नारी की उड़ान | सरहदें | 2 हिंदी कहानी | Inspirational Story Of Woman In Hindi

नारी की उड़ान | सरहदें | 2 हिंदी कहानी | Inspirational Story Of Woman In Hindi: नमस्कार साथियों आज हम दो अलग अलग महिलाओं की कहानियां आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं. पहली कहानी नारी की उड़ान शीर्षक से मुनीबा की हैं तो दूसरी कहानी सरहदें शीर्षक से दी गई हैं.

Inspirational Story Of Woman In Hindi

नारी की उड़ान | सरहदें | 2 हिंदी कहानी | Inspirational Story Of Woman In Hindi

नारी की उड़ान

हम सबने तकलीफें सही है, कुछ ने ज्यादा और कुछ ने बहुत कम। कभी-कभी सामाजिक दर्शन के ज्ञाता एक नई हवा का समाधान करने निकल पड़ते हैं कि आखिर  संवेदना बड़ी है या उसे सहने वाला। पर सच्चाई तो यही है कि अक्सर संवेदना चाहने वाले के आगे बहुत बौनी साबित होती हैं।

एक चाहने वाला सारे दुख और तकलीफ को पूरी उम्र सहता है, परंतु तो वो टूटता है और ना ही बिखरता है बल्कि दिन  प्रतिदिन और मजबूत होता जाता है।  

वह कहते हैं ना कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। तो सारा किस्सा ही मान लेने का है। अगर हम आपसे पूछे कि आपने अपनी जिंदगी में सबसे बड़ा दुख कौन सा झेला है तो आप क्या कहेंगे ?

जाहिर सी बात है हर किसी के दुख का एक अपना स्तर होगा कोई पैसों की कमी से लड़ा होगा। कोई छत और भोजन कि कमी सी लड़ा होगा। कोई नौकरी मिलने से परेशान  होगा। तो कोई पारिवारिक झमेलों में फस कर रह गया होगा।

इन सब बातों का सिर्फ एक ही मतलब निकलता है। हर किसी को अपने स्तर का दुख हमेशा बड़ा ही लगता है। पर सवाल ये है कि क्या आप एकलौते है जो दुख में है? कभी अपने आसपास नजर घुमाइए और देखिए कि आप से कहीं ज्यादा दुखी लोग इस धरती पर जी रहे हैं। 

परंतु उनके जीने की  जिज्ञासा कम नहीं हुई। आज की इस नैतिक कहानी ऐसे महिला की कहानी है जिसका पूरा  जीवन केवल सफलता की मिसाल ही पेश नहीं करता,अपितु विपरीत परिस्थितियों में इंसान की क्षमता कितनी है इससे भी  परिचित करता है

मुनीबा मजारी आज पुरी दुनिया में किसी नाम की मोहताज नहीं है। पाकिस्तान में आयरन लेडी के नाम से मशहूर मुनीब का जीवनी बहुत ही कठिनाई और मुस्किलो से भरा रहा है।

जिस उम्र में महिलाएं अपने हाथों की मेहंदी का रंग देखती हैं और उस उम्र में मुनिबा ने तलाक देखा। जिस दुख और तकलीफ को मुनिबा ने सहा अक्सर एक आम महिला उस स्टेज में टूट कर बिखर जाती है।

मुनीबा का संघर्षशील जीवन

मुनीबा का जन्म 3 मार्च 1987 को एक बलूच परिवार में हुआ।उनका गृह प्रदेश रहीम यार खान था। मुनीबा ने फाइन आर्ट्स में स्नातक की उपाधि ली थी।

एक महिला का महिला अधिकार विहीन  देश में जन्म लेने और उसके बाद पेंटिंग से स्नातक की उपाधि अपने आप में मुनीबा के जिंदादिली और रंगों से प्यार को दर्शाता है।

मुनीबा का वैवाहिक जीवन

मुनिबा का वैवाहिक जीवन किसी कड़वे अनुभव से कम ना था। शोहर खुर्रम शहजाद से निकाह करने के पश्चात मुनीबा को एक बेटा हुआ। 2007 का वह साल मुनिबा के जीवन का सबसे काला साल था। जब मुनीबा अपने पति के साथ कार से यात्रा कर रही थी, उनका एक्सीडेंट हो गया।

कार पेड़ से टकराकर एक गहरे खड्डे में जा गिरी। खड्डा गहरा था। पति ने कार चलाने के दौरान एक झपकी ली और कार का बैलेंस बिगड़ गया। पति की एक झपकी ने मुनीबा के दोनों पैर छीन लिए। कार से नियंत्रण खोने के दौरान मुनीबा के पति ने कार से छलांग लगा दी और अपनी जान बचाई।

