साझा करते हैं.

उनके बच्चों को भविष्य में आने वाली छोटी बड़ी समस्याओं के समाधान और उससे सामना करने की समझ का विकास हो चूका होता हैं.

कई बार कुछ लोग बच्चों पर अपने निर्णय और अनुभव थोप देते हैं, बच्चें की रूचि न होने के बाद ही उन्हें मानने के लिए विवश किया जाता हैं ऐसा अनुभव छोटे बच्चें के लिए अर्थहीन हो जाता हैं.

शिक्षा में माता पिता की भूमिका क्या है

शिशु की पहली आचार्य माता ही होती हैं. हमारे नैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की सीख माता-पिता से ही मिलती हैं. हर माँ बाप अपने बालक बालिका को विद्यालय भेजकर उन्हें शिक्षा दिलाने के हर सम्भव प्रयास करते हैं.

गरीबी और अभावों के बीच अपना जीवन किसी तरह मजदूरी करके काटते हैं मगर अपने बच्चों को स्कूल भेजने की जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं. बच्चों को व्यवहारिक जीवन की शिक्षा माता पिता द्वारा ही मिलती हैं.

वे हर सम्भव प्रयास द्वारा उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाते हैं. विद्यालय में शिक्षक द्वारा उनका मार्गदर्शन किया जाता हैं. बालक गुरु द्वारा प्राप्त ज्ञान को अपनी दिनचर्या में उतारने का प्रयास माता-पिता की निगरानी में ही करते हैं.

बालक में संस्कार और उसकी सभ्यता माता-पिता की बदौलत ही प्राप्त होती हैं. वे सदैव एक अच्छा नागरिक बनने के लिए अपने बच्चे को प्रोत्साहित करते हैं.

बालक के लिए स्कूल या घर में आज पुस्तकीय या सैद्धांतिक ज्ञान के अपार स्रोत हैं. जिन्हें दूसरे शब्दों में हम जानकारी भी कह सकते हैं. मगर इनका जीवन में उपयोग तथा सही गलत की पहचान माता-पिता द्वारा ही दी जाती हैं.

जीवन में ईमानदारी, सत्य, परोपकार, अहिंसा और कठिन परिश्रम के गुण माता- पिता के अनुकरण द्वारा ही सीखे जाते हैं. सुख या दुःख की परिस्थतियों में कब कैसा व्यवहार किया जाए आदि व्यावहारिक नैतिक शिक्षा के आधार तो पेरेंट्स ही होते हैं.

हमारे जीवन में माता-पिता ईश्वर के भेजे दो फरिश्ते हैं जो हमारे जन्म से साथ ही होते हैं. जब कभी हमें चोट लगती है गिरते है अथवा टूट जाते हैं तो वे प्यार दुलार के मलहम से हमें जोड़ देते हैं.

हमारी हंसी में हंस पड़ते है हमारे रोने पर उनका भी कलेजा पसीज जाता हैं. बच्चें के पैरों पर खड़े होने तक उन पर आई हर एक परेशानी को वे फरिश्ते की तरह स्वयं हल कर देते हैं.

हमारी शिक्षा, दीक्षा, संस्कार, आदर्श, मूल्यों का श्रेय उन्ही को जाता हैं. आज यदि हम दो अक्षर लिख पाते हैं अथवा समझने योग्य है तो यह उनकी ही देन हैं.

एक माता – पिता की दिलिच्छा के बगैर बच्चा कुछ नहीं कर पाता और यदि पेरेंट्स का आशीर्वाद हमारे साथ हैं तो समूची दुनियां हमारी हो जाएगी.

आज की शिक्षा प्रणाली में बच्चों के पेरेंट्स की भूमिका (Role of children’s parents in today’s education system)

शिक्षा को इस रूप में परिभाषित किया जाता हैं जो बालक की योग्यताओं के अधिकतम विकास के लिए उसे तैयार करें, जबकि हम आज की हमारी शिक्षा व्यवस्था को देखते है तो उसे जीवनुप्योगी शिक्षा नहीं कहा जा सकता हैं.

