भगवान श्री राम का जीवन परिचय | Bhagwan Ram Biography In Hindi भारत एक ऐसा देश है जहां हजारों सालों से लगभग तैतीस करोड़ देवी देवताओं को पूजा जाता है।
सभी देवताओं को हर हिंदू पूरे मान और श्रद्धा के साथ पूजता है। इसी वजह से पूरे हिंदुस्तान में आप कई सारे तीर्थ स्थल पाएंगे। इंसानों को मुक्ति देने के लिए ही भीष्म पितामह जी ने देवी गंगा को नदी के रूप में भगवान शिव को जताओ से होते हुए, धरती पर उतारा।
भगवान श्री राम का जीवन परिचय | Bhagwan Ram Biography In Hindi
देवी गंगा में इतना वेग था, कि उनको ऐसे ही धरती पर उतारा जाता तो धरती के फट जाने की संभावना थी। देवी गंगा के नदी रूप के द्वारा ही आज मनुष्य अपनी मुक्ति को प्राप्त कर पाता है। हमारे देश में सभी चीजों को ईश्वर से जोड़कर बताया जाता है, उसी वजह से हम उन सभी चीजों की इज्जत करना सीखते है।
इसी के साथ ही इंसान यदि गंगा नदी में स्नान कर ले तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। भगवानों में पूज्य मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाने वाले भगवान श्री राम भी है।
तो आज के इस लेख में हम मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी के बारे में संपूर्ण जानकारी पाएंगे इसलिए इस आर्टिकल को अं#त तक ध्यानपूर्वक जरूर पढ़े।
भगवान श्री राम का जन्म
जब रावण के अत्याचारों से पृथ्वी पर पाप बहुत अधिक बढ़ गया था, तब ब्रह्मा, इंद्रदेव और ऋषि-मुनियों तक सभी भगवान विष्णु के समक्ष पधारे,
सभी ने प्रार्थना की कि, हे प्रभु पृथ्वी पर सत्य और धर्म का नाश हो रहा है, पाप बढ़ रहा है, राक्षसों का राजा रावण अपने अहम और अत्याचारों से तीनों लोकों को अपने पांव तले रौंद देना चाहता है।
हे प्रभु, देव, दानव, मनुष्य आदि कोई भी उस राक्षस का सामना कर के विजय नही पा पा रहा है क्योंकि महादेव और ब्रह्मा से उसे वरदान प्राप्त है कि देव, दानव, नाग, किन्नर, गंधर कोई भी उसके जीवन का अंत नही कर सकता, कृपया आप हम सबकी रक्षा करें।
तब भगवान महादेव भी वहां पधारे और उन्होंने कहा, जब ऐसी स्थिति हो तब किसी महाशक्ति का अवतार लेना आवश्यक हो जाता है। उसी समय भगवान विष्णु ने कहा कि पापी के पाप में ही उसका सर्वनाश छुपा होता है।
यदि रावण यह समझता है कि इस पूरे ब्रह्मांड में उससे बढ़ कर कोई शक्ति नहीं रही, तो उसका विनाश भी उसके इसी अहंकार में छुपा हुआ है, अपने अहंकार के कारण उसने वरदान मांगते वक्त वानर और मनुष्य के हाथों न मारने का वरदान नहीं मांगा था।
जिस मानव को वह तुच्छ समझता है, उसी सामान्य मानव के रूप में मैं अवतार ले कर उसका अहंकार चूर चूर करूंगा, भगवान विष्णु ने कहा कि मैं अपनी कलाओं सहित अयोध्या नरेश श्री दशरथ के पुत्र के रूप में एक सामान्य मानव की तरह ही जन्म लूंगा, और पृथ्वी की रक्षा करूंगा।
जिससे धर्म और सत्य पालकों को यह विश्वास हो की अंत में सत्य की ही विजय होती है और पूरी श्रृष्टि में केवल सत्यमेव जयते ही गूंजेगा। तो एक बार की बात है राजा दशरथ और महर्षि वशिष्ट उनके महल में सूर्य देव की स्तुति कर रहे थे।
महर्षि ने कहा राजन आज सूर्य देव उत्तरायण में प्रवेश कर रहे हैं, इसलिए आज का दिन बहुत शुभ है। इस मुहूर्त में आप अपने कुल देव से जिस भी चीज की प्रार्थना करेंगे, वो आपको अवश्य ही मिल जायेगी। तब राजा दशरथ ने अपने कुल गुरु से एक पुत्र की मांग की।
तब महर्षि ने कहा आपको वरदान स्वरूप पुत्र की प्राप्ति जरूर होगी, परंतु आपको उसके लिए एक यज्ञ का आयोजन करना होगा और यह यज्ञ अथर्व वेद के ज्ञाता ऋषि श्रृंग मुनी जो की इस यज्ञ के विशेषज्ञ हैं, उनके द्वारा ही संपन्न होना चाहिए।
तब राजा दषरथ ने कहा मैं ऋषी श्रृंग जैसे महान ऋषि-मुनि से प्रार्थना करने स्वयं भिक्षु के भांति नंगे पांव जाऊंगा। ऋषि श्रृंग अयोध्या नरेश राजा दशरथ के इस समर्पण भाव देख कर प्रसन्न हो उठे और यज्ञ करने के लिए मंजूरी दे दी।
