डूंगजी जवाहर जी की जीवनी | Biography Of Dungji Jawahar Ji In Hindi: राजस्थान में अंग्रेजों को क्रांतिकारियों का हमेशा से कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा था.
बठोठ पाटोदा के डूंगरसिंह जवाहरसिंह (Dungji-Jawaharji) का नाम राजस्थान के महान क्रांतिकारियों में गिना जाता हैं.
इन्होने शेखावटी क्षेत्र में अंग्रेज विरोधी आन्दोलन का शंखनाद कर सभी जातियों तथा वर्गों में आन्दोलन की चिंगारी जलाई. ठाकुर जवाहरसिंह डूंगरसिंह के चचेरे भाई थे.
डूंगजी जवाहर जी की जीवनी | Biography Of Dungji Jawahar Ji In Hindi
डूंगजी व उनके भतीजे जवाहर सिंह बठोठ पाटोदा सीकर के ठाकुर थे. अंग्रेजों को देश से निकालने की भावना इनमें कूट कूट कर भरी हुई थी.
अतः उन्होंने अपना दल बनाया और अंग्रेज छावनियों को लूटना एवं उन्हें नुक्सान पहुचाना शुरू किया. अपने दल के लिए जब धन की आवश्यकता हुई तो इन्होने रामगढ़ के सेठों से धन की मांग की.
लेकिन सेठों ने अंग्रेजों के भय से उन्हें धन देने से इनकार कर दिया. अतः डूंगजी जवाहरजी व उनके साथियों ने रामगढ़ के सेठों के काफिलों को लूटकर काफी धन गरीबों में बाँट दिया. सेठों ने अंग्रेजों से रक्षा की फरियाद की. इस पर अंग्रेजों ने डूंगजी के साले भैरोसिंह को लालच दिया.
उसने डूंगजी को सोते हुए गिरफ्तार करवा दिया. अंग्रेजों ने उन्हें कैद कर आगरा के किले में भेज दिया. मगर छः महीनों में ही जवाहरजी ने किले से डूंगजी को मुक्त करवा दिया. आगरा से लौटकर इन्होने रामगढ़ के सेठों को पकड़ा, जिनकी वजह से डूंगजी को गिरफ्तार किया गया था.
मगर सेठों के माफ़ी मांगने पर उन्हें छोड़ दिया. 1847 में डूंगजी जवाहरजी ने छापामार लड़ाइयों से अंग्रेजों को परेशान कर दिया.
देशी राजाओं द्वारा अंग्रेजों को सहयोग दिए जाने पर वे दुखी थे, पर उनके हौसलें बुलंद थे. 18 जून 1847 को इन्होंने नसीराबाद छावनी पर हमला किया और 52 हजार रूपये व घोड़े लूट लिए.
इस घटना से डूंगजी जवाहरजी की प्रसिद्धि फ़ैल गई. अंग्रेज डूंगजी जवाहरजी के नाम से भयभीत होने लगे. अंग्रेजों इन्हें इन्हें गिरफ्तार करने के हरसंभव प्रयास किये. अंग्रेजों ने तीन ओर से घेराबंदी कर डूंगजी जवाहर जी को घेर लिया पर दोनों वीर घेराबंदी तोड़कर शेखावटी से निकल पड़े.
जवाहरसिंह बीकानेर के महाराजा रतनसिंह के पास चले गये, जिन्होंने अंग्रेजों के दवाब के बावजूद जवाहरजी को सौपने से इनकार कर दिया. डूंगजी ने अपने को चारो ओर से घिरा पाकर जोधपुर राज्य के आश्वासन पर कि उन्हें अंग्रेजों को नहीं सौपा जाएगा, आत्मसमर्पण कर दिया.
लेकिन अंग्रेजों के दवाब के कारण जोधपुर के शासक ने डूंगजी को अंग्रेजों को सौप दिया. लेकिन जोधपुर के बावन रजवाड़ों द्वारा डूंगजी को जोधपुर को सौपे जाने की मांग पर अंग्रेजों ने अगस्त 1848 में डूंगजी को पुनः जोधपुर को सौप दिया. आज भी इन वीरों की गाथाएं गाँव गाँव में सुनाई देती हैं.
आगरा की कैद से डूंगरसिंह को छुड़वाना
जब ब्रिटिश हुकुमत ने डूगजी को आगरा की सुरक्षित जेल में बंद कर दिया यह खबर जब जवाहर सिंह को लगी तो उन्होंने एक योजना बुनी तथा डूंगरसिंह जी को आगरा जेल से आजाद करवा लिया,
इस योजना को अंजाम देने के लिए लोटिया जाट एवं सांवत मीणा को जेल की गतिविधियों की टोह लेने के लिए सबसे पहले आगरा भेजा गया.
जब इन दोनों ने पूरी तरह रेकी करने के बाद राजस्थान संदेश भेजा तो जवाहर सिंह, ठाकुर भक्तवर सिंह, ठाकुर खुमान सिंह लोदसर, कान सिंह, उजीन सिंह, जोर सिंह खरिया, हुकुम सिंह सिंगरावत करीब 300 यौद्धाओ के साथ आगरा पहुच गये. आगरा जेल के पास दूल्हे की मौत का बहाना बनाकर रहने लगे.
आखिर योजना के मुताबिक़ मुहर्रम के दिन इन सभी ने आगरा जेल पर हमला कर डूंगर सिंह सभी कैदियों को छुड़ा लिया, इस हमलें में कई साथियों ने अपनी जान भी गंवाई मगर अंग्रेजी सरकार को स्तब्ध कर उनके हाथों से क्रांतिकारी को छीन ले आएं.
अंग्रेजों की राजस्थान में नसीराबाद छावनी को लूटना
आगरा की कैद से रिहाई के बाद डूंगर जी और जवाहर जी अपने साथियों के साथ मिलकर अंग्रेज छावनियों को लूटने और नष्ट करने के काम में लग गये,
इस कार्य हेतु उनकी कई देशप्रेमी साहूकारों ने मदद भी की, डूंगर सिंह जी ने इसी सिलसिले में नसीराबाद की छावनी पर आक्रमण कर अंग्रेजी सेना के टेंट लूटकर जला दिए.
इस आक्रमण में उनके हाथ 27 हजार रु लगे, जो इन्होने माँ धनोप के मंदिर में दे दिए. इस लूट के बाद ब्रिटिश सरकार उन्हें किसी भी सूरत में पकड़ना चाहती थी,
कर्नल जे. सदर्लेंड ने कपतान शां, डिक्सन मेजर फार्स्तर के नेतृत्व में बीकानेर, जोधपुर की सेना इनके पीछे लग गई. दोनों के बीच घद्सीसर गावं में एक संग्राम हुआ.
बीकानेर के ठाकुर हरनाथ सिंह के विश्वास पर जवाहर सिंह ने आत्म समर्पण कर दिया तथा अंग्रेजों ने भी उन्हें सम्मान सहित बीकानेर जाने दिया.
उधर डूंगर सिंह इन सेनाओं के घेरे से बचकर जैसलमेर चले गये. आखिर जैसलमेर के गिरदादे गावं के पास मेडी में डूंगर सिंह जी ने आत्म समर्पण कर दिया और जोधपुर में इन्हें नजर बंद रखा गया और यही इनका देहांत हो गया.
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