यह केवल रोजगार प्राप्त करने तक ही हमारी मददगार साबित होती हैं जो जीवन का एक छोटा सा उद्देश्य भर हैं जिसकी पूर्ति आज की शिक्षा कर पा रही हैं.

हम जानते हैं कि जीवन जीने के लिए दुनियाभर की जानकारी की बजाय व्यवहारिक ज्ञान का होना बहुत जरुरी हैं. जो हमारी पुस्तको में नदारद ही प्रतीत होता हैं.

इस लिहाज से आज के शैक्षिक परिदृश्य में बालक को व्यावहारिक जीवन का एक ही सुलभ स्त्रोत उपलब्ध हो पाता हैं वह है माता पिता.

हम बाल्यावस्था से जब हमारी दुनियावी समझ विकसित होने लगती हैं तब से ही अपने पेरेंट्स घर परिवार, दादा दादी आदि से जीवन मूल्यों की व्यावहारिक शिक्षा प्राप्त करते हैं.

यदि हम बदलते हुए दौर के एजुकेशन सिस्टम को देखे तो बच्चें को मशीनी रूप देने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती हैं. भारी भरकम बस्ते के साथ अंग्रेजी मीडियम की स्कूलों में नन्हें नन्हें बच्चों को भेजा जा रहा हैं. उस भाषा का जिसका वातावरण के साथ कोई कनेक्ट नहीं बन पाता हैं बच्चें की रूचि का कोई ध्यान न रखते हुए उस पर थोपी जाती हैं.

शिक्षा का अर्थ हमारे माँ बाप ने नब्बे प्रतिशत तक के मानक स्थापित कर रखे हैं. हमारा बेटा या बेटी हर विषय में प्रथम आना चाहिए बस, इससे कम कुछ भी मंजूर नहीं, यहाँ तक बच्चें का बचपन, उसकी इच्छा कोई मोल नहीं. थका हारा आठ घंटे की स्कूल से घर लौटे तो तुरंत खाना ठूसकर ट्यूशन का प्रबंध पहले से ही कर रखा हैं.

घर आने पर फिर से दोनों जगहों के गृह कार्य और उससे निपटते ही गुड नाईट. यदि बच्चा सोचे भी तो उसके पास कुछ मिनट खाली हो. उसका मन भी होता होगा वह अपने दोस्तों के साथ खेले कूदे, नानी के घर जाए.

मगर हमारे अभिभावकों को ये सब पढ़ाई में रोड़ा जो लगते हैं. इस घनी प्रतियोगिता में मासूम की बलि देने वाले माता- पिता एक बार भी हिचकते नहीं कि हम क्या कर रहे हैं बच्चें के बचपन के साथ.

एक तो दौ सो साल से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था उपर से माता पिता की उच्च प्रत्याशा बच्चों को मानसिक रूप से कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोडती हैं.

कोटा में आई आई टी करने के लिए भेजी गई 17 वर्षीय कीर्ति त्रिपाठी ने आत्महत्या कर ली और सुसाइड नोट पर लिखती हैं आपने बचपन से मुझे साइंस पढने के लिए दवाब डाला क्योंकि ऐसा आपकों पसंद था.

ये उच्च प्रत्याशा और माता पिता द्वारा बच्चों पर शिक्षा के सम्बन्ध में अपने लाडले/ लाडली पर थोपे एक निर्णय का नतीजा था, ये एक केस भर नहीं एक जेहनियत हैं जो आम हो चुकी हैं.

माता- पिता का यह दायित्व/ कर्तव्य हैं कि वे अपने बच्चें की इच्छा को सम्मान दे, उसकी रूचि के अनुसार शिक्षा दिलाएं. उनके निर्णयों का सम्मान करे और कुछ करने के एकाधिक अवसर दे, हमारे बच्चों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं हैं मगर उन्हें अपनी अपेक्षाओं के तले न दबाकर अंकुरित होने दीजिए.

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