यज्ञ के समय कुंड से अग्नि देव प्रकट हुए और खीर से भरा एक पात्र राजा दषरथ को प्रदान किया। इस खीर को रानी कौशल्या, रानी कैकई, रानी सुमित्रा तीनों रानियों ने ग्रहण किया और तीनों रानियां गर्भवती हुईं।
उधर ब्रह्मा जी ने भगवान इंद्र को आदेश दिया की भगवान विष्णु ने धरती पर अवतार लेने का संकल्प ले लिया है, आप सभी देवी देवताओं को पृथ्वी पर वानर रूप में जन्म लेकर प्रभू की सेवा करने का आदेश दिया जाता है।
मधु मास के शुक्ल पक्ष की नवमी, यह दिन भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है। इसी शुभ मुहूर्त पर जब न तो ज्यादा ठंड थी न तो ज्यादा गर्मी में राजा दशरथ जी की रानी कौशल्या ने पुत्र को जन्म दिया। चारों ओर बधाई और आनंद का माहौल था।
कुछ समय पश्चात ही मंथरा जी ने राजा दशरथ को सूचना दी कि रानी कैकई ने पुत्र को जन्म दिया है। उसके ही कुछ देर पश्चात दो दासियों ने महाराज को सूचना दी की महारानी सुमित्रा ने भी दो पुत्रों को जन्म दिया है।
महाराज की प्रसन्नता का ठिकाना न था और इस प्रकार राजा दशरथ जी के चार पुत्र – राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जी का जन्म हुआ। चारो राजकुमारों का नाम-करण महर्षि वशिष्ठ जी के द्वारा किया गया, नामकरण के पश्चात ही महर्षि वशिष्ठ जी ने एक भविष्य वाणी भी की।
वह भविष्य वाणी यह थी कि चारों भाइयों में अत्यधिक प्रेम होगा परंतु राम-लक्ष्मण और भरत-शत्रुघ्न की जोड़ी दो शरीर एक प्राण जैसी होगी और कुछ इस प्रकार भगवान श्री राम ने इस संसार में एक सामान्य मानव के रूप में जन्म लिया।
भगवान श्री राम की बाल लीलाएं
भगवान श्री राम की बाल लीलाओं के बारे में हम सोलहवीं सदी के सबसे महान कवि रहे, तुलसी दास जी के गद्य में किए गए वर्णन में पाते है।
क्योंकि तुलसी दास जी ने भगवान श्री राम जी के ऊपर ही अपनी ज्यादातर रचनाएं को बनाया है, तुलसी दास जी राम भक्ति शाखा के शिरोमणि कवि थे।
भगवान श्री राम के बालपन को हम समझेंगे जब एक बार अवध नरेश राजा दशरथ अपने तीनों रानियों के साथ बैठे हुए थे, और उनके चारो पुत्र अपनी अपनी क्रीड़ा में लगे हुए थे और राजा सहित सभी रानियां उन्हे देख देख कर प्रसन्न हो रहे थे इस दौरान
- भगवान श्री राम अपने माता पिता से कभी तो चंद्रमा से खेलने की जिद्द किया करते थे, और कभी अपनी ही परछाई से डर जाया करते थे।
- कभी घर के आंगन में ताली बजा बजा कर नृत्य किया करते थे। जिसको देख कर उनकी तीनों माताएं बहुत प्रसन्न हो जाया करती थी, और कभी कभी अपने पसंद की वस्तु न मिलने पर गुस्सा जाया करते थे।
प्रभु श्री राम के बाल अवतार की सुंदरता का वर्णन करते हुए तुलसी दास जी कहते हैं, जैसे रातों में बादलों के बीच में से एकदम सफेद बिजली चमकती है, वैसे ही श्री राम के मुख खोलने पर दातों की कांति दिखाई देती है।
तुलसी दास जी बताते है बचपन में उनकी बड़े बड़े और घुंघराले बाल थे और उन घुंघराले बालों की लट उनके गालों को चूमा करती थी। उनके मुख पर आंखें ऐसी लग रही हैं जैसे भौंरे कमल से पराग रस पी रहे हों।
श्री राम और उनके चारों भाइयों के पैरो में नुपुर यानी घुंघरू बंधे हुए है, और वे सब एक दूसरे के पीछे पीछे भाग रहे हैं। प्रभू श्री राम के हाथ में आभूषण और गले में मोतियों की माला पड़ी हुई है और उनके शरीर पर पीले रंग के वस्त्र पड़े हुए है यह रूप उनका बहुत ही मनमोहक लग रहे हैं।
इस प्रकार से कवि तुलसी दास जी ने भगवान श्री राम के बाल जीवन के एक किस्से के जरिए उनके बालपन को बताया है।
प्रभू श्री राम को 14 वर्ष का वनवास
हम सब को पता है की भगवान श्री राम को 14 वर्षो का वनवास दिलवाने के पीछे पूरा हाथ उनकी माता कैकई का था। तो यह जानने से पहले कि माता कैकेई ने भगवान श्री राम का ही वनवास क्यों मांगा, कुछ बातें माता कैकेई के बारे में जान और समझ लेते हैं।
