निज भाषा उन्नति अहै निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिनु निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल, पर निबंध Nij Bhasha Unnati Ahe Essay Hindi निज भाषा का अर्थ स्वयं की अपनी भाषा से हैं.
इसे मातृभाषा का समानार्थी माना जा सकता हैं. यह हिंदी दिवस पर छोटा स्पीच भाषण निबंध एस्से स्टूडेंट्स के लिए हैं.
निज भाषा उन्नति अहै पर निबंध
भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने कालचक्र में लिखा था कि हिंदी नई चाल में ढली, वास्तव मर भारतेंदु हरीशचन्द्र मैगनीज के उदय से ही हिंदी का पुनरुत्थान मानते थे. भारतेंदु के विचार से साहित्य की उन्नति देश और समाज की उन्नति से जुड़ी हुई हैं.
हिंदी भाषा और साहित्य के विकास एवं प्रसार के राह में उस समय जो कठिनाईयां थी. उन्हें दूर करने के लिए भारतेंदु ने यह पत्रिका निकाली थी.
महावीर प्रसाद द्वेदी की सरस्वती को छोड़कर हिदी की ओर कोई ऐसी पत्रिका नही थी. जिनका इतना गहरा असर हिंदी भाषा के निखार और साहित्य के विकास पर पड़ा हो.
हिंदी भाषा जितने बड़े क्षेत्र में बोली जाती हैं, उससे बड़े क्षेत्र में केवल अंग्रेजी, चीनी एवं रुसी भाषाएँ ही बोली जाती हैं. हिंदी प्रदेश की विभिन्न बोलियों में सामान्य तत्व के अलावा उनके व्याकरण एवं शब्द भंडार की अपनी विशेषताएं हैं. यह अंतर्जनपदीय परिवेश हिंदी को प्रभावित करता हैं. और स्वयं हिंदी से भी प्रभावित होता हैं.
हिंदी के भाषागत परिवेश की यह पहली विशेषता हैं दूसरी विशेषता हिंदी उर्दू का सहस्तित्व एवं परस्पर प्रभाव हैं. इसी तरह स्टेंडर्ड हिंदी के अनेक सब स्टेंडर्ड रूप हैं.
एक तरह के रूप वे हैं. जो जनपदीय बोलियों के प्रभाव से बनते हैं. जैसे मगही आदि से प्रभावित पटना की हिंदी या भोजपुरी से प्रभावित बनारसी हिंदी.
दूसरी तरह के वे रूप हैं जो हिंदी भाषी प्रदेश में अहिन्दीभाषी के आने और बस जाने, उनकी बोलचाल से हिंदी के प्रभावित होने से बनते हैं. जैसे पंजाबी से प्रभावित दिल्ली की हिंदी. तीसरी तरह के वे रूप हैं.
जो दूसरे प्रदेशों में हिंदी भाषियों के जा बसने से, वहां दूसरी भाषा के सम्पर्क में आने से बने हैं. हिंदी के भाषागत परिवेश की यह तीसरी विशेषता हैं.
अरबी फ़ारसी और संस्कृत से हिंदी का सम्बन्ध हमारे भाषागत परिवेश की चौथी विशेषता हैं. पांचवीं एवं अंतिम विशेषता हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी का प्रभाव हैं.
भारत में लगभग 400 बोलियाँ प्रचलित हैं. बोलियों को उपभाषा का दर्जा भी प्राप्त हैं. भारत के संविधान में 22 भाषाओं को राजभाषा के रूप में मान्यता प्राप्त हैं. व्यवहारिक रूप हिंदी राष्ट्रभाषा हैं. इसे बोलने और समझने वाले समस्त देश में फैले हुए हैं.
यदि कहीं हिंदी का विरोध हैं. तो वह केवल राजनीतिक स्तर तक सीमित हैं. इसके अतिरिक्त औपचारिक रूप से हिंदी को भारत की राजभाषा का दर्जा प्राप्त हैं.