उसने मुनीबा को चलती कार में मरने के लिए छोड़ दिया किसी तरह से मुनिबा को जीप से हॉस्पिटल पहुंचाया गया। जब वह गहरी निंद्रा के बाद जागी तो उन्हें मालूम चला कि वो अपना दोनों पैर खो चुकी हैं।

लगभग 3 महीना हॉस्पिटल में रहने के बाद मुनीबा जब घर आई तो पति ने उन्हें अपनाने से इंकार कर दिया और उसकी वजह थी उनका अपाहिज होना। लाख विनती के बावजूद भी उनके पति ने उन्हें तलाक दे दिया। अंततः उनके हिस्से में एक बेटा और खुद का अपाहिजपना आया

सहारे के लिए वह अपने पिता के घर गई परंतु उन्होंने भी उसे मुंह मोड़ लिया। मुनीबा को समझ में नहीं रहा था कि वह क्या करें ? एक अकेला बच्चा ना घर ना छत ना कोई साथ देने वाला। ऊपर से अपाहिज मुनीबा। अब तो व्हीलचेयर ही उनके पूरे जीवन का साथी बन चुका था।

वह बेहद हताशा और निराशा में डूब गई। मर नहीं सकती थी क्योंकि उनके सहारे एक बच्चा था।घोर निराशा में सारे दिन अपने बालों को नोचती रहती, हाथ पटकती और खूब रोती, खुद को कोसती।ऐसा करते हुए कई माह गुजर गए पर हालात नहीं बदले।

एकमात्र मुनिबा की मां ही थी जो उनका हौसला  बढ़ती थी।उसे हिम्मत देती थी।मां के दिए हौसले के सहारे मुनीबा ने फिर खड़े होने का निश्चय किया।

उसने निश्चय किया कि वह पेंटिंग में अपना करियर बनाएगी। अपने दृढ़ संकल्प और अपनी जीवंत इच्छाशक्ति की बदौलत मुनिबा ने पेंटिंग की दुनिया में काफी नाम कमाया, इज्जत कमाई, शोहरत कमाया।

आज मुनीबा किसी जान पहचान की मोहताज नहीं है वह पूरी दुनिया में विख्यात हो गई हैं। मुनिबा ने “कारवां” नाम से अपना एक ब्रांड बनाया है। ब्रांड के तहत उन्होंने लोगों को एक स्लोगन भी  दिया है “लेट योर वॉल वियर कलर”अर्थात अपने घर की दीवारों को रंगीन बनाए।

मुनीबा अपने पेंटिंग के लिए इंसानी हाव-भाव का इस्तेमाल करती हैं। इंसान की आदतो तो उसके व्यवहार और सामाजिक विश्लेषण का अपनी पेंटिंग के जरिए दर्शन स्थापित करती। बिना किसी  बाहरी आवरण के उन्होंने अपनी जिंदगी के सभी तकलीफों को अपने पेंटिंग के माध्यम से सब को दिखाया है।

2008 में मात्र 18 साल की उम्र में अपने  पति से तलाक लेने के बाद और अपाहिजता के सहारे मुनिबा ने जो असाधारण उपलब्धि हासिल की हैं, शायद ही कोई महिला उस हालात से बाहर निकल पाती।

इतने विकट परिस्थितियों में भी मुनिबा ने हार नहीं मानी और अपनी जीवंत इच्छाशक्ति का प्रदर्शन किया। अपनी प्रतिभा के दम पर उन्होंने कुछ उपलब्धियां जिनके अपने नाम दर्ज है

  • वह विश्व की पहली व्हीलचेयर एंकर हैं।
  • वह पाकिस्तान की पहली व्हीलचेयर मॉडलिंग करने वाली महिला है। उनसे पहले ये उपलब्धि किसी के नाम नही है।
  • संयुक्त राष्ट्र संघ ने मुनिबा को पाकिस्तान में महिला अधिकारों और महिला शशक्तिकरण को बढ़ावा देने हेतु मुनीब को पाकिस्तान का ब्रांड  अम्बेस्डर बनाया है।

2015 में टाइम पत्रिका ने मुनिबा को विश्व की 100 सबसे शक्तिशाली महिला की सूची में उन्हें शामिल किया। ये उनकी सबसे बड़ी असाधारण उपलब्धि थी।

आज मुनिबा 30 साल की है, अपनी पेंटिंग अपनी सकारात्मक विचारों और अपने अपने अनुभव से  ऐसे लाखो लोग जो विपत्ती में किस्मत को कोसते  है और जीना छोड़ देते है कि लिए एक उम्मीद का काम कर रही है।

वो कहती है ‘परिस्थितिया चाहे जैसी हो, उन्हें स्वीकार कीजिये और लड़िये, क्योकि किस्मत कुछ नही होती, किस्मत तो उनकी भी होती है जिसके हाथ नही होते।’