माता कैकेई का जन्म, राजा अश्वपति की पुत्री के रूप में काया कैकैया नाम के राज्य में हुआ था। इनके पिता ने इनको बचपन में ही अपने महल से बाहर निकलवा दिया था, जिस कारण कैकेई ने अपने बचपन का जीवन अपनी मां के बिना ही बिताया।
जब की उसी समय एक मंथरा नाम की दासी कैकेई की देख देख किया करती थी। मगर मंथरा दिमाग से बहुत ही ज्यादा शातिर किस्म की महिला थी वो हर वक्त कोई न कोई उल्टी सीधी योजनाएं बनाती रहा करती थी।
एक बार जब अयोध्या नरेश राजा दषरथ ने कैकैया के राजा अश्वपती को निमंत्रण भेजा और वो जब महल में पधारे तो उनका बहुत ही भव्य स्वागत किया गया और उनके आव-भगत में रानी कैकेई खुद भी काम किया करती थी।
रानी कैकेई को देख अयोध्या नरेश राजा दशरथ बहुत ही ज्यादा प्रभावित हुए और उनके सामने उन्होने अपने साथ शादी करने का प्रस्ताव रखा। तब राजा अश्वपती ने राजा दशरथ की पहले से ही शादी होने की वजह से मना कर दिया, लेकिन फिर उन्होंने राजा दशरथ से एक वचन लिया और फिर शादी के लिए मंजूरी दे दी।
राजा अश्वपती ने जो वचन लिया वो यह था की, कैकेई का पुत्र ही अयोध्या के राजपाठ का उत्तराधिकारी बनेगा। उस समय रानी कौशल्या की भी कोई संतान नहीं थी इसलिए राजा दषरथ ने भी वचन दे दिया।
लेकिन जब कैकेई की भी कोई संतान नहीं हुई तो फिर राजा दशरथ की शादी रानी सुमित्रा से हुई, लेकिन दुर्भाग्यवश राजा दशरथ की तीसरी रानी सुमित्रा को भी कोई संतान प्राप्त नहीं हुई।
तीनों रानियों से पुत्र प्राप्त न हो पाने के बाद राजा दशरथ अब बहुत ही दुखी रहा करते थे और पुत्र प्राप्ति के लिए एक यज्ञ करवाने के बाद उनकी रानी कौशल्या से सबसे बड़े बेटे भगवान श्री राम का जन्म हुआ, दूसरी रानी कैकई से भरत ने जन्म लिया और तीसरी रानी कौशल्या से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ।
राजा दशरथ को रानी कैकेई तीनों रानियों में सबसे अधिक प्रिय थी और वे सुंदर होने के साथ ही साथ युद्ध में भी बहुत ही कुशल थी, और राजा दशरथ को युद्ध में हमेशा मदद किया करती थी। एक बार की बात है जब राजा दशरथ ने समरासुर नाम के राक्षस से लड़ाई कर के इंद्र देव की मदद की थी।
उस युद्ध में रानी कैकेई भी शामिल थीं, और उन्होंने अपने युद्ध कौशल से राजा दशरथ के प्राणों की रक्षा भी की थी। तब कैकेई से प्रसन्न हो कर उन्होंने दो मन चाहे वरदान मांगने को कहा लेकिन उस वक्त रानी कैकेई के पास मांगने के लिए कुछ भी नही था, तो कैकेई ने कहा जब कभी भी अगर मुझे जरूरत होगी तो मैं आपसे भविष्य में कभी भी दो वरदान मांग लूंगी।
अयोध्या नरेश राजा दशरथ के सबसे बड़े बेटे भगवान श्री राम सबसे अधिक प्रिय थे और कैकेई भी प्रभु श्री राम को ही बचपन से ही बहुत ज्यादा प्रेम करती थीं और भगवान श्री राम भी सभी माताओं की आज्ञा का पालन किया करते थे।
आगे चलकर प्रभु श्री राम की मिथिला की राजकुमारी सीता जी से शादी हो गई। उसके बाद एक बार कैकेई के पिता की सेहत बहुत ही खराब हो गई थी और वो अपने पिता से मिलने कैकैया राज्य में पधारी। तब कैकई के पिता अश्वपति ने भरत से मिलने की इक्षा जताई।
उसी वक्त अयोध्या नरेश दशरथ ने अपने सबसे बड़े पुत्र भगवान श्री राम को अयोध्या का उत्तराधिकारी बनाने का फैसला किया था और रानी कैकई सहित सभी इस फैसले से बहुत अधिक प्रसन्न थे। लेकिन कैकेई की शातिर दिमाग वाली दासी मंथरा इस फैसले के खिलाफ थीं और यहीं से उसने रानी कैकेई के मन में फूट डालना शुरू कर दिया।
उसने रानी कैकेई से कहा कि राजा दशरथ ने तुम्हारे पिता को वचन दिया था कि कैकेई का पुत्र ही अयोध्या का उत्तराधिकारी बनेगा। लेकिन अब राजा दशरथ अपने दिए हुए वचन से पीछे हट रहे हैं, यह बात सुन कर रानी कैकेई मंथरा पर बहुत ही क्रोधित हुईं।
दासी मंथरा ने फिर से कहा रानी आप राजा दशरथ को समझ नही पा रही हैं और वो आपके भोलेपन का लाभ उठा रहे हैं और दिन प्रतिदिन दासी मंथरा की भड़काऊ बातें सुन सुन कर, उसके भड़कावे में आने लगीं और इसके बाद रानी कैकेई ने मंथरा से पूछा तो अब मुझे आगे क्या करना चाहिए?