तुर्की को स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद लोगों ने तुर्की को राजभाषा बनाने में लगभग 10 वर्ष का समय लगने का अनुमान व्यक्त किया, तो तत्कालीन शासक कमालपाशा ने तुरंत कहा था कि ”समझो 10 वर्ष कल प्रातः पूरे हो जाएगे”
और अगले ही दिन से तुर्की के सभी राज काज तुर्की भाषा में होने लगे. न शब्दावली की समस्या आई न ही विविध विषयक पाठ्य पुस्तकों को अभाव आड़े आया. लेकिन हमारे देश के कर्णधार हिंदी राजभाषा सम्बन्धी राजनीतिक निर्णय लेने का साहस नही जुटा पाते हैं.
हमारे यहाँ उच्च शिक्षा का लगभग सम्पूर्ण अध्ययन अध्यापन अंग्रेजी में होता हैं. बड़ी बड़ी संस्थाएं एवं प्रतिष्ठान अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग करना सर्वथा उचित समझते हैं. वास्तव में पूर्वाग्रहों से परे स्वस्थ चिन्तन ही किसी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता हैं.
नवजागरण और स्वतंत्रता संग्राम के स्वामी दयानन्द सरस्वती और स्वामी विवेकानन्द जैसे जन नेताओं ने लोगों को जागरूक बनाने के अभियान में हिंदी भाषा की शक्ति को पहचाना और करोड़ो लोगों में राष्ट्रभक्ति का जज्बा जाग्रत किया. दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश जैसे ग्रन्थ लिखकर हिंदी को एक नई प्रतिस्ठा दिलाई.
तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी सबकी भावनाओं में ज्वार उठाने का कारण बनी. यह वही मानसिकता थी, जिसे भारतेंदु ने भारत दुर्दशा लिखकर हिंदी मानस को उद्देलित किया था.
उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में सम्पादक बाबू राव पराडकर, माधव सप्रे, मदन मोहन मालवीय, माखनलाल चतुर्वेदी आदि एक इतिहास रच रहे थे.
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यह सिलसिला रुका नही चलता ही रहा. लेकिन राजनीतिक संकल्प शक्ति में कमी होने के कारण हिंदी भाषा की स्थिति आज तक उतनी सुद्रढ़ नही हो पाई, जितनी अपेक्षित थी. वास्तव में अपनी भाषा के महत्व को समझना अत्यंत आवश्यक हैं. भारतेंदु ने इसी सन्दर्भ में कहा था.
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल
आज जब नन्हे नन्हे बच्चे विदेशी भाषा की अंगुली पकड़कर नयें सिरे से चलना सीखते हैं तो न भाषा समझ पाते हैं और न ही विषय. उनकी मौलिक प्रतिभा, मनोबल सबका हनन हो जाता हैं. गांधीजी ने कहा था. कि व्यक्ति का मौलिक चिन्तन हमेशा मातृभाषा में होता हैं.
इसलिए जब कोई बाहरी भाषा उन पर थोपी जाती हैं तो उसकी मौलिक क्षमता का हास होता हैं. इतना ही नही, उसकी वास्तविक प्रतिभा कभी भी उभर कर सामने नही आ पाती हैं. और जीवन भर सम्मान से सर नही उठा पाता हैं. बार बार असफलता ही उनके हाथ लगती हैं.
जब तक हिंदी भाषी या हिंदी के साहित्यकार स्वस्थ दृष्टिकोण से हीनभावना से मुक्त होकर हिन्दी के लिए ठोस कार्य नही करेगे, तब तक हिंदी अपना खोया हुआ सम्मान वापिस नही पा सकेगी.
और देशवासी अपना शत प्रतिशत मौलिक योगदान नही कर पाएगे. फलस्वरूप देश का विकास बाधित होकर उपेक्षा के अनुरूप परिणाम नही दे पाएगा.
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