समाजवाद का अर्थ विकास परिभाषा तत्व अवयव दोष | What Is Socialism In Hindi

समाजवाद का अर्थ विकास परिभाषा तत्व अवयव दोष What Is Socialism In Hindi : उदारवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद, मिश्रित अर्थव्यवस्था के प्रकार हैं.

आज हम what is socialism अर्थात advantages and disadvantages of socialist economy में आपके समक्ष समाजवाद क्या है.

इसका अर्थ परिभाषा सिद्धांत निबन्ध देश लाभ हानि के बारे में सम्पूर्ण जानकारी What Is Socialism In Hindi में उपलब्ध करवा रहे हैं.

समाजवाद का अर्थ विकास परिभाषा तत्व अवयव दोष What Is Socialism In Hindi

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समाजवाद क्या है – What Is Socialism In Hindi

समाजवाद आधुनिक राजनीतिक युग में दोनों ही विपरीत विचारधाराओं मार्क्सवाद और कल्याणकारी उदारवाद का प्रमुख उद्देश्य रहा हैं. समाजवाद जो कि पाश्चात्य चिंतन में १९ वीं और २० वीं शताब्दी में विकसित हुआ, को सामान्यतः पूंजीवाद के विपरीत माना जाता हैं.

तत्पश्चात समाजवादी विचारधारा समस्त विश्व में तेजी से लोकप्रिय होने लगी. समाजवाद का अर्थ शोषण से रहित समता मूलक समाज और राज्य की स्थापना करना हैं. भारत समेत अनेक लोकतांत्रिक देशों ने समाजवादी लक्ष्यों को सांविधानिक मान्यता प्रदान की हैं.

समाजवादी अवधारणा का विकास (Evolution Of Socialism In Hindi)

प्राचीन काल में यूनान के स्टाईक दर्शन ने आर्थिक समानता और सामाजिक न्याय का सिद्धांत दिया. मध्यकाल में थोमस मूर की प्रसिद्ध कृति यूटोपिया में एक आदर्श समाजवादी राज्य की कल्पना प्रस्तुत की गयी. 17 वीं शताब्दी में बेकन ने अपनी पुस्तक न्यू अटलांटिस में समाजवादी विचारों का उल्लेख किया.

परन्तु समाजवाद की प्रगति की दिशा में फ्रांस राज्य क्रांति एक मील का पत्थर साबित हुई. जब क्रांति के ध्येय वाक्य में समानता स्वतंत्रता और बंधुत्व को शामिल किया गया. इसी दौर में फ्रांस के बेबियफ ने समाजवादी सिद्धांतों की वकालत की.

बेबियफ के विचारों को बाद में ब्लैंकी ने प्रसारित किया. 19 वीं शताब्दी में संत साईमन चाल्र्स फुरियर रोबर्ट ओवन जैसे विचारकों ने पूंजीवाद के दोषों को मानवीय स्वचेतना के आधार पर दूर कर सामाजिक एवं आर्थिक कल्याण की बात की.

प्रुधों ने अपनी पुस्तक व्हाट इज प्रोपर्टी में निजी सम्पति को चोरी की संज्ञा दी. राज्य को समाप्त करने की बात कहकर बकुनिन तथा अन्य अराजकतावादियों की एक नई समाजवादी परम्परा की शुरुआत कर दी. इसके पश्चात समाजवाद की अनेक धाराएं यथा फेवियनवाद, श्रेणी समाजवाद, श्रमिक संघवाद इत्यादि विकसित हुए.

जार्ज बर्नाड शा, जी डी कोल, जार्ज सोरेल जैसे विचारकों ने समाजवाद की उक्त धाराओं के सिद्धांतों का प्रतिपादन किया. 19वीं सदी में साम्यवाद, मार्क्सवादी समाजवाद का प्रादुर्भाव हुआ. इसका विधिवत सैद्धांतिक सूत्रपात 1848 में कार्ल मार्क्स द्वारा लिखित पुस्तक साम्यवादी घोषणा पत्र के साथ हुआ.

औद्योगिक क्रांति जिसने कि शहरी श्रमिक वर्ग को जन्म दिया और समाजवादी क्रांति को संभव बनाया, सबसे पहले इंग्लैंड में हुई थी. और इस कारण इंग्लैंड को समाजवादी विचारधारा का घर कहा जाता हैं. ब्रिटिश लोगों ने स्वभाव और उनके जीवन मूल्यों के कारण उनके द्वारा समाजवाद के विचार को अपनाया गया.