तब मंथरा ने रानी कैकेई को अपने उन दो वचन के बारे में याद दिलाया, जो उन्हों ने राजा दशरथ से प्राप्त किए थे और यहीं से रानी कैकेई को अपना आगे का रास्ता मिल गया। रानी कैकेई ने अपने वचन को पूरा करवाने के लिए अन्न जल सब कुछ का त्याग कर दिया और कोप भवन में जा कर बैठ गईं।
वहीं दूसरी ओर भगवान श्री राम के राज्याभिषेक की तैयारियां हो रहीं थी। राजा दशरथ बहुत खुश थे और वो अपने इस खुशी के पल को अपनी प्रिय रानी कैकेई के साथ बांटना चाहते थे। राजा ने जब रानी कैकेई को इस अवस्था में देख कर इसका कारण पूछा।
तो रानी कैकेई ने भी इसका कोई उत्तर नही दिया और राम के राज्याभिषेक के बारे में बताने पर भी रानी कुछ नहीं बोली। राजा दशरथ के दोबारा पूछने पर कैकेई ने कहा की आपने विवाह से पहले मेरे पुत्र को उत्तराधिकारी बनाने का वचन दिया था और अब आप अपने वचन को भूल कर श्री राम को उत्तराधिकारी बनाने जा रहे हैं।
कैकेई की यह बात सुन कर राजा दशरथ को पहले तो विश्वास नही हुआ और राजा अपने फैसले पर अडिग रहे। तब रानी ने उन दो वरदानों की बात को याद दिलाया, अब राजा दशरथ भी पीछे नहीं हट सकते थे इसलिए रानी कैकेई ने पहला वर अपने पुत्र भरत के राज्याभिषेक के रूप में मांगा।
इसके बाद दूसरे वरदान में भगवान श्री राम को 14 साल का वनवास मांगा, रानी के दोनो ही वरदान को सुन कर राजा दशरथ बहुत ही दुखी हुए और अचंभे में चले गए। राजा के स्वीकृति नहीं देने पर रानी ने रघुकुल की उस महान नीति के बारे में याद दिलाया जो कहती है “रघुकुल रीत सदा चली आए, प्राण जाए पर वचन न जाए”।
फिर क्या था राजा दशरथ ने न चाहते हुए भी दिल पर पत्थर रख कर वचन का पालन किया। माता पिता के दिए हुए आदेशों पर चलने वाले मर्यादा पुरषोत्तम श्री राम बिना कोई प्रश्न किए वनवास जाने के लिए तैयार हो गए।
राजा दशरथ को अपने सभी पुत्रों में राम सर्वाधिक प्रिय थे और वे श्री राम को रोकना चाहते थे। परंतु उनके वचनों का पालन करते हुए भगवान श्री राम वनवास के लिए चले गए, अपने प्रिय पुत्र राम के जाने के दुख में कुछ समय बाद राजा दषरथ का निधन हो गया।
जब यह सब भरत को मालूम पड़ा, उस वक्त वो अपने ननिहाल गांव में थे, और वे वापस आकर अपनी मां पर बहुत क्रोधित हुए क्योंकि भरत भी अपने बड़े भाई श्री राम को बहुत प्रेम करते थे। उन्होंने अपने मंत्रियों को प्रभु श्री राम को ढूंढ कर अयोध्या वापस लाने का आदेश दिया।
भरत ने अपनी मां के ऐसे काम के कारण उन्हे त्याग दिया था और अपने पुत्र द्वारा सुनाई गई बातों से रानी कैकेई को अपनी गलती का अहसास हुआ। उसी बीच भरत को श्री राम जी के चित्रकूट में होने की सूचना मिली, तो भरत ने चित्रकूट जाकर श्री राम को पिता के निधन के बारे में बताया।
यह सुन कर राम बहुत दुखी हुए, रानी कैकेई ने भी पश्चाताप करते हुए श्री राम से क्षमा मांगी और वापस अयोध्या चलने के लिए कहा, लेकिन श्री राम ने अपने पिता के वचनों का पालन करते हुए अयोध्या वापस जाने से मना कर दिया और वन में ही भ्रमण करते रहे।
दूसरी ओर भरत ने कभी भी अयोध्या का राज सिंहासन ग्रहण नही किया, लेकिन अपने भाई श्री राम जी के चरण पादुकाओं को सिंहासन पर रख कर उनको ही उत्तराधिकारी माना।
श्री राम और रावण युद्ध
मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम और रावण के बीच लड़ा गया अंतिम युद्ध, हिंदू महाकाव्यों के अनुसार सबसे बड़ा और प्रलयकारी युद्ध था, यह युद्ध सात दिनों तक निरंतर चला । जिसमे दोनो योद्धाओं को एक क्षण की भी राहत नहीं मिली थी।
