पथिक कविता और इसका अर्थ | pathik kavita aur isaka arth
सुनने को अति नम्र भाव से स्थित हो उत्सुक मन से
पथिक देखने लगा साधू को श्रद्धा सिक्त नयन से
बोले मुनि हे पुत्र जगत को तुमने त्याग दिया है
प्रेम स्वाद चख मोहित हो वन में विश्राम लिया है.
जग में सचर जितने है सारे कर्म निरत है
धुन में एक न एक सभी को निश्चित व्रत है
जीवन भर आतप सह वसुधा पर छाया करता है
तुच्छ पत्र की भी सवकर्म में कैसी तत्परता है.
रवि जग में शोभा सरसाता सोम सुधा बरसाता
सब है लगे कर्म में कोई निष्क्रिय द्रष्टि न आता
है उद्देश्य नितांत तुच्छ तरण के भी लघु जीवन का
उसी पूर्ति में वह करता है अंत कर्ममय तन का
तुम मनुष्य को, अमित बुद्धिबल बल विलसित जन्म तुम्हारा
क्या उद्देश्यरहित है जग में तुमने कभी विचारा
बुरा न मानों, एक बार सोचो तुम अपने मन में
क्या कर्तव्य समाप्त कर दिए तुमने निज जीवन में
जिस पर गिरकर उदर दरी से तुमने जन्म लिया है
जिसका खाकर अन्न सुधा सम नीर समीर पिया है
जिस पर खड़े हुए खेले है घर बना बसे सुख पाए
जिसका रूप विलोक तुम्हारे दर्ग मन प्राण जडाये
वह सनेह की मूर्ति द्यामही माँ तुल्य मही है
उसके प्रति कर्तव्य तुम्हारा क्या कुछ शेष नही है
हाथ पकड़कर जिन्होंने तुम्हे चलना सिखाया
भाषा सीखा ह्रद्य का अद्भुत रूप स्वरूप दिखाया