सूरदास का जीवन परिचय Biography Of Surdas In Hindi– सूरदास हिंदी काव्य-जगत के सूर्य माने जाते हैं. कृष्ण भक्ति की अज्र्स धारा प्रवाहित करने में उनका विशेष योगदान हैं.
उनके जीवन परिचय के के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं, अधिकतर विद्वान सूरदास का जन्म वर्ष 1483 ई. और निधन संवत 1620 में मानते हैं.
एक नजर Surdas Biography Hindi व जीवन से जुड़े तथ्यों उनकी भाषा शैली और रचनाओं पर.
सूरदास का जीवन परिचय Biography Of Surdas In Hindi
जन्म वर्ष के बारे में विभिन्न मतभेद तो हैं. उनका जन्म दिल्ली के पास एक सीही ग्राम के एक निर्धन सारस्वत ब्रह्मण परिवार में हुआ था. वे जन्मांध थे. उनका कंठ बहुत मधुर था.
वे पद रचना कर गाया करते थे. बाद में सूरदास जी आगरा और मथुरा के बिच गुउघाट में आकर रहने लगे. वही श्री वल्लभाचार्य जी के सम्पर्क में आए और पुष्टमार्ग में दीक्षित हुए.
उन्ही की प्रेरणा से सूरदास ने दास्य एवं दैन्य भाव के पदों की रचना छोड़कर वात्सल्य , माधुर्य और संख्य भाव के पदों की रचना करना आरम्भ किया.
पुष्टिमार्ग के अष्टछाप भक्त कवियों में सूरदास अग्रगन्य थे. पुष्टमार्गी में भगवान् की कृपा या अनुग्रह का अधिक महत्व हैं. इसे काव्य का विषय बनाकर सूरदास अमर हो गये.
जब सूरदास का अंतिम समय निकट था. तब श्री विट्ठलनाथ जी ने कहा था ” पुष्ट मार्गी को जहाज जात हैं, जाय कच्छु लेनो होय सो लेउ “
Surdas Jeevan Parichay Biography : surdas ki jivani in hindi
सूरदास जी की रचनाओं में सूरसागर, सूरसारावली और साहित्य लहरी को ही विद्वानों ने प्रमाणिक रूप से मान्यता दी हैं. परन्तु ‘ सूरसागर’ की जितनी ख्याति हुई हैं, उतनी शेष दौ कृतियों को प्राप्त नही हुई हैं.
भाव पक्ष
सूरदास कृष्ण भक्ति की सगुण धारा के कवि थे. उनकी भक्ति को दौ भागों में विभाजित कर देखना अधिक उपयुक्त होगा. एक, श्री वल्लभाचार्य जी से साक्षात्कार से पूर्व की भक्ति जिनमे दैत्य भावना और सुर की गिडगिडाहट अधिक हैं.
दूसरी श्री वल्लभाचार्य जी से सम्पर्क के बाद की भक्ति अर्थात पुष्टिमार्गीय भक्ति , जिसमे संख्य, वात्सल्य और माधुर्य भाव की भक्ति हैं. उन्होंने विनय, वात्सल्य और श्रगार तीनो प्रकार के पदों की रचना की.
उन्होनें संयोग और वियोग दोनों प्रकार के पद रचे. ‘ सूरसागर’ का भ्रमर गीत वियोग श्रगार का उत्कृष्ट उदाहरण हैं. सूर का वात्सल्य वर्णन हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि हैं. ये वात्सल्य का कोना-कोना झांक आए हैं.
कला पक्ष
सूरदास की काव्यभाषा ब्रजभाषा हैं. लोकोक्ति और मुहावरों का भी सहज रूप में प्रयोग किया हैं. उनके पदों में लक्षणा और व्यजना शब्द शक्तियों का समुचित प्रयोग मिलता हैं.
‘ सूरसारावली’ में द्रश्तिकुट पद हैं, जो दुरूह माने जाते हैं. विरह वर्णन में व्यजना शब्द शक्ति का प्रयोग अधिक हैं. सुर के सभी पद गेय हैं. उनकी भाषा शैली में भी विविधता हैं, उन्होंने अनुप्रास, यमक, श्लेष, उपमा, उत्प्रेक्षा तथा रूपक अलंकारो का प्रयोग किया हैं.
सूरदास की काव्य विशेषता
- इनकी अधिकतर रचनाएं अपने आराध्य देव श्री कृष्ण की बाल लीलाओं और गोपियों के साथ लीलाऑ पर लिखी गईं हैं.
- सूरदास के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति से मोक्ष प्राप्ति का आसान तरीका हैं.
- सूर ने वात्सल्य के साथ-साथ श्रृंगार और शांत रसों का सुंदर समिश्रण किया हैं, बालक कृष्ण की चंचलता और अभिलाषाओ का सुंदर चित्रण इनकी रचनाओं में मिलता हैं.
- सूरदास की भाषा पर अच्छी पकड़ हैं, उन्होंने न सिर्फ भाव पक्ष को महत्व दिया हैं, कला पक्ष में भी उनका काव्य खरा उतरता हैं.