भगवान श्री राम का जन्म विशेष रूप से रावण का वध करने के लिए ही हुआ था। युद्ध प्रारंभ होने पर शुरुआत में प्रभु श्री राम बिना किसी रथ के ही रावण के साथ लड़ रहे थे। यह देख देवराज इंद्र ने अपने सारथी मताली को रथ सहित श्री राम की सेवा में भेजा।
रथ के साथ इंद्रदेव ने एक बड़ा दिव्य धनुष और बाण, एक कवच और एक शक्तिशाली भाला भी भेजा। भगवान श्री राम उस रथ पर सवार हो गए और तब दोनो के बीच में महा भयानक युद्ध शुरू हो गया, जिसे देखने वालो के रौंगटे खड़े तक खड़े हो गए।
रावण द्वारा चलाए गए गंधर्व अस्त्र को गंधर्व अस्त्र से, दैव्य अस्त्र को दैव्य अस्त्र से प्रभु श्री राम ने काट डाला। इससे क्रोधित हो कर रावण ने भयंकर राक्षस अस्त्र श्री राम पर चला दिया। जिससे जो भी बाण निकले वो विषधर सर्पों में बदल जाया करते और वो सभी मुख से आग उगलते हुए श्री राम पर बरस रहे थे।
जिसकी काट के लिए श्री राम ने सर्पों को भयभीत करने वाले अस्त्र गरुड़ अस्त्र का प्रयोग किया और उसने उन सभी सर्पों को भस्म कर दिया। अपने शस्त्रों को विफल होता देख रावण ने एक बार में 1000 बाण चला कर श्री राम, उनके सारथी मिताली और उनके घोड़ों को घायल कर दिया, समर भूमि में ऐसे रावण द्वारा खदेड़े जाने पर श्री राम छितिल पड़ गए।
उनसे बाण पर धनुष भी न रखा गया, परंतु कुछ देर में श्री राम क्रोधित हो उठे। उनकी आंखें क्रोध से लाल हो गई। जिसे देख रावण भी भयभीत हो उठा। इसी बीच रावण ने श्री राम का वध करने के लिए एक विशाल गदा उठाई और जोर जोर से कठोर वचन श्री राम से कहने लगा।
फिर उस अस्त्र को उसने श्री राम की तरफ फेंका और वह गदा बहुत तेज़ी से प्रज्वलित होकर श्री राम की तरफ आने लगा। उसको नष्ट करने के लिए श्री राम ने कई दिव्य बाण उसकी तरफ चलाए परंतु वो सभी बाण भस्म होते चले गए।
यह देख श्री राम क्रोधित हो उठे और उन्होंने मताली द्वारा लाया गया भाला रावण के अस्त्र की ओर चला दिया। उस भाले के शक्तिशाली प्रहार से रावण का गदा चूर चूर हो गया। इसके तुरंत बाद श्री राम ने रावण के रथ के घोड़ों को भेद डाला और अपने बाणों से रावण की छाती को भी भीन डाला।
तीन बाण उसके माथे पर चला कर उसे लहू लुहान कर डाला। ऐसी हालत में खुद को देख कर रावण दुखी हुआ और वह क्रोध से अपना धनुष उठा श्री राम की ओर दौड़ा और उसने एक बार में ही हजारों बाण श्री राम की ओर चला दिए इन बाणों ने श्री राम की छाती को भीन डाला और श्री राम का शरीर रक्त से भर गया।
तब श्री राम ने रावण से कुछ कठोर वचन कहे। श्री राम ने बोला, तुम कोई शूरवीर नही हो, एक विवश स्त्री को हरने वाला एक कायर ही हो सकता है। क्योंकि पराई स्त्री पर हांथ डालने वाला बहादुर नही, कायर होता है।
अपने अभिमान में चूर हो कर तुमने जो कार्य किए है, उसका फल तुम्हे बहुत बड़ा मिलेगा। ऐसा कार्य तुम मेरी उपस्थिति में मेरे सामने करते, तो उसी वक्त मेरे हाथों तुम्हारा वध सुनिश्चित हो जाता। परंतु आज तुम सौभाग्य वश मेरे सामने हो और आज तुम मेरे हाथों मारे जाओगे।
ऐसा कहते ही प्रभु श्री राम ने रावण पर जैसे बाणों की झड़ी सी लगा दी। श्री राम जी का ऐसा पराक्रम देख कर रावण घबरा गया और वो बाणों का जवाब देने में भी असमर्थ हो गया। तब रावण के रथ को चलाने वाले सारथी बड़ी सावधानी से रथ को समर भूमि से बाहर लेकर आ गया।
