वल्लभाचार्य का इतिहास जीवनी जयंती | Vallabhacharya History In Hindi

वल्लभाचार्य का इतिहास जीवनी जयंती Vallabhacharya History In Hindi: जगत गुरु श्रीवल्लभाचार्यजी मध्य काल में सगुण भक्ति के उपासक थे.

अग्नि अवतार (वैश्वानरावतार) के रूप में जाने गये वल्लभ चार्य जी कृष्ण भक्ति शाखा के स गुण धारा के मुख्य भक्त कवि थे.

महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्मान में भारत सरकार ने सन 1977 में प्रथम बार भारतीय मुद्रा पर उनके नाम का डाक टिकट जारी किया गया. Vallabhacharya History biography में उनके बारे में विस्तार से जानेगे.

Vallabhacharya History In Hindi वल्लभाचार्य का इतिहास जीवनी जयंती

Vallabhacharya History In Hindi वल्लभाचार्य का इतिहास जीवनी जयंती
पूरा नामवल्लभाचार्य
जन्म संवत1530
मृत्यु संवत1588
संतानदो पुत्र-  गोपीनाथ व विट्ठलनाथ
कर्म भूमिब्रज
प्रसिद्धिपुष्टिमार्ग के प्रणेता

वल्लभाचार्य ने कृष्ण भक्ति धारा की दार्शनिक पीठिका तैयार की और देशाटन करके इस भक्ति का प्रचार किया. श्रीमद्भागवत के व्यापक प्रचार से माधुर्य भक्ति का जो चौड़ा रास्ता खुला उसे वल्लभाचार्य ने अपने दार्शनिक प्रतिपादन व प्रचार से उस रास्ते को सामान्य जन सुलभ बनाया.

वल्लभाचार्य हिस्ट्री जीवनी जयंती History Of Vallabhacharya In Hindi

वल्लभाचार्य का जन्म 1477 ई में और देहांत 1530 ई में हुआ था. वल्लभ का दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैत हैं जो शंकर के माया वाद का खंडन करता हैं.

उन्होंने माया को ब्रह्मा की शक्ति के रूप में निरुपित किया, पर यह भी प्रमाणित किया कि ब्रह्मा उसके आश्रित नहीं हैं. वल्लभ के लिए कृष्ण ही परमब्रह्म हैं. जो परमानंद रूप हैं- परम आनन्द के दाता.

कल्पना की गई हैं कि ब्रह्मा कृष्ण का वह अविकृत रूप हैं वह हर स्थिति में बना रहता हैं, वह शुद्ध अद्वैत हैं. रमण की इच्छा से वे नर का रूप ग्रहण करते है   जहाँ मुख्य आशय जीवन के सुख और कल्याण हैं.

इस प्रकार वल्लभ  का  भक्ति चिन्तन जीव के मध्य एक घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता हैं. जहाँ ब्रह्मा लीला भूमि में संचरित होकर भी शुद्ध हैं औरजीव उससे तदाकार होकर आनन्द की उपलब्धी करता हैं.

वल्लभाचार्य के पूर्वज और माता-पिता 

आपकी जानकारी के लिए बता दे कि वल्लभाचार्य के पूर्वज भारत देश के आंध्र प्रदेश राज्य में स्थित गोदावरी के पास कांकरवाड नाम के स्थान के निवासी थे, जोकि ब्राह्मण थे और उनका गोत्र भरद्वाज था। 

इनके पिता का नाम श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित था, जो कि बहुत ही प्रकांड विद्वान और धार्मिक प्रवृत्ति के थे, जिनका विवाह इल्लम्मगारू नाम की कन्या के साथ हुआ था,

जो कि विजय नगर के राजपुरोहित शर्मा की बेटी थी। इस कन्या से विवाह के बाद इन्हें सरस्वती और सुभद्रा नाम की दो कन्या पैदा हुई थी, साथ ही राम कृष्ण नाम का एक बेटा भी पैदा हुआ था।

वल्लभाचार्य का आरंभिक जीवन

वल्लभाचार्य की शुरूआत की जिंदगी बनारस में ही व्यतीत हुई थी क्योंकि इनकी पढ़ाई लिखाई भी यहीं पर हो रही थी। वल्लभाचार्य के पिता श्री लक्ष्मण भट्ट ने वल्लभाचार्य को एक दिन गोपाल मंत्र की दीक्षा दी थी।

