जौहर प्रथा क्या है | Johar Kya Hai

जौहर प्रथा क्या है | Johar Kya Hai :कई बार आपने चित्तौड की महारानी पद्मिनी, जालौर तथा रणथम्भौर में कई जौहर हुए थे. यह मुख्य रूप से राजपूत स्त्रियों द्वारा किया जाता था.

जब वीर युद्ध में हार की कंगार पर होते तो किले में जौहर का संदेश भिजवाया जाता था. आज हम आपको जौहर प्रथा के बारे में बताने जा रहे हैं.

जौहर प्रथा क्या है  Johar Kya Hai

विधवा दहन या जौहर प्रथा क्या है  Johar Kya Hai

राजपूत समाज में में हजारों साल से केसरिया, जौहर व साके की परम्परा चली आ रही हैं. राजवंशकालीन इस व्यवस्था के आज कोई पदचिह्न नहीं हैं मगर इसका गुणगान आज भी कई क्षेत्रीय लोकगीतों में मिलता हैं.

इस प्रथा के अंतर्गत निष्ठावान पत्नी अपने मृत पति के शव के साथ जिन्दा जल जाती थी. प्राचीन काल में इस प्रथा के बहुत कम उदाहरण मिलते हैं. किन्तु मध्यकाल में यह आम प्रचलन हो गया था.

राजस्थान में प्राप्त मध्यकालीन शिलालेखों, महलों एवं हवेलियों के बाहर सतियों के हाथों के निशान से ज्ञात होता है कि विशेष रूप से राजपूतों में तथा सामान्यतः हर वर्ग में विधवा दहन प्रथा यानि जौहर का प्रचलन था.

हर लड़की को उसकी माँ यही शिक्षा देती थी कि यह वन्दनीय और प्रशंसनीय प्रथा हैं. रानी से लेकर आम औरत तक विधवा का दहन धार्मिक तथा सामाजिक दृष्टि से इतना प्रतिष्ठित था कि 18 वीं सदी में तो सती पुराण की ही रचना कर दी गई.

ऐसा कहा जाता था कि पति के साथ सती होने से पत्नी स्वर्ग की ओर गमन करती हैं. इसलिए सती होने को सहगमन भी कहा जाता था. इस प्रथा को मध्यकालीन असुरक्षित वातावरण धार्मिक, सामाजिक एवं आर्थिक कारणों ने स्थायित्व प्रदान किया.

विधवा दहन / जौहर का धार्मिक महिमा मंडन, सामाजिक प्रतिष्ठा तथा विधवा के रूप में कष्टमय और अपमानजनक जीवन जीने के स्थान पर स्त्री सम्मानजनक मृत्यु को ज्यादा उचित समझती थी. समय के साथ साथ इस प्रथा ने संस्था का रूप धारण कर लिया और अब सती होने के लिए स्त्री पर सामाजिक तथा धार्मिक दवाब रहने लगा.

यह स्थिति हो गई कि स्त्री की इच्छा के विपरीत, परिवार की प्रतिष्ठा और मर्यादा को बचाए रखने के लिए उसे जलती हुई चिता में धकेल दिया जाता था. और इस दौरान जोर जोर से बजने वाले ढोल नगाड़ों के बीच उनकी चीख को सुनने वाला कोई नहीं था.

सती से भी आगे राजस्थान में स्त्रियों से जुड़ी एक और भयावह प्रथा यह थी, जिसे स्त्री के शौर्य से जोड़कर गौरव गान किया जाता रहा हैं. यह प्रथा थी जौहर की. यह प्रथा राजपूतों में प्रचलित थी. मध्यकालीन राजस्थान निरंतर युद्धरत था. और जब युद्ध में राजपूतों की जीत की आशा समाप्त हो जाती थी तब राजपूत यौद्धा जौहर का आदेश देते थे.

और स्त्रियाँ अपने पति का इन्तजार किये बिना ही सामूहिक रूप से अग्नि में कूदकर जान दे देती थी. ताकि वे शत्रुओं के हाथ लगकर अपनी पवित्रता को नष्ट करने के लिए बाध्य न हो. मुस्लिम आक्रमण के समय रणथम्भौर, जालौर तथा चित्तौड़ का जौहर इतिहास प्रसिद्ध हैं.

