खिलाफत आंदोलन पर निबंध | Essay On Khilafat Movement in Hindi

खिलाफत आंदोलन पर निबंध | Essay On Khilafat Movement in Hindi | History 1920 के आसपास तुर्की के खलीफा शासन को ब्रिटेन द्वारा उखाड़ फेकने के बाद भारत में भी तुर्की सत्ता के समर्थन में एक आन्दोलन लखनऊ में शुरू हुआ.

जिसे खिलाफत आंदोलन का नाम दिया मोहम्मद अली और शौकत अली बन्धुओ के अलावा महात्मा गांधी ने भी टर्की के मुसलमानों के समर्थन में इस आन्दोलन में हिस्सा लिया और ब्रिटेन सरकार को दवाब में लाने का प्रयास किया.

खिलाफत आंदोलन पर निबंध Essay On Khilafat Movement in Hindi

Essay On Quit India Movement in Hindi

ख़िलाफ़त आन्दोलन (1919-1922) के दौर में भारतीय मुसलमानों का एक समर्थन आंदोलन था. अंग्रेजों के दौर में चले इस धार्मिक आंदोलन का उद्देश्य तुर्की के खलीफा पद की पुनर्स्थापन के लिए ब्रिटिश सरकार पर दवाब बनाना.

१९२४ में मुस्तफ़ा कमाल के ख़लीफ़ा पद को खत्म कर दिया गया. इसका भावनात्मक सम्बन्ध भारत के मुसलमानों पर भी पड़ा, जिन्होंने भारत की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दिया. अली बन्धुओं द्वारा इस आंदोलन को मुखर आवाज दी गई.

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में खिलाफत आंदोलन का महत्वपूर्ण स्थान हैं. खिलाफत आंदोलन के जन्म और विकास के कारण- भारत में खिलाफत आंदोलन के जन्म और विकास के प्रमुख कारण निम्नलिखित थे.

ब्रिटिश सरकार का भारतीय मुसलमानों के साथ विश्वासघात– भारत के मुसलमान टर्की के सुल्तान को अपना खलीफा मानते थे. प्रथम विश्व युद्ध में टर्की इंग्लैंड के विरुद्ध लड़ रहा था.

युद्ध काल में भारतीय मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भारतीय मुसलमानों को यह आश्वासन दिया कि युद्ध की समाप्ति के बाद इंग्लैंड टर्की के विरुद्ध प्रतिशोध की नीति अपनाएगा और न ही टर्की साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर दिया जाएगा.

लेकिन विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद ब्रिटिश सरकार ने अपने आश्वासनों को पूरा नहीं किया. टर्की को उसके अनेक प्रदेशों से वंचित कर दिया गया. उससे थ्रेस का प्रदेश छीन लिया गया.

टर्की का सुल्तान एक कैदी मात्र रह गया. ब्रिटिश सरकार के इस विश्वासघात से भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजों के विरुद्ध तीव्र आक्रोश उत्पन्न हुआ.

अतः टर्की के सुल्तान की स्थिति को यथा वत रखने के लिए ब्रिटिश सरकार पर दवाब बनाने के उद्देश्य से भारतीय मुसलमानों ने खिलाफत आंदोलन शुरू किया.

खिलाफत कमेटी की स्थापना– 1919 में मौलाना मुहम्मद अली और शौकत अली, मौलाना अली, मौलाना आजाद, हकीम अजमल और हजरत अली के नेतृत्व में खिलाफत कमेटी स्थापित की गई तथा देशव्यापी आंदोलन शुरू किया.

गांधीजी के खिलाफत आन्दोलन को समर्थन– गांधीजी की मान्यता थी कि राष्ट्रीय आंदोलन की सफलता तभी सम्भव है जब हिन्दू और मुसलमान एकजुट होकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध संघर्ष करें.

उन्होंने खिलाफत आंदोलन को दोनों कौमों की एकता का सुनहरा अवसर समझते हुए खिलाफत के प्रश्न पर मुसलमानों के प्रति पूर्ण सहानुभूति दिखाई और ब्रिटिश सरकार के विश्वासघात का विरोध किया.

गांधी ने 1920-21 में खिलाफ़त आन्दोलन में सक्रियता से भाग लिया हालांकि यह एक धार्मिक आंदोलन था फिर भी गांधी का विचार था कि यह गोरी सरकार को घेरने का एक मौका हैं. इस आन्दोलन के जरिये गांधी भारत के हिन्दुओं तथा मुसलमानों में आपसी समन्वय स्थापित करना चाहते थे.

अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन– 24 नवम्बर 1919 को दिल्ली में गांधीजी की अध्यक्षता में अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन हुआ.

इस अवसर पर गांधीजी ने हिन्दुओं से अपील की कि वे मुसलमानों की सहायता के लिए खिलाफत आंदोलन में शामिल हो जाए. सम्मेलन में यह निश्चय किया गया कि यदि उनकी मांगे नहीं मानी गई तो वे सरकार को सहयोग देना बंद कर देगे. इस प्रकार खिलाफत आंदोलन को मुस्लिम लीग और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दोनों का समर्थन मिला.

शिष्टमंडलों की असफलता– गांधीजी की सलाह से 19 जनवरी 1920 को डॉ अंसारी के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल ने वायसराय लार्ड चैम्सफोर्ड से भेट की, परन्तु वायसराय ने कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं दिया.

इसके बाद मार्च 1920 में मौलाना शौकत अली और मुहम्मद अली के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल इंग्लैंड गया, परन्तु वह भी निराश होकर वापस लौट आया.

खिलाफत आंदोलन की मांगे– खिलाफत आंदोलन की प्रमुख मांगे निम्नलिखित थी.

  • पहले के ऑटोमन साम्राज्य के सभी इस्लामी पवित्र स्थानों पर टर्की के सुल्तान अथवा खलीफा का नियंत्रण बना रहे.
  • जजीरात उल अरब इस्लामी संप्रभुता के अधीन रहे.
  • खलीफा के पास इतने क्षेत्र हो कि वह इस्लामी विश्वास को सुरक्षित रखने के योग्य बन सके.

खिलाफत आंदोलन की प्रगति– खिलाफत आंदोलन का भारत में व्यापक प्रसार हुआ. खिलाफत कमेटी ने मुसलमानों से सेना में भर्ती न होने की अपील की.

कांग्रेस ने इस आंदोलन का समर्थन किया और गांधीजी ने इसे असहयोग आंदोलन के साथ मिलाने की कोशिश की तथा इस आंदोलन को सफल बनाने के लिए देश का दौरा किया.

सरकार की दमनकारी नीति– खिलाफत आंदोलन की बढ़ती प्रगति से चिंतित होकर ब्रिटिश सरकार ने इसे कुचलने के लिए दमन कारी नीति अपनाई.

अली बन्धुओं को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया तथा खिलाफत आंदोलन को अवैध घोषित कर दिया, लेकिन आंदोलनकारियों ने इस आंदोलन को जारी रखा.

खिलाफत आंदोलन का अंत– 1923 में कमाल पाशा टर्की का शासक बन गया. उसने 3 मार्च 1924 को खलीफा का पद समाप्त कर दिया तथा टर्की को धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य घोषित किया. इसके परिणामस्वरूप खिलाफत आंदोलन स्वतः ही महत्वहीन हो गया.

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