ऐसा करने पर रावण क्रोधित हो कर बोला तूने मुझे निर्बल, डरपोक समझा है। मेरा अनादर कर मेरा अभिप्राय जाने बगैर ही शत्रु के सामने से मेरा रथ तू क्यों हटा लाया? अरे नीच तूने मेरा वर्षो का कमाया हुआ यश, तेज, पराक्रम और विश्वास सबकुछ नष्ट कर डाला। तू नही जानता रावण कभी किसी को पीठ नही दिखाता।
दूसरी तरफ अगस्त्य ऋषि श्री राम के पास आए और उन्हों ने रावण पर विजय पाने के लिए सूर्य देव का अति शक्तिशाली मंत्र आदित्यहृदय का पाठ करने को कहा, वह बोले अगर तीन बार तुम आदित्यहृदय का पाठ कर लोगे तो युद्ध में निश्चय ही तुम्हारी विजय होगी।
इसके बाद दोनों योद्धाओं के सारथी एक दूसरे को पुनः आमने सामने ले आए और दोनो में फिर से युद्ध प्रारंभ हो गया, इस युद्ध को देखने के लिए कई देवता, गंधर्व, सिद्ध, ऋषि मुनि जो रावण का नाश देखना चाहते थे, वे सब वहां पधारे।
प्रभु श्री राम ने अत्यंत क्रोध में सर्पाकार बाण अपने धनुष पर से छोड़ा, उस बाण के लगने से रावण का शीष कट कर धरती पर गिर गया और देखते ही देखते ठीक उसी कटे हुए सिर की तरह एक नया सिर रावण के कंधो पर आ गया।
श्री राम ने उसे भी काट डाला। फिर वैसे ही नया सिर निकल आया देखते ही देखते श्री राम ने अपने बाणों से रावण के 100 सिर काट डाले, किंतु रावण के सिरों का न तो कोई अंत हुआ न ही वो मरा, तब श्री राम सोच में पड़ गए की इन्ही बाणों से मैने न जाने कितने राक्षसों का वध कर डाला फिर रावण के ऊपर ये क्यों असफल हो जा रहे हैं।
तब मताली ने श्री राम से कहा आप इस राक्षस के ऊपर देवताओं का दिया हुआ ब्रह्मास्त्र छोड़िए। इसके साथ ही रावण के भाई श्री विभीषण जी, जोकि श्री राम की तरफ आ गए थे। उन्होंने बताया कि रावण को ऐसे नहीं मारा जा सकता, रावण को मारने के लिए आपको उसको नाभी पर वार करना होगा।
मताली के कहे अनुसार श्री राम ने एक बाण निकाला, जो उन्हे पूर्व काल में ऋषि अगस्त्य ने दिया था और अगस्त जी को वह अस्त्र ब्रह्मा से मिला था। यह महाशक्तिशाली बाण युद्ध में कभी निरस्त जाने वाला नहीं था।
श्री राम में उस बाण को वेदों की विधि से जो की ब्रह्मास्त्र के मंत्र के ही समान थी, मंत्रित कर धनुष पर चढ़ाया। फिर श्री राम ने वो बाण रावण की ओर चला दिया और वह बाण सीधा रावण की नाभी पर जा लगा।उस बाण ने रावण की नाभी को चीर डाला।
रक्त से सना हुआ वह बाण रावण का वध कर अपना काम पूर्ण कर पुनः श्री राम के तरकश में घुस गया। रावण के हाथो से पहले उसका बाण छूट कर निचे गिर गया और फिर राक्षस राजा रावण प्राण रहित हो कर बड़ी तेज़ी से पृथ्वी पर गिर पड़ा। इस प्रकार प्रभु श्री राम ने राक्षस रावण पर विजय पाई।
भगवान राम का पत्नी को त्यागना
मर्यादा पुरषोत्तम अयोध्या नरेश भगवान श्री राम ने पृथ्वी पर दस हजार से भी ज्यादा वर्षों तक राज किया है। अपने इस लंबे शासन काल में भगवान श्री राम ने ऐसे कई महान कार्य किए हैं, जिन्होंने हिंदू धर्म को एक गौरवमई इतिहास प्रदान किया है। फिर कैसे आखिर भगवान राम इस दुनिया से विलुप्त हो गए, क्या कारण रहा होगा जो उन्हें अपने प्रिय परिवार को छोड़ विष्णु लोक वापस जाना पड़ा।
पद्म पुराण में दर्ज शास्त्रों के दौरान एक बार एक वृद्ध संत भगवान श्री राम जी के दरबार में पधारे और उनसे अकेले में चर्चा करने का निवेदन करने लगे। उस संत की पुकार सुन कर प्रभु राम उन्हे एक कक्ष में ले गए।