- विनय और दास्य भाव की करुना तुलसी की रचनाओ से आगे बढ़ जाती हैं.
- कोमलकांत पदावली और कूट पदों की भरमार इनकी रचनाओं में देखी जा सकती हैं.
- एतिहासिक घटनाओं और उक्तियो का प्रयोग उनके काव्यों में कई जगह पर मिल जाता हैं.
संत सूरदास की जीवनी जीवन परिचय surdas history in hindi
अष्टछाप के के कवियों में सूरदास का स्थान सर्वोपरि हैं. इनका जन्म 1483 ई के आसपास माना जाता हैं. इनकी मृत्यु अनुमानतः 1563 ई के लगभग हुई.
इनके बारे में भक्ति माल और चौरासी विष्णवन की वार्ता से थोड़ी बहुत जानकारी मिल जाती हैं. आइने अकबरी और मुंशियात अब्दुल फजल में भी सूरदास का उल्लेख हैं. किन्तु वे बनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं.
जनश्रुति यह अवश्य हैं कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे. भक्तमाल में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा हैं. तथा इनकी अन्धता का उल्लेख हैं.
वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गये और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण चरित्र विषयक पदों की रचना करने लगे. कालान्तर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने इन्हें कीर्तन का कार्य सौपा.
सूरदास के विषय में कहा जाता हैं कि वे जन्मांध थे. उन्होंने अपने जन्म का आंधर कहा भी हैं. लेकिन सूर काव्य में प्रकृति और जीवन का जो सूक्ष्म सौन्दर्य चित्रित हैं.
उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे. उनके विषय में ऐसी कहानी भी मिलती हैं कि तीव्र अन्तर्द्वन्द के किसी क्षण में उन्होंने अपनी आँखे फोड़ ली.
उचित यही मालुम पड़ता हैं कि वे जन्मांध नहीं थे. कालान्तर में अपनी आखों की ज्योति खो बैठे थे. सूरदास अब अंधों को कहते हैं. यह परम्परा सूर के अंधे होने से चली हैं. सूर का आशय शूर से भी हैं. शूर और सती मध्यकालीन भक्त साधकों के आदर्श थे.
सूरदास के पहले ब्रजभाषा में काव्य रचने की परम्परा तो मिल जाती हैं किन्तु भाषा की यह प्रौढ़ता, चलतापन और काव्य का यह उत्कर्ष नहीं मिलता. ऐसा लगता है कि सूर ब्रजभाषा काव्य के प्रवर्तक न हो, किसी परम्परा के चरमोत्कर्ष हो.
आचार्य शुक्ल ने सूर को एक ओर जयदेव, चंडीदास और विद्यापति की परम्परा से जोड़ा हैं दूसरी ओर लोकगीतों की परम्परा से हैं. विद्यापति और सूरदास में जो निरीहता, तन्मयता मिलती हैं अनुभूतियों को जिस प्रकार बाह्य प्रकृति के ताने बाने में बुना गया हैं, वह लोकगीतों की विशेषता हैं.
लगता हैं कि लोकजीवन और साहित्य में राधा कृष्ण की जो परम्परा जो पहले से चली आ रही थी, वह भक्तिकाल में प्रकट हुई. जयदेव का गीत गोविन्द, विद्यापति की पदावली, चंडीदास का काव्य और सूरदास का सूरसागर उसी परम्परा से जुड़े हुए हैं.
सूरदास वात्सल्य और श्रृंगार के कवि हैं. भारतीय साहित्य क्या, संभवतः विश्व साहित्य में कोई कवि वात्सल्य के क्षेत्र में उनके समकक्ष नहीं हैं. यह उनकी ऐसी विशेषता हैं कि केवल इसी के आधार पर वे अत्यंत उच्च स्थान के पदाधिकारी माने जा सकते हैं.
बाल जीवन का पर्यवेक्षण एवं चित्रण महान सह्रदय और मानवप्रेमी व्यक्ति ही कर सकता हैं. सूरदास ने वात्सल्य एवं श्रृंगार का वर्णन लोक सामान्य की भाव भूमि पर किया हैं.
मार्मिकता, मनोवैज्ञानिकता, स्वाभाविकता जीवन में ही यथार्थ होते हैं. तुलसी की अपेक्षा सूर का विषय क्षेत्र सीमित अवश्य हैं. किन्तु सूर ने राधाकृष्ण की प्रेमलीला और कृष्ण की बाल लीला को प्रकृति और क्रम के विशद क्षेत्र का सन्दर्भ प्रदान कर दिया हैं.
लोक साहित्य में यह सन्दर्भ सहज तौर पर जुड़ा दिखलाई देता हैं. सूर ने अपनी रचना में प्रकृति और जीवन के क्रम के क्षेत्रों को अचूक कौशल से उतार दिया हैं. लोक साहित्य की सहज जीवन्तता जितनी सूर के साहित्य में मिलती हैं, हिंदी के किसी कवि में नही.