ईसाई धर्म के एक ग्रन्थ बाइबल या साम्यवाद के एक विचारक कार्ल मार्क्स या उसकी रचना साम्यवादी घोषणा पत्र की भांति समाजवाद का कोई एक विचारक या कोई एक ग्रंथ प्रेरणा स्रोत के रूप में नहीं हैं. जो सभी समयों के लिए कानून बनाता हो.

विलियम इबन्स्तीन के शब्दों में इंग्लैंड में अधिकांश वे प्रभावशाली समाजवादी विचारक रहे हैं. जिन्हें राजनीतिक दलों या शासन में कोई महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त नहीं थी. किन्तु उनका प्रभाव मुख्यतया उनकी नैतिक शक्ति और उनके लेखन की शैली के कारण था.

जिन विचारकों ने समाजवाद की सामान्य व्याख्या की हैं. उनमें आर एन टोनी, रैम्जे मैकडानल्ड, सिडनी और बेट्रिस बेव, हेरल्ड लास्की, क्लेमेंट एटली, एवन एम एफ डार्विन, अमेरिका में नार्मन थामस और भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरु, राममनोहर लोहिया और पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता हैं.

समाजवाद का आशय (What Is Meaning Of Socialism In Hindi)

समाजवाद प्रजातंत्र और समाजवाद इन दो विचारधाराओं और व्यवस्थाओं का समन्वय हैं. प्रजातांत्रिक मार्ग को अपनाकर ऐसे समाजवाद की स्थापना. जो स्थापना के बाद भी लोकतांत्रिक मार्ग को अपनाकर ही अपने समस्त कार्य करे उसे ही समाजवाद कहते हैं.

अतः यह विचारधारा लोकतंत्र और समाजवाद दोनों को बनाए रखना चाहती हैं. राजनीतिक क्षेत्र में इसकी आस्था मानवीय स्वतंत्रता पर आधारित उदारवादी दर्शन में हैं. लेकिन राज्य के कार्यक्षेत्र के प्रसंग में लोक कल्याणकारी राज्य के मार्ग को प्रशस्त करता हैं.

समाजवाद की कुछ परिभाषाएं (Definitions Of Socialism In Hindi)

राजनीतिक और आर्थिक शक्तियों का विकेन्द्रीकरण तथा जन सहमति के तरीकों से न कि बल द्वारा स्थापित की जाने वाली न्यायपूर्ण व्यवस्था ही लोकतांत्रिक समाजवाद हैं. – पंडित जवाहरलाल नेहरू

समाजवाद ने साम्यवाद के आर्थिक लक्ष्य (उत्पादन के साधनों पर समाज का स्वामित्व, बड़े पैमाने पर उत्पादन तथा योजनाबद्ध आर्थिक विकास) तथा पूंजीवाद के सामान्य लक्ष्यों (राष्ट्रीय स्वतंत्रता, लोकतंत्र और मानव अधिकार) को अपना लिया हैं. प्रजातंत्रिक समाजवाद का लक्ष्य दोनों में सामजस्य स्थापित करना हैं. – डॉ राम मनोहर लाल लोहिया.

न्यायमूर्ति गजेन्द्र गडकर के अनुसार- प्रजातंत्रिक समाजवाद लोक कल्याणकारी राज्य के सिद्धांतों को व्यवहार में लाने की व्यवस्था हैं. इसका आधार उदारवादी सामाजिक दर्शन हैं. इसकी मुख्य भावना यह है कि व्यक्ति को सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करना चाहिए.

इस प्रकार समाजवाद का अर्थ है लोकतांत्रिक मार्ग को अपनाकर, आर्थिक, सामाजिक न्याय की स्थापना इस विचारधारा के आधार हैं. व्यक्ति की गरिमा और सामाजिक न्याय की स्थापना करना.

भारत में समाजवाद का विकास (Evolution Of Socialism In India In Hindi)

भारत में समाजवाद का प्रारम्भ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध किये जाने वाले राष्ट्रीय संघर्ष में ही हो गया था. सर्वप्रथम सन 1929 के लाहौर अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की कार्य समिति ने घोषित किया था.

