मीरा बाई पर निबंध | Essay On Meera Bai In Hindi Language

मीरा बाई पर निबंध/ Essay On Meera Bai In Hindi Language:राजस्थान भक्ति और शक्ति का प्रदेश रहा हैं. यहाँ के भक्त संतों में मीरा बाई का नाम प्रमुख हैं.

मीरा बाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया. उनके द्वारा रचा गया काव्य प्रेम भाव से परिपूर्ण था.

अपने काव्य में उन्होंने महिला जाग्रति की बात कही. भक्त शिरोमणि मीराबाई का जन्म 16 वी सदी में मेवाड़ में हुआ था.

मीरा बाई पर निबंध | Essay On Meera Bai In Hindi

ESSAY ON MEERA BAI IN HINDI LANGUAGE

मीरा के पिता रतनसिंह मेवाड़ के शासक दूदाजी के चौथे पुत्र थे. मीरा बाई अपने पिता की इकलौती बेटी थी. मीरा के दादा दादी भगवान कृष्ण के परम भक्त थे और मीरा बचपन से ही कृष्ण भक्ति के गीत भजन गाया करती थी.

इनका विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के बड़े बेटे भोजराज से हुआ. विवाह के सात साल बाद ही इनके पति का देहांत हो गया और शीघ्र ही इनके ससुर राणा सांगा और रतनसिंह का भी देहांत हो गया.

इसके पश्चात मीराबाई पूर्णरूप कृष्ण भक्ति में डूब गई. वृन्दावन और द्वारिका में इन्होने काफी समय भजन कीर्तन और साधु संगति में बिताया. मीरा वृन्दावन से द्वारिका गई.

द्वारिका में श्रीकृष्ण की भक्ति में रणछोड़जी की मूर्ति के आगे नृत्य करते हुए मीरा बाई ने संसार त्याग दिया. मीराबाई ने अपने भजनों में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम व समर्पण भाव प्रकट किया, जैसा कि निम्न पक्तियों में प्रकट होता हैं-

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई,
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई .

मीरा बाई की काव्य रचनाएं आज भी लोकप्रिय हैं, मीराबाई ने महिला वर्ग के सुधार और जागृति की बात कही. मीरा के लगभग 250 पद हैं, जो उन्हें अमर भक्ति कवयित्री बना देते हैं.

मीराबाई का जन्म कब एवं कहाँ हुआ?

उपलब्ध स्रोतों में मीरा के जन्म के बारे में पर्याप्त मतभेद हैं. राठौड़ राजपूत राजपरिवार में इनका जन्म १५७३ में जोधपुर में चोकड़ी नामक गाँव में बताया जाता हैं.

राजस्थान में प्रचलित अधिकतर किताबें इनका जन्म स्थान 504 विक्रमी में कुड़की जागीर (मेवाड़) में मानते हैं, जबकि ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार दूदाजी को यह जागीर उस समय मिली जब मीरा बाई ११ साल की थी (नोट: कुड़की ग्राम को ही इनका जन्म स्थान माना गया हैं). हिंदी की इस महान कवयित्री का 1627 को द्वारिका गुजरात में निधन हो गया था.

मीरा बाई की जीवनी

मीरा बाई राजस्थान की एक ऐसी कवियित्री है जो अनेक कारणों से प्रसिद्ध रही हैं. उन्होंने अपने जीवनकाल में जो भी लिखा  वह आज विवाद का विषय बना हुआ हैं. मीरां ने क्या लिखा कितनी रचनाएं प्रस्तुत की, इस विषय में विद्वान् एकमत नहीं हैं.

विद्वानों ने जिन रचनाओं को मीरा बाई की रचना स्वीकार किया हैं, उन्हें तीन  भागों में विभाजित किया हैं. पहले भाग में वे रचनाएं आती हैं जो टीका ग्रंथ है दूसरे में प्रबंधात्मक रचनाओं को स्थान प्राप्त हैं. और तीसरे में स्फुट पद या मुक्तक रचनाओं को स्थान प्राप्त हुआ हैं. 

अब विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या ये रचनाएं मीरा द्वारा रचित है या इन्हें मीरा के नाम से जोड़ दिया गया हैं मीरा की जिन रचनाओं की ऊपर जानकारी दी गई हैं उनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैं.

टीका ग्रंथ- टीका ग्रंथ के अंतर्गत गीत गोविंद की टीका उपलब्ध है जिसे मीरा बाई द्वारा रचित माना जाता हैं. उल्लेखनीय बात यह है कि गीत गोविंद की टीका मीरा ने लिखी थी, इसका कोई विश्वसनीय और प्रमाणिक आधार नहीं हैं.

प्रबंधात्मक रचनाएं- मीरा बाई के नाम से जिन प्रबंधात्मक रचनाओं का उल्लेख किया जाता हैं. उनमें पांच रचनाओं के नाम लिए जाते है नरसीजी को मायरो या माहिरो, सतभामानुरूश्न, रुखमणी मंगल, नरसी मेहता नी हुंडी और चरित अर्थात चरित्र.

इन विषयों में विद्वानों में मतभेद है, कुछ इसे मीरां द्वारा रचित मानते है और कुछ इस मत का खंडन करते हैं. अधिकांश विद्वानों के मतानुसार इसे मीरा द्वारा रचित मानना न्याय संगत नहीं हैं.