सरहदें

जब भी महिला सशक्तिकरण का जिक्र होता है तो हमारे मन में सफल महिलाओं की तस्वीरें निकल कर सामने आती हैं जो किसी सरकारी पद  या किसी बड़े अहोदे पर या किसी मल्टीनेशनल कंपनी में सीईओ होती है।

लेकिन हम कभी उन घरेलू महिलाओं की बात नहीं करते हैं जो कई सामाजिक चुनौतियों घर-परिवार और समाज के दबाव के बावजूद एक अच्छा मुकाम हासिल करती हैं।

एक ऐसी ही महिला की बात हम करने जा रहे हैं जिन्होंने महिला सशक्तिकरण की एक नई परिभाषा गढ़ी है और पुरुष प्रधान समाज की तमाम बंदिशों को तोड़ते हुए अपनी राह खुद चुनी।

उत्तर प्रदेश के लखनऊ में पली-बढ़ी एक लड़की जिसका नाम प्रज्ञा था। जिसका बचपन सिर्फ इस उलाहना में बीता की ‘वो कास लड़का होती।’ परंपरागत समाज की सोच से ओत प्रोत उसके माता-पिता ने कभी उसे वो प्यार नही दिया जिसकी वो हकदार थी।

प्रज्ञा का एक बड़ा भाई भी था। बड़े भाई के आगे प्रज्ञा किसी के दामन में चुभें कांटे की तरह थी। बात बात पर उसे डांट जाता। छोटी सी गलती पर उसे  मारा जाता। वो अंदर से इतनी डरी रहती की न चाहते हुवे भी उससे गलतियां हो जाती।

धीरे-धीरे वो परिवार और अपनो से दूर होती गई। हर त्यौहार ,हर खुशी ,हर सुख उसके लिए सब बराबर हो गया। अंदर से वो किसी अंधेरे कमरे में कैद अकेली गुड़ियां बन कर रह गई।

जब वह 6 साल की हुई उसका दाखिला पास के ही प्राइमरी विद्यालय में हुआ। एक रोज़ जब वो विद्यालय से घर लौट रही तो उसकी सहेलियों ने उसे छुपन-छुपाई खेलने के लिए आमंत्रित किया।

खेलते खेलते वो सहेलियों के साथ किसी पड़ोसी के घर में छुप गई। उस घर का मालिक अकेला रहता था। लड़कियों को अकेला देख उसने प्रज्ञा को अपने कमरे में बुलाया और डरा धमका कर उसका शारीरिक शोषण किया।

6 साल की बच्ची ,पहले से ही संकुचित दिमाग और फिर ये मानसिक और शारीरिक चोट ने प्रज्ञा के कोमल मस्तिष्क को झकजोर दिया। वो परिवार से पहले ही डरी-सहमी थी।उसकी हिम्मत न हुई की वो इस घटना को घर में किसी से बता पाए।

वो लहूलुहान थी, बेइंतिहा दर्द सह रही थी पर किसी से कुछ बोल नही पाई। पुरुष वर्ग के लिये जो नफरत उसके मन मे घर कर गई थी वो और बढ़ गई। आखिर लड़को को ही सारे हक क्यू? इस सोच और चुपी में उसका सारा बचपन गुजर गया।

प्रज्ञा जब 18 साल की हुई तो माता पिता ने उसकी शादी तय कर दी। वो किसी तरह उससे पीछा छुड़ाना चाहते थे। उनके लिए वो किसी सामान की तरह थी जिसे कही ठीकने लगाना था।ऐसा नही था कि प्रज्ञा के घरवाले संपन्न नही थे ,

बस उनके यहां लड़कियों का कोई अस्तित्व नही था।प्रज्ञा ने घर छोड़ने का मन बनाया और दिल्ली आ गई । दिल्ली जैसा शहर, एक जवान लड़की, न कोई सहारा और न कोई पहचान। किसी तरह प्रज्ञा ने एक घर किराये का लिया। उसे सिलाई और बुनाई का काम अच्छा आता था।

उसने कई जगह नौकरी के किये आवेदन दिया। हर जगह लोग, जान-पहचान मांगते। प्रज्ञा जानती थी कि अगर उसने कुछ भी बताया तो वो नौकरी कम करेगी परंतु शारीरिक शोषित ज्यादा होगी।

दिल्ली आए एक हफ्ता गुजर चुका था। प्रज्ञा के पास न नौकरी थी और न पैसे। मकान का किराया पेट की भूख ने प्रज्ञा को कई रात सोने न दिया। मकान मालिक की नज़र प्रज्ञा के इज्जत पर थी ,उसने किराये के बदले प्रज्ञा को कई प्रलोभन दिए परंतु प्रज्ञा ने घुटने नही टेके।