आपकी जानकारी के लिए बता दें कि वल्लभाचार्य बचपन से ही बहुत ही तेज बुद्धि के थे और बचपन में ही इन्हें पुराण, दर्शन, वेदांग, काव्याधि में महारत हासिल हो चुकी थी।

इन्हें हिंदू धर्म के अलावा वैष्णव, जैन, बौद्ध तथा अन्य कई धार्मिक संप्रदाय की अच्छी खासी जानकारी थी। इन्होंने अपने ज्ञान के बल पर बनारस के प्रसिद्ध लोगों में अपना स्थान बना लिया था।

वल्लभाचार्य के प्रमुख ग्रंथ

  • ब्रह्मसूत्र का ‘अणु भाष्य’ और वृहद भाष्य’
  • भागवत की ‘सुबोधिनी’ टीका
  • भागवत तत्वदीप निबंध
  • पूर्व मीमांसा भाष्य
  • गायत्री भाष्य
  • पत्रावलंवन
  • पुरुषोत्तम सहस्त्रनाम
  • दशमस्कंध अनुक्रमणिका
  • त्रिविध नामावली
  • शिक्षा श्लोक
  • 11 से 26 षोडस ग्रंथ, (1.यमुनाष्टक,2.बाल बोध,3.सिद्धांत मुक्तावली,4.पुष्टि प्रवाह मर्यादा भेद, 5.सिद्धान्त 6.नवरत्न, 7.अंत:करण प्रबोध, 8. विवेकधैयश्रिय, 9.कृष्णाश्रय, 10.चतुश्लोकी, 11.भक्तिवर्धिनी, 12.जलभेद, 13.पंचपद्य, 14.संन्सास निर्णय, 15.निरोध लक्षण 16.सेवाफल)
  • भगवत्पीठिका
  • न्यायादेश
  • सेवा फल विवरण
  • प्रेमामृत तथा
  • विविध अष्टक (1.मधुराष्टक, 2.परिवृढ़ाष्टक, 3. नंदकुमार अष्टक, 4.श्री कृष्णाष्टक, 5. गोपीजनबल्लभाष्टक आदि।)

वल्लभाचार्य और सूरदास का मिलन

वृंदावन की ओर जाने के लिए जब वल्लभाचार्य आगरा-मथुरा रोड पर यमुना नदी के किनारे किनारे जा रहे थे, तभी उन्हें वहां पर एक ऐसा अंधा व्यक्ति दिखाई देगा, जो रो रहा था।

जिस पर वल्लभाचार्य उसके पास गए और वल्लभाचार्य ने उस व्यक्ति से कृष्ण लीला का गान करने के लिए कहा। इस पर अंधे व्यक्ति जिसका नाम सूरदास था, उसने कहा कि मेरी तो आंखें ही नहीं है मैं क्या जानू की कृष्ण लीला क्या होती है।

तब वल्लभाचार्य ने सूरदास के माथे पर हाथ रखा। इतना करने पर ही सूरदास को स्वाभाविक तौर पर 5000 सालों से ब्रज में चली आ रही श्री कृष्ण की सभी लीला कथाएं बंद आंखों से ही स्मरण हो गई.

उसके बाद वल्लभाचार्य सूरदास को अपने साथ लेकर के वृंदावन पहुंचे और यहां पर आने के बाद उन्होंने सूरदास को श्रीनाथजी के मंदिर में होने वाली आरती में नए पद की रचना करके गाने का सुझाव दिया। बता दें कि इन्हीं सूरदास के हजारों पद सूरसागर में शामिल किए गए हैं। 

सूरदास ने जितने भी पद लिखे थे उनमें से अधिकतर पदों का गायन आज भी जहां जहां पर भगवान श्री कृष्ण को पुरुषोत्तम पुरुष माना जाता है, वहां वहां पर होता है और लगातार सूरदास के द्वारा तैयार किए गए पद की निर्मलता धारा बहती चली जा रही है।

दर्शन में जो शुद्धाद्वैत हैं,  वह व्यवहार अथवा साधना पक्ष  में पुष्टमार्ग कहा जाता हैं.  पुष्टि का अर्थ  हैं  ईश्वर के प्रति  अनुग्रह, प्रसाद, अनुकम्पा अथवा कृपा से पुष्ट होने वाली भक्ति. यहाँ ईश्वर की कृपा ही प्राप्य हैं, वहीँ परम सुंदर सुख और परम आनन्द हैं. कृष्ण भक्ति में गोपिकाएं मोक्ष की कामना नहीं करती, कृष्ण का दर्शन ही उनकी लालसा हैं, वहीँ उनका सुख हैं.