इस समिति की राय में भारतीय जनता की भयंकर दरिद्रता विदेशियों द्वारा किये गये शोषण के कारण नहीं वरन समाज की आर्थिक व्यवस्था के कारण भी हैं.

जिसका विदेशी शासक अपना शोषण जारी रखने के लिए समाज की वर्तमान सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में क्रांतिकारी परिवर्तन करने पड़ेगे.

इसी प्रकार सन 1931 में कराची अधिवेशन में कांग्रेस द्वारा पारित प्रसिद्ध प्रस्ताव के प्राक्कथन मर कहा गया था. यदि हम सर्वसाधारण के लिए स्वराज्य को वास्तविक स्वराज्य बनाना चाहते है तो इसका अर्थ केवल देश की राजनीतिक स्वतंत्रता से ही नहीं वरन सर्वसाधारण की आर्थिक स्वतंत्रता से भी हैं.

गांधीजी ने भारतीय आदर्शों और परिस्थतियों के अनुकूल समाजवाद का प्रतिपादन किया. स्वातंत्र्य आन्दोलन के काल में और बाद में पं जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, मानवेन्द्र राय, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और पं दीनदयाल उपाध्याय आदि नेताओं ने समाजवादी विचारधारा को लोकप्रिय बनाने में और मानव गरिमा की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया था.

स्वतंत्रता प्राप्ति से लेकर अब तक केंद्र के शासक दल और विपक्ष सभी के द्वारा अपने आपकों समाजवाद का पक्षधर घोषित किया जाता रहा, लेकिन व्यवहार में अब तक इस दिशा में जो कुछ किया गया हैं वह निश्चित रूप से अपूर्ण माना जाएगा क्योंकि आर्थिक आधार पर समाज में खाई अब तक काफी बड़ी हैं.

समाजवाद के प्रमुख तत्व (The Main Features and Elements Of Socialism In Hindi)

समाजवाद के कुछ सामान्य लक्षण बताये जा सकते हैं, जो इस प्रकार है.

पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों ही अतिवादी हैं प्रजातांत्रिक समाजवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों विचारधाराओं का समान रूप से विरोधी हैं. उसके अनुसार पूंजीवाद असमानता और सामान्य जनता के शोषण पर आधारित हैं.

और ऐसी व्यवस्था कभी भी समस्त जनता के कल्याण में नहीं हो सकती. इसके साथ ही साम्यवाद से उसका विरोध भी उतना ही आधारभूत है जितना कि पूंजीवाद से उसका विरोध. प्रजातंत्रिक समाजवाद साम्यवाद का विरोध इसलिए करता हैं कि साम्यवाद धर्म और नैतिकता के विरोध पर टिका हुआ हैं.

वर्ग संघर्ष और हिंसक क्रांति की धारणा में विश्वास करता हैं. और उसके अंतर्गत अधिनायकवादी को अपनाया गया हैं. प्रजातांत्रिक समाजवाद के अनुसार वे ऐसे विचार है जो कभी भी मानव जीवन के लिए श्रेयस्कर नहीं हो सकता हैं. इसी कारण व साम्यवाद को अपना प्रथम शत्रु मानता हैं. 

और नवीन साम्राज्यवाद का यंत्र कहकर उसकी भर्त्सना करता हैं. प्रजातांत्रिक समाजवाद पूंजीवाद और साम्यवाद इन दोनों का विरोध करते हुए आर्थिक और सामाजिक जीवन के क्षेत्र में एक नया मार्ग प्रशस्त करता हैं.

जनतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास– समाजवाद का यह सबसे प्रमुख लक्षण बताया जा सकता हैं. कि वह सर्वसत्तावाद के सभी रूपों का घोर विरोधी हैं. क्योकि सर्वाधिकारवाद में मानवीय व्यक्तित्व उसकी स्वतंत्रता और उसकी गरिमा को कोई महत्व प्राप्त नहीं होता हैं.

सर्वाधिकारवाद के विपरीत यह समाजवाद का पूर्ण उपासक हैं. और इसके द्वारा समाजवाद का मार्ग प्रजातंत्र के पूरक के रूप में अपनाया गया हैं. नार्मन थोमस के शब्दों में समाजवाद प्रजातंत्र की ही पूर्ण सिद्धि हैं.