सती तथा जौहर जैसी प्रथाओं से स्पष्ट है कि राजस्थान के समाज में भयावह क्रूर तथा अमानवीय प्रथाओं को धर्म, शौर्य तथा प्रतिबद्धताओं से जोड़कर किस प्रकार उन्हें समाज की सहज घटनाएं ही नहीं, प्रथा और संस्था बना दिया था.

स्त्रियों के आत्मदाह की ऐसी प्रथाओं का विरोध करने की बजाय उनका वरण करने में गौरव ही नहीं, जीवन की सार्थकता समझती थी.

जौहर क्यों किया जाता था?

सातवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी तक भारत पर अफगानों, तुर्कों और अरबों ने बारी बारी से बड़े क्रूर आक्रमण किये. लूटेरों के आक्रमण के बाद अगर कोई शासक पराजित हो जाता तो राज्य की समस्त महिलाएं, बच्चियों को बंदी बनाकर लेकर चले जाते थे. तथा उनके साथ अमानवीय व्यवहार किये जाते थे.

मगर आक्रान्ताओं की इस विचारधारा के बचाव में भारतीय शासकों ने अपनी नारियों की इज्जत व स्वाभिमान बचाने के लिए एक ऐसी प्रथा को चुना जिनमें अगर एक राज्य किसी आक्रान्ता के हाथों परास्त हो जाता तो राजमहल की समस्त नारियां स्वयं को अग्नि कुंड में अर्पित कर देती थी.

बताया जाता है कि भारत में सबसे पहला जौहर 336 ईसा पूर्व और 323 ईसा पूर्व में अलेक्जेंडर के आक्रमण के समय हुआ था. इस आक्रमण और जौहर के बारे में अधिक विवरण नहीं मिलता है मगर सातवीं से पन्द्रहवीं सदी के बीच तो यह आम बात हो गई.

साका या केसरिया क्या है? (What is Saka)

भारत में जब भी राजपूत राजाओं के खिलाफ आक्रमण होते तो लगभग सभी का पैटर्न एक जैसा हुआ करता था. दुश्मन सेना द्वारा किले की घेरेबंदी कर राशन की आपूर्ति को बाधित कर सम्बन्धित राज्य को कमजोर किया जाता था. आखिर में विवश होकर यौद्धाओ द्वारा केसरिया या साका किया जाता था.

दुश्मन से हार जाने की स्थिति में राजभवन की समस्त महिलाएं स्वयं की इच्छा से श्रृंगार कर एक अग्निकुंड में स्वयं को स्वाहा कर लेती थी. इसके अगले दिन पुरुष यौद्धा निडर होकर रणभूमि में उतरते थे. एक तरह से वे मृत्यु के भय से मुक्त होकर दुश्मनों पर टूट पड़ते थे.

कई ऐसे उदाहरण भी देखने मिलने है जिसमें राजपूत यौद्धाओं के काल स्वरूप से दुश्मन सेनाएं मैदान भाग खड़ी हुई थी. साका करते समय अधिकतम दुश्मन को नुक्सान पहुचाने की कोशिश की जाती थी.

जौहर एवं साका का इतिहास (Jauhar Pratha and Saka history)

अलेक्जेंडर के समय में (336 से 323 ईसा पूर्व)

यह भारत का पहला जौहर माना जाता हैं. द अनाबैसिस ऑफ अलेक्जेंडर नामक पुस्तक में इसका विवरण मिलता हैं. जिसके अनुसार जब सिकंदर महान ने 336 और 323 ई पू भारत के कुछ उत्तरी पश्चिमी भागों पर आक्रमण कर दिया.

सिकन्दर का हमला इतना आक्रमक और क्रूर था, अगालसुसी नामक जनजाति के लोगों ने निर्दयता मौत के बदले आत्महत्या की राह चुनी तथा कहते है बीस हजार औरतों ने अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ स्वयं को अग्नि में स्वाहा कर दिया.

सिंध का जौहर

अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं ने सातवीं सदी में पश्चिम भारत पर हमले करने शुरू कर दिए थे. सिंध के आताताईयों के हमलों की सबसे अधिक मार सिंध को झेलनी पड़ी थी. पहला अरब आक्रान्ता मोहम्मद बिन कासिम था जिसने राजा दाहिर के समय 712 ई में सिंध पर हमला किया था.