कृष्ण के प्रति निश्च्छल भाव से सम्पूर्ण समर्पण पुष्टि मार्ग का आग्रह हैं. इस प्रकार वल्लभाचार्य रामानुज की शास्त्रीय प्रपति और शरणागति भाव को एक नई दीप्ति प्रदान करते हैं. उन्होंने राधा की कल्पना कृष्ण की परम आह्लादिनी शक्ति के रूप में की हैं.

कृष्ण भक्ति काव्य मध्यकालीन सामंती समाज की उपज हैं. पर उसका विशीष्टय यह हैं कि वह उसे संवेदना के धरातल पर ललकारता भी हैं. सामंती देहवाद के स्थान पर वह प्रेममय रागभाव को स्वीकृति देता हैं.

जिसका पर्यवसान भक्ति में होता हैं. जिस गोकुल वृंदावन में कृष्ण लीला का सर्वोत्तम रचाया गया, वह बैकुंठ समान हैं. कृष्ण, जीव के सुख के लिए अवतरित होते हैं.

और वे निर्विकार हैं. बाल लीलाओं के माध्यम से कृष्ण का निर्मल मन उभरता हैं और  गोर्वधन लीला जैसे प्रसंगों के कृष्ण के व्यक्तित्व को लोकरक्षक का रूप स्थापित होता हैं.

क्योकि वे इंद्र को चुनौती देते हैं. कृष्ण का व्यक्तित्व खुली भूमि पर हैं. जिसमें प्रकृति की भूमिका हैं. यहाँ यथार्थ लोक संस्कृति के माध्यम से आया हैं, इसलिए उसकी पहचान कठिन हैं. कृष्ण भक्ति काव्य शास्त्र के स्थान पर लोक का वरण करता हैं. और कर्मकांड आदि की यहाँ अनिवार्यता नहीं हैं.

उपास्य उपासक के मध्य सीधा संवाद इसकी विशेषता हैं. कृष्ण की जो लोक छवि लीलाओं के माध्यम से  उभरती हैं.  वहीँ  उन्हें पूज्य बनाती हैं. इसलिए कवियों का आग्रह सगुण भक्ति पर हैं, जिसका आधार कृष्ण की विभिन्न लीलाएं हैं बाल जीवन माखन लीला, वृंदावन विहार रास आदि.

भ्रमरगीत प्रसंग में गोपिकाएं उधौं द्वारा प्रतिपादित निर्गुणों को अस्वीकार कर देती हैं. मर्यादा के स्थान पर यहाँ रागात्मकता का आग्रह हैं. कृष्ण भक्ति काव्य में अष्टछाप का विशेष उल्लेख किया जाता हैं.

वल्लभाचार्य और अष्टछाप

वल्लभाचार्य ने विशिष्टाद्वैत वादी पुष्टिमार्ग की स्थापना की. आगे चलकर उनके पुत्र विठ्ठलनाथ ने अष्टछाप कवियों की परि कल्पना की, जिन्हें कृष्ण सखा भी कहा गया.

इनमे चार वल्लभाचार्य के शिष्यभी हैं. सूरदास, कुम्भनदास, परमानन्ददास और कृष्णदास. विट्ठलनाथ के शिष्य नंददास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भजदास. वल्लभ संप्रदाय के अष्टछाप कवियों का विशेष स्थान हैं.

कहा जाता हैं कि जब गोवर्धन में श्रीनाथ की प्रतिष्ठा हो गई तब ये भक्ति कवि अष्टछाप सेवा में संलग्न रहते थे. मंगलाचरण श्रृंगार से लेकर संध्या आरती और शयन तक. अष्टछाप के कवियों में सूरदास सर्वोपरि हैं. जिन्हें भक्तिकाव्य में तुलसी के समकक्ष माना गया हैं.

तुलसीदास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रिय कवि हैं. पर उन्होंने भी स्वीकार किया हैं कि माधुर्य भाव में सूरसागर रस का आगार हैं जहाँ तक वात्सल्य तथा श्रृंगार का प्रश्न है, सूर सर्वोपरि हैं.

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