प्रजातंत्रिक समाजवाद का यह दृढ विश्वास है कि आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में जो भी परिवर्तन किये जाने हो उनके लिए प्रजातांत्रिक पद्धति को ही अपनाया जाना चाहिए.

एवन एफ एम डार्विन के अनुसार प्रजातांत्रिक प्रणाली समाजवाद का अंतर्निहित अंग हैं और इसे उससे पृथक् नहीं किया जा सकता हैं.

मानवता में विश्वास पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों विचारधाराओं के अंतर्गत मानव को एक आर्थिक प्राणी माना गया हैं. किन्तु समाजवाद मानव को एक नैतिक प्राणी मानता हैं.

पूंजीवाद इस गलत धारणा पर आधारित है कि व्यक्ति केवल लाभ या दंड के भय से ही क्रियाशील होता हैं. साम्यवादी मानते है कि हिंसा, भय या आतंक जैसे अमानवीय तत्वों के आधार पर ही कोई कार्य किया जा सकता हैं.

किन्तु वस्तुतः मनुष्य एक भौतिक या आर्थिक प्राणी नहीं वरन एक नैतिक प्राणी हैं. यह केवल भौतिक विचारों से ही नहीं वरन आदर्श, आशाओं से प्रभावित होता हैं. तथा सहयोग, सामाजिकता और भ्रातत्व की भावनाओं के आधार पर कार्य करता हैं.

समाजवाद मानवीय प्रकृति के सम्बन्ध में इसी आशावादी दृष्टिकोण को अपनाता हैं और मनुष्यों के नैतिक विकास पर बल देता हैं.

आध्यात्मिक नैतिक मूल्यों का समर्थक– समाजवाद का विचार है कि समस्त सामाजिक व्यवस्था धर्म और नैतिकता पर टिकी हुई हैं और यदि इस आधार को मिटाने का प्रयत्न किया गया तो समस्त व्यवस्था ढह जाएगी.

समाजवाद के अधिकाँश प्रतिपादकों द्वारा समाजवाद की प्रेरणा धर्म से ही प्राप्त की गयी हैं. लेकिन धर्म और नैतिकता से समाजवाद का आशय कर्मकाण्ड भाग्यवाद या धार्मिक जीवन की अन्य कुप्रवृत्तियों को अपनाने से नहीं हैं. अपितु मानवता को गरिमा देने से हैं.

इसके साथ ही समाजवाद अपने आपकों किसी एक विशेष धर्म से नहीं वरन सभी धर्मों को समान रूप से प्रतिपादित नैतिकता और आध्यात्मिकता के सामान्य सिद्धांतों से ही सम्बद्ध करता हैं.

वर्ग संघर्ष से कोताही– समाजवादी समाज में पूंजीपतियों और श्रमिकों की विद्यमानता को स्वीकार करते हुए भी वर्ग संघर्ष को नहीं मानता हैं. वर्ग संघर्ष की भावना दूषित और हिंसात्मक वातावरण को जन्म देती हैं.

और औद्योगिक क्षेत्र में उत्पादन बढ़ाने के बजाय गतिरोध का कारण बनती हैं. समाजवाद के अनुसार पूंजीपति और मजदूर वर्ग के हितों में एकता स्थापित की जा सकती हैं. और समाजवाद का मूल मंत्र वर्ग संघर्ष की अपेक्षा सामजस्य और सहयोग पर आधारित हैं.

आर्थिक राजनीतिक आजादी के हिमायती– साम्यवादी, आर्थिक स्वतंत्रता को ही व्यक्तियों के लिए अति आवश्यक मानता हैं. उनके अनुसार काम का अधिकार, उचित पारिश्रमिक और अवकाश का अधिकार ही व्यक्तियों के लिए सब कुछ हैं.

दूसरी ओर पूंजीवाद नागरिकों की राजनीतिक स्वतंत्रता पर बल देता हैं. लेकिन यहाँ आर्थिक स्वतंत्रता के महत्व को स्वीकार नहीं किया जाता.

लेकिन समाजवादी व्यवस्था व्यक्ति के लिए विचार, भाषण, संगठन और सम्मेलन आदि की राजनीतिक स्वतंत्रताएं तो अवश्य मानता ही है साथ ही यह भी मानता है कि राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता के साथ साथ आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिये.