उस कक्ष के द्वार पर उन्होंने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को खड़ा किया और कहा यदि उनके और उस संत के बीच हो रही चर्चा को किसी ने भंग करने की कोशिश करी, तो उस व्यक्ति को वे स्वयं मृत्यु दण्ड देंगे। लक्ष्मण ने अपने ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा का पालन करते हुए दोनों को उस कमरे में एकांत में छोड़ दिया और खुद बाहर पहरा देने लगे।
वह वृद्ध संत कोई और नहीं बल्कि विष्णु लोक से भेजे गए काल देव थे। जिन्हे प्रभु राम को यह बताने के लिए भेजा गया था कि अब उनका धरती पर जीवन पूरा हो चुका है। अब उन्हें अपने लोक वापस लौटना होगा।
अचानक द्वार पर ऋषि दुर्वासा आ गए, उन्होंने प्रभु श्री राम से बात करने के लिए कक्ष के भीतर जाने के लिए लक्ष्मण से निवेदन किया। लेकिन श्री राम की आज्ञा का पालन करते हुए लक्ष्मण ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया, ऋषि दुर्वासा हमेशा से ही अपने अत्यंत क्रोध के लिए जाने जाते हैं, जिसका खामियाजा हर किसी को भुगतना पड़ता है।
लक्ष्मण के बार बार मना करने के बाद भी ऋषि दुर्वासा अपनी बात से पीछे न हटे और अंत में ऋषि दुर्वासा ने श्री राम को श्राप देने की चेतावनी दे दी, अब तो लक्ष्मण की चिंता और भी अधिक हो गई। वो समझ नही पा रहे थे की आखिरकर वो अपने भाई की आज्ञा का पालन करें या फिर उन्हें श्राप मिलने से बचाएं, फिर लक्ष्मण ने एक कठोर फैसला लिया।
लक्ष्मण कभी नही चाहते थे की उनके कारण उनके भाई को किसी भी प्रकार की हानि हो। इसलिए उन्होंने अपनी स्वयं की बली देने का फैसला किया, उन्हों ने सोचा की यदि वो ऋषि दुर्वासा को अंदर नही जाने देते हैं, तो उन्हें ऋषि दुर्वासा के श्राप का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अगर वह स्वयं अंदर जा कर श्री राम के आज्ञा के विरुद्ध जायेंगे तो उन्हें मृत्यु दण्ड भुगतना पड़ेगा।
यही लक्ष्मण ने सही समझा वे आगे बढ़े और कमरे के भीतर चले गए लक्ष्मण को चर्चा में बाधा डालते देख प्रभु श्री राम ही संकट में पड़ गए। अब वो एक तरफ अपने फैसले से मजबूर थे और दूसरी तरफ छोटे भाई के प्यार से असहाय थे। उस समय श्री राम ने अपने भाई लक्ष्मण को मृत्यु दण्ड देने के स्थान में राज्य एवं देश से बाहर निकल जाने को कहा।
उस युग में देश निकाला मिलना मृत्यु दण्ड के बराबर ही माना जाता था। लेकिन लक्ष्मण तो अपने भाई श्री राम के बिना एक क्षण भी नही रहते थे, उन्होंने इस दुनिया को ही छोड़ देने का निर्णय लिया। वे सरयू नदी के पास गए और नदी के भीतर जाते ही, वे अनंत शेष नाग के अवतार में बदल गए और विष्णु लोक चले गए।
अपने भाई के चले जाने से श्री राम काफी उदास हो गए। उन्होंने कहा जिस तरह राम के बिना लक्ष्मण नही, ठीक उसी तरह लक्ष्मण के बिना राम को जीना भी मंजूर नहीं और उन्होंने भी इस लोक से चले जाने का विचार बनाया। तब प्रभु राम ने अपना राज्य पाठ अपने पुत्र के साथ अपने भाइयों के पुत्रों को सौप दिया और सरयू नदी की ओर चल दिए।
वहां जाकर श्री राम सरयू नदी के एकदम अंदर वाले हिस्से तक चले गए और अचानक गायब हो गए। फिर कुछ देर बाद नदी के भीतर से भगवान विष्णु प्रकट हुए और उन्हों ने अपने भक्तो को दर्शन दिए। इस प्रकार से श्री राम ने अपना मानवीय रूप त्याग कर अपने वास्तविक स्वरूप विष्णु का रूप धारण किया और वैकुंट धाम की ओर प्रस्थान किया।
श्री राम को मर्यादा पुरषोत्तम क्यों कहते है?