दाहिर ने उनके कई हमलें विफल किये, मगर तीन बार बुरी तरह हराने के बावजूद कासिम अपनी शक्ति बढ़ाकर पुनः लौट आता था. आखिर उसने 721 ई में चौथा आक्रमण किया और इस युद्ध में सिंध की हार करीब देख महिलाओं ने अपने धर्म की रक्षा के लिए जौहर चुना.

रणथम्भौर का जौहर

भारत में सबसे अधिक जौहर राजस्थान में ही हुए हैं. रणथंभौर के पराक्रमी यौद्धा और अपनी हठ के लिए विख्यात हम्मीर देव चौहान के समय 1301 में अलाउद्दीन खिलजी ने रणथंभौर दुर्ग पर आक्रमण कर दिया था.

खिलजी ने युद्ध जीतने के सारे दांवपेच लगा दिए मगर कोई काम बनता न देख छल कपट से उसने रणथंभौर दुर्ग में प्रवेश कर लिया. खिलजी के आक्रमण के बाद रानियों तथा दुर्ग में मौजूद सभी स्त्रियों ने जौहर कर किया, इसका वर्णन अमीर खुसरो अपनी किताब में भी करता हैं.

चित्तौड़गढ़ के तीन जौहर

भारतभूमि के स्वाभिमान की खातिर सबसे अधिक कीमत किसी ने अदा की है तो वह मेवाड़ हैं. यहाँ मुगलों के आक्रमण चलते तीन बड़े जौहर हुए हैं. पहला जौहर रणथंभौर पर खिलजी के हमले के दो साल बाद ही 1303 में हुआ.

जब राणा रतनसिंह की पत्नी पद्मिनी को पाने की चाहत में अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड पर आक्रमण कर दिया था. अपनी मर्यादा व स्वाभिमान की रक्षा के लिए पद्मिनी ने 16 हजार रानियों दासियों तथा बच्चों के साथ जौहर की अग्नि में स्नान किया था.

चित्तौड़गढ़ का दूसरा जौहर 1535 में हुआ जब बहादुरशाह ने चित्तौड़ पर आक्रमण किया. उस समय रानी कर्णावती के कंधों पर मेवाड़ का भार था. दुश्मन की अधीनता स्वीकार करने की बजाय कर्णावती ने 13 हजार रानियों व अन्य महिलाओं के साथ जौहर किया.

चित्तौड का तीसरा और अंतिम जौहर 1567 में अकबर के मेवाड़ आक्रमण के समय हुआ. इस युद्ध में मेवाड़ की बागडौर जयमल और फत्ता सेनानायकों के हाथों में थी. पराजय को नजदीक देख रानी फूलकंवर ने हजारों रानियों के लिए जौहर अग्नि में स्वयं को समर्पित कर दिया.

कंपिली जौहर : 1327 ई में मुहम्मद बिन तुगलक की सेना के कम्पिली राज्य पर आक्रमण के बाद वहां की हिन्दू प्रजा की स्त्रियों ने हजारों की संख्या में अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए जौहर कर प्राणों की आहुति दे दी.

चंदेरी जौहर

मेवाड़ के महाराणा सांगा और मुगल शासक बाबर के बीच 1528 में खानवा की लड़ाई लड़ी गई. इस युद्ध में म्दिनी राव ने राणा सांगा की मदद की थी, युद्ध में मेवाड़ी सेना को पराजय झेलनी पड़ी.

बाबर ने प्रतिशोध लेने के लिए चंदेरी पर आक्रमण कर दिया. बाबर की क्रूरता से बचने के लिए महिलाओं ने जौहर किया तथा पुरुष यौद्धाओं ने केसरिया पाग पहनकर लड़ाई लड़ी.

हुमायुँ व औरंगजेब के समय जौहर

हुमायूं के दिल्ली की सत्ता पर रहते हुए तीन बड़े जौहर हुए जिनमें प्रथम 1528 में रानी चंदेरी के नेतृत्व में दूसरा रानी दुर्गावती के नेतृत्व में 1532 ई में तथा तीसरा 1543 में रानी रत्नावली के नेतृत्व में हुआ था.

अगर बात करें धर्मांध शासक औरंगजेब की तो उसके शासन की अवधि में 1634 में बुंदेलखंड में जौहर हुआ.

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