उत्पादन और वितरण पर जनतांत्रिक नियंत्रण– पूंजीवादी व्यवस्था में सामान्य जनता को राजनीतिक प्रश्नों के सम्बन्ध में निर्णय लेने की शक्ति तो प्राप्त होती हैं लेकिन सामान्य जनता को आर्थिक क्षेत्र में प्रभावित करने की क्षमता नहीं होती हैं.

समाजवाद इस व्यवस्था को दोषपूर्ण मानता हैं. उसकी धारणा हैं कि अर्थव्यवस्था पर जनतांत्रिक सरकार का नियंत्रण होना चाहिए. अर्थात सामान्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित संसद द्वारा अर्थव्यवस्था पर नियंत्रण रखा जाना चाहिए.

ब्रिटिश विचारक आर एच एस क्रासमैंन के शब्दों में समाजवाद द्वारा उस समस्त सत्ता को चुनौती दी जानी चाहिए, चाहे वह किसी भी हाथों में निहित हो जो उत्तरदायी या अर्द्ध उत्तरदायी हैं जिस प्रकार नगरपालिका की व्यापारिक एजेंसियां नगरपालिका परिषद के प्रति उत्तरदायी होती हैं. उसी प्रकार से प्रत्येक राष्ट्रीयकृत उद्योग पूर्ण रूप से संसद के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए.

उत्पादन का लक्ष्य समाजीकरण– समाजवाद के द्वारा प्रारम्भ में हर क्षेत्र में राष्ट्रीयकरण पर अधिक बल दिया गया था. किन्तु शीघ्र ही यह अनुभव किया गया कि राष्ट्रीयकरण आर्थिक क्षेत्र की सभी समस्याओं का समाधान नहीं हैं.

अतः संशोधित व्यवस्था में समाजवाद द्वारा राष्ट्रीयकरण के स्थान पर समाजीकरण पर बल दिया गया. राष्ट्रीयकरण का तात्पर्य उद्योगों पर सार्वजनिक स्वामित्व से हैं.

लेकिन समाजीकरण का तात्पर्य यह है कि उद्योग चाहे सार्वजनिक क्षेत्र में हो या निजी क्षेत्र में उन पर नियत्रण की व्यवस्था राज्य के निर्देशानुसार होनी चाहिए और उनका संचालन लाभ प्राप्ति के लिए नहीं वरन सामाजिक हितों की दृष्टि से किया जाना चाहिए.

समाजीकरण इस धारणा पर आधारित है कि उद्योग के स्वामित्व से अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न उद्योग के संचालन के उदेश्य का हैं.

सम्पति के असीमित संग्रह के विरुद्ध– समाजवाद निजी सम्पति को समाप्त करने के स्थान पर उसे सिमित करने का समर्थक हैं. समाजवाद के अनुसार जो सम्पति शोषण को जन्म देती हैं उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए.

उदाहरणार्थ बड़े बड़े उद्योग धंधों पर अंतिम नियंत्रण राज्य का होना चाहिए निजी पूंजीपतियों का नही. क्योंकि पूंजीपति इन उद्योग धंधों के आधार पर सामान्य जनता को अपना दास बना सकते हैं.

लेकिन जो निजी सम्पति समाज के लिए उपयोगी भूमिका अदा करती है उसे बनाए रखा जाना चाहिए. अर्थात निजी घर, जीवनोपयोगी निजी चीजे, कृषि, हस्तशिल्प खुदरा व्यापार और मध्यम श्रेणी के उद्योगों को निजी क्षेत्र में बनाए रखा जा सकता हैं.

समाजवाद निजी सम्पति को पूर्णतया समाप्त करने की बात नहीं करता, लेकिन इस बात का अवश्य ध्यान रखता हैं कि निजी सम्पति स्वयं राज्य को अपना दास न बना ले अर्थात व्यक्ति के हाथ में असीमित पूंजी जमा न हो जाए.

श्रेष्ठ मानव जीवन का लक्ष्य समाजवाद राज्य को एक बुराई या शोषण का एक यंत्र न मानकर उसे सामाजिक सद्गुणों को विकसित करने वाली संस्था मानता हैं. और इस बात का प्रतिपादन करता है कि राज्य का कार्यक्षेत्र अधिकाधिक व्यापक होना चाहिए.

