मेजर शैतान सिंह का इतिहास | History Of Major Shaitan Singh In Hindi

History Of Major Shaitan Singh In Hindi | मेजर शैतान सिंह का इतिहास: बाणासुर के शहीद के नाम से प्रख्यात शहीद मेजर शैतानसिंह का जन्म एक सितम्बर 1924 को जोधपुर जिले की फलौदी तहसील के बाणासुर गाँव में हुआ था.

शैतानसिंह भारतीय सेना में शामिल हो गये. 1951 में लेफ्टिनेंट, 1955 में कैप्टन और 1962 ई में वे मेजर बन गये थे.

मेजर शैतान सिंह का इतिहास | History Of Major Shaitan Singh In Hindi

मेजर शैतान सिंह का इतिहास | History Of Major Shaitan Singh In Hindi
जन्म01 दिसम्बर 1924
स्थानजोधपुर, राजस्थान
देहांतनवम्बर 18, 1962 (उम्र 37)
शहादत स्थलीरेज़ांग ला, जम्मू और कश्मीर
सेवाभारतीय सेना
सेवा वर्ष1949-1962
दस्ताकुमाऊं रेजिमेंट

17 नवम्बर 1962 को जब चीन ने लद्दाख क्षेत्र में चुशूल चौकी पर आक्रमण किया तो उस समय इस चौकी की रक्षा की जिम्मेदारी मेजर शैतानसिंह की चारली कम्पनी की थी. अपने 120 साथियों के साथ उन्होंने चीनी सेना को दो बार पीछे हटने पर मजबूर कर दिया.

जब उनके पास केवल दो सैनिक शेष रह गये और स्वयं बुरी तरह घायल हो गये तो उन्होंने दोनों सैनिकों को पीछे चौकी पर सूचना देने के लिए भेज दिया और स्वयं अकेले ही गोलीबारी करते रहे. मात्र सैतीस वर्ष की आयु में मातृभूमि के इस लाडले ने शत्रु से लड़ते हुए अपने प्राणों की कुर्बानी दे दी.

18 नवम्बर 1962 को को मेजर शैतानसिंह को मरणोपरांत परमवीर चक्र की उपाधि दी गई.

शैतान सिंह की जीवनी (Biography of Major Shaitan Singh)

इनके पिता का नाम हेम सिंह था जो भारतीय फौज में लेफ्टिनेंट कर्नल के पद पर थे. हेमसिंह जी को ऑर्डर ऑफ द ब्रिटिश एम्पायर का खिताब मिला था,

जब वे ब्रिटिश सेना में फ़्रांस की ओर से प्रथम महायुद्ध में शामिल हुए थे. इन्होने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा राजपूत हाई स्कूल से जोधपुर से प्राप्त की.

शैतान को बचपन से ही फुटबॉल के खेल में गहरी रूचि थी. भारत की आजादी के वर्ष ही उन्होंने स्नातक की तथा दो साल बाद वे जोधपुर से भारतीय सुरक्षा बल से जुड़ गये. राजस्थान एकीकरण के वक्त जब जोधपुर का राजस्थान में विलय में हुआ तो इन्होने कुमाऊ रेजिमेंट को जॉइन कर लिया.

जब गोवा का भारत में विलय हुआ तब ये गोवा में ही नियुक्त थे. 1962 में ये मेजर बने तथा भारत चीन सीमा पर इनकी तैनाती कर दी गई. रेज़ांग ला का युद्ध में इनके साथ  कुमाऊं रेजिमेंट की 13वीं बटालियन में कुल 200 सिपाहियों के साथ चूसुल सेक्टर में सेवा दे रहे थे.

7वीं और 8वीं प्लाटून को सुबह चार बजे चीनी हमले की खबर मिली. 350 चीनी सिपाही आगे से तथा 400 सिपाही पीछे से हमला करने पहुचे. भारतीय सैनिकों के पास सर्दी से बचाव के कोई साधन तक नहीं थे.

मगर उन्होंने बहादुरी के साथ लाइट मशीन गन, राइफल्स, मोर्टार और ग्रेनेड से चीनियों पर हमला कर दिया. बहुत बड़ी संख्या में चीनी सैनिक मारे गये.

आगे से जब चीनी फौज का हमला पूरी तरफ विफल हुआ तो दूसरी बटालियन के चार सौ सैनिकों ने पीछे से भारतीय फौज पर अटैक किया. 

भारतीयों ने 3 इंच (76 मिमी) मोर्टार के गोले से चार सौ की पूरी टुकड़ी को मौत के घाट उतार दिया. बचे हुए 20 सैनिकों से लड़ने के लिए भारतीय जवानों ने खाइयों को छोड़कर सीधे लड़ाई पर उतर आए.

चीनी सेना ने प्लाटून को घेर लिया. अब बसने का कोई विकल्प नहीं था. १२३ में से 109 सैनिक मारे गये, जिनमें एक शैतानसिंह भी थे. जिनका पार्थिव शरीर जोधपुर लाया गया.

आज भी चीन रेज़ांग ला का युद्ध याद करते हुए भयभीत हो उठता है क्योंकि ये 120 भारतीय शूरमाओं के बलिदान और अद्वितीय शौर्य की एक ऐसी कहानी थी जिसका भान चीनियों को कभी न हुआ था.

इस लड़ाई में चीन के 2000 में से 1300 सैनिक मारे गये थे. भारतीय सेना के 114 जवान शहीद हुए तथा 5 को युद्ध बंदी बना लिया था.

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