नौकरी की तलाश के दौरान प्रज्ञा की जान पहचान एक सर्वे कंपनी के कर्मचारी ‘अजय’ से हुई। उसने प्रज्ञा को यकीन दिलवाया की वो उसकी नौकरी लगवा देगा। प्रज्ञा को पुरुषों पर यकीन नही था ,परंतु इस बार उसके पास कोई रास्ता न था।

अजय की पहुँच की वजह से प्रज्ञा को एक सर्वे कंपनी में घर-घर जाकर लोगो के प्रॉपर्टी दस्तावेज सत्यापित करने का काम मिल गया।

दिन भर कड़ी मसक्कत और चिलचिलाती धूप में प्रज्ञा सर्वे करती और शाम को ऑफिस से निकलने के बाद पड़ोस के सिलाई की दुकान में कड़ाई करती।

इस तरह प्रज्ञा ने  कुछ महीनों में एक अच्छी राशि जमा कर ली। सर्वे की नौकरी उसे पसन्द नही थी। विभिन्न घरों के लोग ऐसे बर्ताव करते जैसे वो उनसे भीख मांगने आई हो। कोई तो डांट कर भगा देता। उसने मन बनाया की वो ये नौकरी छोड़ देगी और कढ़ाई-बुनाई का काम करेगी। 

अजय को मालूम चला कि प्रज्ञा नौकरी छोड़ रही है तो उससे रहा नही गया। उसने प्रज्ञा को घर पर मिलने के लिए बुलाया और पेय पदार्थ में नशे की गोली मिला दी।

प्रज्ञा के होशो आवाज़ खोने पर उसने उससे जोर जबरदस्ती करनी चाही परंतु उसके चिल्लाने पर वो भाग गया। प्रज्ञा ने सोचा था कि वो उसे बताएगी की वो उससे मन ही मन कितना प्यार करती है,

परंतु अजय के इस भयानक रूप ने फिर से उसके बचपन के जख्म हरे कर दिए। अपने टूटे विश्वास को समेटते हुवे प्रज्ञा ने दिल्ली छोड़ गुरुग्राम में घर ले लिया।

अपने जुटाए पैसों से प्रज्ञा ने कपड़े का काम शुरू किया। वो आस-पास के मोहल्ले वालो के कपड़े उनकी मांग के अनुरूप सिलती थी।धीरे-धीरे प्रज्ञा पुरे मोहल्ले में ‘प्रज्ञा’ दी के नाम से प्रसिद्ध हो गई।

किसी ने उसे सुझाव दिया कि वो अपने बनाये कपड़े ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर बेच सकती है उससे उसे अच्छा मुनाफा भी होगा और कस्टमर की ताक नही देखनी पड़ेगी।

प्रज्ञा ने 4 सिलाई की मशीन लगाई और 4 लोगो को काम पर रख कर ‘ओमिला फैशन’ के नाम से अपना काम शुरू किया। उसके बनाये कपड़े और डिज़ाइन ने मार्केट में धूम मचा दी।

प्रज्ञा एक -एक दिन में 8000-8000 पीस बेचने लगी। उसका काम इतना बढ़ गया कि उसे और मशीनें लगानी पड़ी। उसकी कड़ी मेहनत ,तपश्या और जुझारूपन ने प्रज्ञा को एक कंपनी का मालिक बना दिया।

जो माँ-बाप प्रज्ञा को छोड़ चुके थे वो उसे ढूंढते हुवे गुरुग्राम पहुँचे। आज प्रज्ञा का भाई ,उसके माँ-बाप उसके साथ ही रहते है। उन्हें प्रज्ञा पर गर्व होता है ।

जिन्होंने उसे बचपन मे अभिशाप समझा था आज वो उनके लिए वरदान है। आज प्रज्ञा ऑनलाइन कारोबार में ‘ओथिला फैशन’ की मालकिन है । उनका व्यपार भारत से निकलकर विदेशों तक जा पहुंचा है।

प्रज्ञा अपने गुजरे कल को याद करते हुवे भावुक हो जाती है। किस तरह मानसिक और शारीरक शोषण का शिकार हुई वो। उन्होंने वो सारी घटनाएं कलमबद्ध कर रखी है।

प्रज्ञा आज हजारों महिलाओं के लिए ट्रेनिंग सेन्टर चलाती है। उन्हें आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देती है। वो कहती है स्त्री तब तक कमजोर है जब तक वो खुद को कमजोर समझती है।

अगर उसने सामाजिक बंधनो को तोड़ दिया तो एक स्त्री से बड़ा योद्धा कोई नही। प्रज्ञा के संघर्ष ने आज न जाने कितनी महिलाएं जो घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न और जेंडर डिस्क्रिमिनेशन की शिकार है को जीने का रास्ता दिया है।

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