समाज के ऊपर निबंध | Essay On Society In Hindi

Essay On Society In Hindi : नमस्कार दोस्तों आज हम समाज के ऊपर निबंध लिखा हुआ बता रहे है. मॉडर्न इंडियन सोसायटी, समाज और हम हमारा जीवन विषय पर शोर्ट निबंध, भाषण, स्पीच अनुच्छेद, पैराग्राफ यहाँ स्टूडेंट्स के लिए सरल भाषा में दिया गया हैं.

इस निबंध में हम जानेगे कि समाज क्या है तथा इसका व्यक्ति के जीवन में क्या महत्व हैं.

समाज पर निबंध Essay On Society In Hindi

समाज पर निबंध Essay On Society In Hindi

(200 शब्द) समाज पर निबंध

सोसायटी अर्थात समाज मानव द्वारा जीवन की व्यवस्था हेतु बनाया गया एक ढांचा हैं. जिसके अपने कुछ कानून कवानीन और मान्यताएं होती हैं.

हम सभी सामाजिक सदस्य है हमें उन पूर्व निर्धारित नैतिक और सामाजिक मानदंडों का पालन करना पड़ता हैं. एक व्यक्ति के चहुमुखी विकास, सुरक्षा के लिए समाज का होना बेहद जरुरी हैं.

अगर आज के भारतीय समाज की बात करें तो जाति और वर्ण व्यवस्था इसके मूल में दिखाई पड़ती हैं. एक सामाजिक संगठन के रूप में इस व्यवस्था का मूल्यांकन किया जाए तो कई खूबियों के साथ ही कुछ बुराइयाँ भी नजर आती हैं.

किसी भी राष्ट्र के चारित्रिक, नैतिक, आर्थिक उत्थान के लिए प्रत्येक समाज का समुचित विकास जरुरी हैं. भारतीय समाज आज भी आपसी मेलजोल भाईचारे और सामान्य नियम कायदों की नजर से पश्चिमी व यूरोपीय समाज की तुलना में एक आइडियल सोसायटी मानी जाती हैं.

एक सामाजिक प्राणी होने के नाते हमें अपनी जड़ों को मजबूत करने की आवश्यकता हैं. समाज रुपी जड़े ही हमारे देश को एक बनाए रखने और आगे बढ़ाने में बड़ी भूमिका का निर्वहन करते हैं.

एक आदर्श नागरिक होने के नाते हमें सामाजिक मर्यादाओं के तहत इसके विकास की दिशा में काम करते रहना चाहिए.

(800 शब्द) समाज पर निबंध Essay on society in hindi

मनुष्य को सामाजिक प्राणी कहा जाता है इसका अर्थ है मानव समाज के लिए है तथा समाज मानव के लिए हैं. दोनों का अस्तित्व पूरी तरह से एक दूसरे पर आश्रित है पूरक हैं.

मानव ने स्व भावना का त्याग कर पर भावना को आधार बनाकर समाज बनाया तो समाज ने भी मानव के सर्वांगीण विकास में अहम भूमिका अदा की.

आदि मानव जब पृथ्वी पर बसने लगा तो सुरक्षा, भोजन, परस्पर सहायता के कारण वह अकेले जीवन नहीं बिता पाया अतः उसने दूसरे से मदद ली तथा दूसरो की मदद भी की.

इस तरह समाज व परिवार एक दूसरे से अभिन्न बन गये. किसी राष्ट्र या वर्तमान के देशों का स्वरूप भी इसी तरह निर्मित हुआ, व्यक्ति से समाज, समाज से नगर और नगर से छोटे छोटे राज्य और राष्ट्र का निर्माण हुआ.

समाज के बगैर व्यक्ति का अस्तित्व उतना ही है जितना किसी पेड़ से पृथक हुए पत्ते का हैं. व्यक्ति अपना चहुमुखी विकास समाज में रहकर, उसके संसाधनो का उपयोग करके, सुविधाओं का उपभोग करके ही कर सकता हैं.

समाज निर्माण के पीछे मनुष्य के एकाकीपन एवं असुरक्षा के भाव रहे हैं. आदि मानव जब बिखरे स्वरूप में अलग अलग रहता था तो जंगली जानवरों से उसे जीवन का खतरा था, अतः वह अपने परिवार और समाज के साथ मिलकर रहने लगा.

प्राचीन भारत के समाज संयुक्त परिवारों से बने थे, जो आज एकाकी हो गये हैं. व्यक्ति समाज में गौण था उसे अपने समस्त कार्य समाज द्वारा तय परिधि के भीतर ही करना होता था.

मर्यादा, संस्कार तथा कर्तव्यों का निर्वहन करना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य था. मगर आज परिस्थतियाँ बिलकुल उल्ट हो गई हैं.

अब व्यक्ति समाज से अधिक स्वयं को तरजीह देने लगा हैं वह समाज के कर्तव्यो के स्थान पर स्वयं या परिवार के कर्तव्यों को सर्वोपरि मानने लगा हैं.