भगवान श्री राम ने त्रेता युग में एक सामान्य मानव के रूप में जन्म लिया और उन्होंने एक आम मानव होते हुए भी ऐसे ऐसे कर्म किए की आज पूरा विश्व उन्हें मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम के नाम से जानता और पूजता है। आइए देखते है श्री राम के चरित्र में ऐसी कौन से खूबियां थी जिन्होंने उन्हें मर्यादा पुरषोत्तम बना डाला।
- भगवान श्री राम चार भाई थे और श्री राम उन सब में सबसे जेष्ठ भ्राता थे। मगर ज्येष्ठ भ्राता होने के बावजूद कभी उन्होंने अपने बाकी भाइयों पर किसी भी तरह का दबाव बनाने की कोशिश नही करी और पूरा जीवन अपने सभी भाइयों को प्रेम से पूजा और प्रेम और धर्म की राह पर ही चलना सिखाया।
- मानव जीवन में अवतार लेने के बाद भगवान श्री राम अपने बचपन में गुरुकुल गए और गुरुकुल में एक अच्छे शिष्य की तरह उन्होंने अपने कर्तव्यों को निभाया और सभी विद्या जैसे की धनुर्विद्या, शास्त्र विद्या, शस्त्र विद्या को पूरी ईमानदारी से एक आदर्श विद्यार्थी की भांति ग्रहण किया।
- इसके बाद सबसे महत्व्यपूर्ण एक ज्येष्ठ पुत्र का धर्म उन्होंने बिना किसी कपट के निभाया। वे केवल पिता के वचन का मान रखने के लिए अपने धन, धान, शानो-सौकत से भरा अपना जीवन जिसमे उनको देश के राजा की गद्दी मिलने ही वाली थी, बिना एक भी बार सोचे त्याग दिया। जिस दौरान उन्होंने अपने माता पिता दोनों की ही आज्ञा का पालन किया और राजा होने के बावजूद भिक्षु जैसा जीवन जीवन बिताया, योगी के भांति शिक्षा ग्रहण करी, ऋषियों से मिले, शास्त्रों की जो बची हुई शिक्षा थी उसे भी ग्रहण किया।
- आगे बढ़ने पर जब वो एक बार शबरी जी के आश्रम में गए, तो शबरी के जूठे बैर खाकर यह उदाहरण दिया कि हमे कभी किसी के साथ ऊंच नीच का भाव नही रखना चाहिए। जबकि उस वक्त निम्न जाती के लोगो के साथ छुवा छूत वाला व्यवहार किया जाता था। इसके अलावा श्री राम ने केवट के साथ मित्रता करी और साथ में भोजन भी किया। यह करके उन्होंने हिंदू धर्म में सम्रस्तता और मित्रता का उदाहरण दर्ज किया।
- मित्रता की बात करें, तो श्री राम ने जब जिसके साथ भी मित्रता की उन्होंने अपने चरित्र के जरिए दिखाया की मित्र के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? फिर चाहे वो सुग्रीव के साथ था या विभीषण के साथ रहा हो। सुग्रीव के साथ मित्रता धर्म का पालन करते हुए उनके भाई बाली का अंत करके बिना किसी लाभ, लपेट और लालच के पूरा राज पाठ अपने मित्र को समर्पित किया।
- ऐसे ही आगे वानर, भालू, नीच, आदिवासी सबको एकत्रित करके अपनी सेना बनाई। उन्होंने दिखाया की कोई आदमी छोटा बड़ा नही होता, प्रकृति के नजर में सबका एक समान सम्मान है। इस तरह के लोगो के साथ सेना बनाकर के ऐसे राक्षसों के साथ युद्ध लड़ा जो देवताओं से भी ज्यादा बलशाली थे और विजय भी प्राप्त करी।
- युद्ध भूमि में रावण का वध करने के बाद एक वीर पुरुष के भांति भी अपने जीवन का परिचय दिया। क्योंकि इतनी विशाल सोने की लंका को जीत लेने के बाद, उन्होंने उसे भी त्याग दिया और जिससे जीता उसके भाई को ही समर्पित कर दिया। सोने की लंका जीत लेने के बाद भी एक ग्राम सोना तक वहां से लेकर अपने देश में नही आए।
- जहां जहां गए वहां वहां उन्होंने मैत्री संबंध स्थापित किए। जितने दुश्मन राज्य भी थे, उनके साथ भी मैत्री संबंध स्थापित करा और हर जगह धर्म की स्थापना करी। भगवान श्री राम ने हर जगह महत्त्व केवल धर्म को दिया। जो धर्म के विरोधी थे, श्री राम ने उनका नरसंहार भी किया। जैसे की राक्षसी प्रवृति के लोगो को उन्होंने पृथ्वी से विलुप्त ही कर डाला, यहां धर्म से उनका आशय मानवता के धर्म से है किसी सम्प्रदाय से नही।
- उनका मानना था धर्म वही है, जो व्यक्ति के हित में हो। मानव वही है, जो मानवता के काम आए, यह भाव लेकर वे चलते थे।
- तो उन्होंने पुत्र धर्म निभाया, शिष्य धर्म निभाया, मानवता का धर्म निभाया। उसके बाद वे सोने की लंका से लौट कर आए, तो एक राजा का धर्म भी उन्होंने बखूबी निभाया। क्योंकि जब उन्हें अपना राज्य पाठ मिला, तो उन्हों ने राम राज्य की स्थापना की। जिसकी मिसालें आज भी पूरी दुनिया में दी जाती हैं।
अगर कोई भी अच्छा काम कही पर भी होता है, तो उसकी तुलना राम राज्य से ही की जाती है। क्योंकि राम के राज्य में न कोई दीन, न कोई दुखी, न कोई परेशान, न कोई गरीब था सभी लोग सुखी और प्रसन्न थे। ऐसे थे हमारे मर्यादा पुरषोत्तम भगवान श्री राम।