सभी समाजवादी इस बात को स्वीकार करते है कि समाज की सामूहिक शक्ति ही शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा, मनोरंजन और श्रेष्ठ सांस्कृतिक जीवन की सुविधाएं जुटा सकती हैं.

अतः राज्य के द्वारा अस्पतालों, शोध केन्द्रों, पार्कों और सार्वजनिक मांगों की अधिकाधिक व्यवस्था की जानी चाहिए. संक्षेप में राज्य के द्वारा मानव कल्याण की एक इकाई के रूप में अधिकाधिक संभव कार्य किये जाने चाहिए.

समाजवाद के प्रमुख अवयव (Major components of socialism In Hindi)

समाजवाद समाज को एक ऐसा तत्व मानता है, जिसका धीरे धीरे विकास होना चाहिए और जिनमें विकास की प्रक्रिया द्वारा स्वयं को परिवर्तित करने की क्षमता होती हैं. समाजवाद केवल समाज के सभी वर्गों के सहयोग से विकास को बढ़ाना चाहता हैं.

उनका विचार है कि समाजवाद न केवल श्रमिक वरन समाज के सभी वर्गों के लिए हितकारी है और व्यक्तियों को उच्च आदर्शों तथा नैतिकता की अपील कर जनता के बहुत बड़े भाग को इसमें सम्मिलित किया जा सकता हैं.

धैर्य, सावधानी और बुद्धिमत्ता के साथ समाजवाद का प्रचार जनता को विकास के रास्ते पर ले जाएगा और क्रांति की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी.

विचार और भाषण, प्रेस, मंच, साहित्य के प्रकाशन और अन्य प्रचार साधनों के आधार पर समाजवाद अपना विस्तार करता हैं. समाजवाद हमेशा वैधानिक साधनों से सता प्राप्त करने में विश्वास करता हैं.

समाजवाद के प्रमुख तत्व (The Main elements of socialism In Hindi)

  1. धनवानों की बढ़ती हुई आय पर आयकर लगाया जाना चाहिए और प्राप्त राशि का उपयोग निर्धनों के हित में किया जाना चाहिए.
  2. कालेधन का संग्रह हर हालत में रोका जाना चाहिए.
  3. कृषि भूमि पर जोतने वाले का अधिकार होना चाहिए.
  4. उद्योगों एवं बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए जिससे अर्थव्यवस्था पर राज्य का प्रभावी नियंत्रण हो.
  5. निजी उद्योगों का राज्य द्वारा निर्देशन किया जाना चाहिए, जिससे संचालन सामाजिक हित की दृष्टि से हो.
  6. आर्थिक असमानता तत्काल दूर की जानी चाहिए.
  7. सभी व्यक्तियों के लिए उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार उनकी योग्यता के अनुसार उचित पारिश्रमिक व अवकाश की व्यवस्था की जानी चाहिए.
  8. राज्य के द्वारा अधिकाधिक कल्याणकारी सेवाओं की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे नागरिक सुखी जीवन व्यतीत कर सके.
  9. आर्थिक विकास हेतु नियोजन की पद्धति को अपनाया जाना चाहिए.

समाजवाद के गुण (Advantage & Characteristics of Socialism In Hindi)

समाजवाद के अपने कुछ गुण है जिन्होंने इसे आज विश्व की सर्वाधिक लोकप्रिय विचारधारा बना दिया हैं. पूंजीवाद और साम्यवाद जीवन की दो परस्पर नितांत विरोधी विचारधाराएं हैं.

और इन दोनों ने अतिवादी दर्शन को ग्रहण किया हैं. समाजवाद में पूंजीवाद और साम्यवाद इन दोनों ही व्यवस्थाओं के गुणों को ग्रहण करने का प्रयत्न किया गया हैं. समाजवाद के प्रमुख गुण इस प्रकार बताए जाते हैं.