सतभामानुरूशणू मीरा की रचना नहीं हैं इसका कारण यह है कि यदि भाषा को आधार बनाया जाए तो इसकी भाषा में और मीरा की भाषा में पर्याप्त अंतर हैं. अनेक विद्वानों ने इसी को आधार पर मीरा के बहुत बाद की रचना बताया हैं.

नरसी मेहता नी हुण्डी और रुख्मणि मंगल- ये दो रचनाएं भी मीरा के नाम के साथ जोड़ दी गई हैं. वास्तविकता यह है कि ये भी मीरा द्वारा रचित नहीं हैं. कोई भी पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता हैं जिससे यह सिद्ध हो सके कि ये रचनाएं उनकी है अथवा नहीं.

Essay on Meera Bai In Hindi मीराबाई पर निबंध

जब हम राजस्थान से हिंदी साहित्यकारों के नामों पर नजर डालते हैं. तो एक नाम सबसे ऊपर आता हैं, वो हैं मेड़ता की मीरा बाई का. भगवान कृष्ण की दासी स्वय को मानने वाली मीरा भक्ति काल की कवयित्री हैं.

प्रेम की महत्ता और उसी के बल-बूते पर विराग्य और आराधक श्री कृष्ण की साधक मीरा के भजन आज भी घर-घर गाए जाते हैं.

अपने शुरूआती जीवन में परिवार वालों का विरोध सहने के बाद इन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में गुजार दिया.

संतो के साथ भ्रमण और मन्दिर और मठों में रहने वाली मीराबाई का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान हैं

मीराबाई का जीवन परिचय

हिंदी के कृष्ण भक्त कवियों में मीराबाई का महत्वपूर्ण स्थान हैं. उनके जन्मकाल और जीवन परिचय के बारे में विद्वानों में मतभेद हैं.

परन्तु मुख्यत यह माना जाता हैं. कि मीरा मेड़ता के राव रतनसिंह की पुत्री थी. इनका जन्म 1498 ई में कुड़की के पास हुआ था. राणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ इनका विवाह 1516 इसवी में हुआ था.

कुछ ही वर्षो में भोजराज मुगलों के साथ युद्ध करते हुए, वीरगति को प्राप्त हो गये और मीरा विधवा हो गईं. बचपन से ही मीरा कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम रखती थी. वे उन्हें अपना प्रिय और पति मानती थी. लौकिक प्रेम में उनकी रूचि और निष्ठा नही थी.

भगवान् कृष्ण के प्रेम में दीवानी बनी मीरा ने लोक लाज छोड़कर भक्ति का मार्ग अपनाया. साधू संतो के साथ भक्ति भावना में लीन रहने और उनके साथ उठने बैठने के कारण चितोड़ के राजपरिवार ने उसका विरोध किया. आखिर मीरा राजपरिवार छोड़कर द्वारका चली गईं. वहीं कृष्ण की मूर्ति में विलीन हो गईं.

मीराबाई का काव्य परिचय (Poetic poetry of Mirabai)

मीरा ने विशेषत पदों की रचना की थी. उनके पदों की अनेक टीकाएँ और संकलन बने हैं. उनके चार काव्य ग्रन्थ हैं- 1. नरसी जी का मायरा, 2. गीत गोविंद की टीका, 3. राग गोविंद, 4. राग सोरठ. मीरा के पद राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा में हैं.

कोई चमत्कार दिखाने के लिए उन्होंने कोई काव्य नही रचा. भगवान के प्रति अनन्य अनुराग उनके पदों में सहज रूप से व्यक्त हुआ था.

कवियित्री  मीरा का काव्य माधुर्य भाव जीवंत रूप हैं, वे कृष्ण को ही अपना पति मानकर उपासना करती थी. उनके लिए इस संसार में कृष्ण के अलावा किसी पुरुष का अस्तित्व नही था. कृष्ण के विरह में वे व्याकुल रहती थी.

यही व्याकुलता उनके काव्य में दिखाई देती हैं. श्रगार के विप्रलभ पक्ष का चित्रण बहुत मार्मिक हैं. उनकी स्वानुभूति ने अभिव्यक्ति को अत्यधिक अनुपम बना दिया हैं. मीरा में पदों में प्रसाद और माधुर्य गुणों की प्रचुरता हैं.

पदों में श्रुतिमधुर वर्णयोजना सीधी-सादी उक्तियाँ और सच्चा आत्मनिवेदन उनके काव्य की ऐसी विशेषता हैं जो मीरा को प्रथम कोटि के भक्त कवियों में निसंदेह स्थान प्रदान करती हैं.

मीराबाई के पद (Meerabai ke Pad)

मीरा बाई के अधिकतर पदों में कृष्ण भक्ति व्यक्त होती हैं. वे अपने आपकों कृष्ण की दासी, प्रियतमा, भक्त एवं उपासिका के रूप में मानती हैं. संसार को नश्वर मानकर कृष्ण को परमात्मा के रूप में भजने से ही जीव का कल्याण हो सकता हैं.

जब तक प्रिय से भेट नही होती, जीव व्यतीत रहता हैं. चैन नही पड़ती. सद्गुरु की कृपा से भवसागर पार किया जा सकता हैं. वे कृष्ण की निर्गुण,सगुण, प्रिय जोगी आदि अनेक सम्बोधनों से बुलाती हैं. यही कृष्ण के प्रति अनन्यता प्रकट होती हैं.

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