मनुष्य की आत्मकेंद्रितता की भावना के चलते उसके समाज के प्रति दृष्टिकोण में बड़ा बदलाव आया हैं. उसे यह एहसास नहीं रहा है कि मनुष्य जीवन का आधार समाज ही हैं.

मनुष्य भले ही अपने प्रयत्नों से भौतिक साधन जुटाता है, मगर उसमें समाज का बड़ा सहयोग रहता है जिसके बिना वह उन्नति नहीं कर सकता हैं. व्यक्ति जो कुछ पाता है समाज से ही पाता हैं.

अमुक व्यक्ति का लोग सम्मान इसलिए करेगे क्योंकि वह अपने सभ्य समाज में सम्मानित हैं. जिसकी अपने समाज में कोई इज्जत नहीं होती है उसकी कोई भी इज्जत नहीं करता हैं.

अगर समाज सभ्य हो तो नागरिक भी चरित्रवान व सामाजिक बनेगे. अक्सर लोगों की शिकायत रहती है कि समाज ने हमें क्या दिया.

उन्हें समझना चाहिए कि समाज व्यक्ति विशेष को कोई लाभ या पद नहीं देता, बल्कि इस तरह की परिस्थतियाँ तैयार करता है जिसमें व्यक्ति उन्नति के अवसरों को भूना सकता हैं.

समाज लोगों से मिलकर बनता हैं. यदि लोगों का चरित्र, व्यवहार, रहन सहन अच्छा होगा तो निसंदेह सशक्त समाज की नीव रखी जाएगी.

व्यक्ति को समाज से हमेशा जुड़ा रहना चाहिए, समाज अपने लोगों से ही मिलकर बनता हैं. आचार्य चाणक्य कहते है कि जीवन में कभी मित्रों एवं रिश्तेदारों का साथ नहीं छोड़ना चाहिए.

हमें हंस की तरह जीवन जीना चाहिए जहाँ पानी होता है वहां हंस रहते हैं जहाँ जल नहीं होता है वहां हंस नहीं रहते हैं. अतः समाज में रहने का आशय यह है कि हम सामाजिक एवं सभ्य बनकर जीवन जीएं.

यदि हमारे समाज अथवा कुछ लोगों में खराबी है तो बहुत से लोगों की तरह उसकी भर्त्सना करके मुहं फेर लेने की बजाय हमें उसे गंभीरता से लेना चाहिए.

यदि कोई खराबी है तो हमें इसके समाधान खोजने चाहिए तथा सभ्य समाज के निर्माण की ओर कदम बढ़ाने चाहिए. हरेक समाज में बुरे लोग होते है ये उस सड़े अंग की तरह होते है यदि समय पर इनका ईलाज नहीं किया जाए तो यह सम्पूर्ण शरीर का नाश कर देगे.

इसलिए हमारे समाज की बुराईयों पर इसलिए आँख न मूंदे कि यह हमसे अभी तक दूर है, क्योंकि अगला नम्बर हमारा ही होगा, समाज में जो कुछ हो रहा है जैसे संस्कार व सभ्यता का चलन हैं हम वैसे ही बनेगे.

न केवल यह व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित करेगा बल्कि आने वाली नस्लों पर तत्कालीन समाज का प्रभाव पड़ना सुनिश्चित हैं. ये प्रभाव अच्छे पड़े या बुरे यह हमारे विवेक पर निर्भर करता हैं.

आधुनिकीकरण के नाम पर आज का भारतीय समाज पाश्चात्य प्रभावों से अछूता नहीं रहा हैं. यूरोपीय देशों के समाजों में माँ बाप, महिलाओं एवं बच्चों के दायित्व तथा भारतीय समाज में इनकी परम्परा बिलकुल उल्ट हैं.

मगर पाश्चात्य प्रभाव में हमारा समाज भी इन विकारों से प्रभावित हो रहा हैं. इस रुग्ण मानसिकता के चलते ही भारतीय परिवार का मूल स्वरूप संयुक्त परिवार विघटित हो चूका हैं. वृद्धावस्था में बच्चें में माँ बाप को वृद्धाश्रम भेजने लगे है इन्हें केवल सामाजिक विकार ही कह सकते हैं.

समाज एक यथार्थ है शाश्वत सत्य है जिसकी छत्रछाया में हम सभी सुरक्षा के भाव की अनुभूति करते हैं. मगर कई बार समाज की मान्यताओं के नाम पर प्राचीन रुढियों तथा रीती रिवाजों को भी थोपा जाना ठीक नहीं हैं.

इस तरह के अप्रासंगिक बंधन में व्यक्ति स्वयं को असहाय पाता है तथा उसका समाज के साथ सीधा टकराव सम्भव हैं. कई बार समाज व्यक्ति के उत्थान में सहायक होता है तो कई बार रीतियों, मूल्यों एवं मान्यताओं के नाम पर बाधक भी बन जाता हैं.

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