  • यह व्यक्ति और समाज दोनों के हितों का समान रूप से ध्यान रखता हैं.
  • यह पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों के ही दोषों से परिचित और अपने को उनसे दूर रखने के लिए प्रयत्नशील हैं.
  • समाजवाद व्यक्तियों के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में विश्वास करता हैं और इस दृष्टि से अधिक से अधिक संभव सीमा तक व्यक्तियों को नागरिक, राजनीतिक और आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करता हैं.
  • वह निजी सम्पति की समाप्ति नहीं चाहता, वरन सामाजिक हित में उसे केवल सिमित रखने के पक्ष में हैं.
  • समाजवाद मानवीय जीवन को व्यवस्थित रखने में धर्म और नैतिकता के महत्व को स्वीकार करता हैं और सभी धर्मों के सार मानव धर्म पर आधारित हैं.
  • यह आर्थिक और राजनीतिक सत्ता के विकेन्द्रीकरण का मार्ग अपनाता हैं.
  • सत्ता जनता द्वारा निर्वाचित संसद के प्रति उत्तरदायी होनी चाहिए.
  • यह समानता पर आधारित सामाजिक व्यवस्था की स्थापना में सहायक हैं.

समाजवाद के दोष (disadvantages & Defects of socialism)

समाजवाद को सबसे अधिक उपयोगी और व्यवहारिक विचारधारा बताया जाता है तो दूसरी ओर इसके आलोचकों की भी कमी नहीं है इसके प्रमुख दोष इस प्रकार हैं.

  • कोई स्पष्ट विचारधारा नहीं– समाजवाद अस्पष्टता और अनिश्चितता हैं. उदाहरण के लिए कुछ समाजवादी राष्ट्रीकरण पर बल देते हैं. तो कुछ अन्य समाजीकरण पर. निजी सम्पति पर किस सीमा तक नियंत्रण रखा जाए. इस सम्बन्ध में भी समाजवादियों में व्यापक मतभेद हैं.
  • एक दूसरे के विरोधी तत्वों को स्थान– जनतंत्र स्वतंत्रता में विश्वास करता है जबकि समाजवाद नियंत्रणों की व्यवस्था में. जनतंत्र और समाजवाद के परस्पर विरोध के कारण समाजवादियों की विचारधारा में भी विरोधाभास हैं.
  • प्राकृतिक संभावनाओं के विरुद्ध– यह विचारधारा समानता की धारणा पर आधारित है, किन्तु प्रकृति की दृष्टि से मनुष्य समान नहीं वरन उसमें शारीरिक शक्ति, बुद्धि और चरित्रबल का भेद होता हैं. ऐसी स्थिति में जिन व्यक्तियों ने अपनी योग्यता, परिश्रम और मितव्ययता के बल पर अन्य व्यक्तियों से अधिक सम्पति अर्जित कर ली हैं. उन्हें अपनी इच्छानुसार सम्पति के प्रयोग का अधिकार भी प्राप्त होना चाहिए. लेकिन समाजवाद परिश्रमी और योग्य व्यक्तियों की सम्पति आलसी और अकर्मण्य व्यक्तियों में बांटना चाहता हैं.
  • भ्रष्ट व्यवस्था को संरक्षण– समाजवाद में राज्य की शक्तियाँ बहुत अधिक बढ़ जाती हैं और व्यवहार में राज्य की इन शक्तियों का प्रयोग नौकरशाही के द्वारा किया जाएगा. यह एक सर्वविदित बात है कि कुनबापरस्ती, भ्रष्टाचार और लालहीताशाही नौकरशाही की कार्यविधि के अनिवार्य अंग हैं.
  • उपभोक्ताओं के हितों को नुकसान– समाजवाद में उत्पादन पर राज्य का अधिकार स्थापित हो जाने से उपभोक्ता की संप्रभुता समाप्त हो जाती हैं. उपभोक्ता को अपनी आवश्यकताएं जो कुछ उत्पादित हो चुका हैं उसके अनुसार ही पूरी करनी होगी और इसके परिणामस्वरूप स्वभाविक रूप से उनके हितों को नुकसान होगा.

निष्कर्ष (Conclusion)

समाजवाद की उपर्युक्त प्रकार से आलोचनाएं की जाती हैं लेकिन इन सभी आलोचनाओं के बावजूद यह कहा जा सकता हैं कि इन आलोचनाओं का सैद्धांतिक दृष्टि से ही कुछ महत्व हो सकता हैं.

जहाँ तक व्यवहार का सम्बन्ध हैं, हमारे सम्मुख प्रजातंत्र के समान ही समाजवाद का कोई विकल्प नहीं हैं.

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