सूर की बाल लीला वर्णन अपनी सहजता, मनोवैज्ञानिकता एवं स्वाभाविकता में अद्वितीय हैं. उनका काव्य बाल चेष्टाओं के स्वाभाविक मनोहर चित्रों का भंडार हैं.
भक्ति ने भगवान का मानवीकरण कर दिया था. सूर के कृष्ण सामान्य गृहस्थ बालक बन गये हैं. जो हठ करके आंगन में लोटने लगते हैं. काहे को आरि करत मेरे मोहन, यों तुम आंगन लेटी.
यशोदा दही मथ रही थी. कृष्ण हठ करने लगे. आकर आंचल पकड़ लिया. दही जमीन पर ढुलक गया. कृष्ण चलना सीख रहे हैं. पैर डगमगाते हैं. यशोदा उन्हें हाथ पकडकर चलना सिखाती हैं. सिखवत चलन जशोदा मैया, अरबराय करि पानि गहावती डगमगात धरै पैयाँ.
सूरदास का यहाँ राधा कृष्ण प्रेम परिचय से विकसित होता हैं. वह प्रकृति और कर्म क्षेत्र की पृष्ठभूमि में पुष्पित पल्लवित होता हैं. गोचारण जीवन में प्रकृति का पूरा अवकाश हैं. सूर के राधा कृष्ण की प्रेमलीला में प्रकृति गाएं और ग्वाल बाल का महत्वपूर्ण स्थान हैं.
इसी से उनकी प्रेमलीला जीवन से कहीं कटी अलग थलग नहीं हैं. राधा और कृष्ण के प्रथम परिचय का जो चित्र सूर ने खीचा हैं वह उनके लोक परिचय का प्रमाण हैं. साहित्य में प्रेम के सूत्रपात का ऐसा जीवंत चित्र दुर्लभ होगा.
सूरदास द्वारा चित्रित राधाकृष्ण की प्रेमलीला मध्यकालीन पराधीन नारी के सहज एवं स्वाधीन जीवन का स्वप्न जैसे साकार हो उठा. यह स्वप्न सर्वाधिक साक्षात रास लीला वर्णन में होता हैं.
सूरदास के समय अर्थात 16 वीं सदी में ब्रज में नारियों को स्वाधीनता नहीं थी. जिसका वर्णन सूरसागर में मिलता हैं. गोपियाँ लोक लाज तजकर घर की चारदीवारी ही नहीं तोडती, वे कृष्ण की बांसुरी सुनकर उस सामाजिक व्यवस्था को तोडती हैं, जो नारियो को पराधीन रखती हैं.
जिस तरह तुलसी ने मध्यकालीन भारत में दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से रहित रामराज्य का स्वप्न देखा हैं वैसे ही सूर ने भी कृष्ण कथा और रास लीला के माध्यम से वक ऐसा सर्वसुखद स्वप्न देखा हैं. जिसमें नारी और पुरुष दोनों समान तौर पर स्वाधीन हैं. रास लीला सुख विभोर मानवता का सजीव गतिमय स्पन्दित चित्र हैं.
यहाँ मनुष्य सृष्टि के साथ ताल, लय, गति, प्राण, अनुभूति सभी तरह से एकमेक हो गया हैं. सूर का विरह वर्णन भी अधिकांशतः स्वाभाविक पद्धति से चित्रित हैं.
इनमें भी कृष्ण की स्मृति प्रायः दैनदिन जीवन प्रसंगों में आती हैं. सूर के विरह वर्णन की मार्मिकता का आधार विरहावस्था में ह्रदय की नाना वृतियों का स्वाभाविक पद्यति से चित्रण हैं. विरह वर्णन वहां उत्कृष्ट हैं, जहाँ गोपिकाओं की निरीह विवशता प्रकट होती हैं.
सूरदास के गेयपद मुक्तक हैं. किन्तु उनमें प्रबंधात्मकता का रस हैं इसलिए उन्हें गेयपद के साथ साथ लीलापद भी कहा जा सकता हैं. वे ब्रजभाषा के प्रथम प्रतिस्थित कवि हैं
उनकी भाषा में साहित्यिकता के साथ चलतापन एवं प्रवाह भी हैं. कहीं कहीं वे गीत गोविन्द के वर्णानुप्रास की शैली भी अपना लेते हैं.
उनकी कविता में लोकसाहित्य की सरलता ही नहीं काव्य परम्परा से सुपरिचित रुढियों का उपयोग भी हैं. सूर की एक अन्य विशेषता नवीन प्रसंगों की उद्भावना हैं.
उन्होंने कृष्ण कथा, विशेषतः बाल लीला एवं प्रेम लीला के अंशों को नवीन मनोरंजक वृतों से भर दिया हैं. जैसे दान लीला, मान लीला, चीरहरण आदि.
गेयपदों में सूरदास ने पूरे ब्रज की जो दारुण व्यथा उभारी हैं वह व्यथा प्रभाव की दृष्टि से नाटकों और महाकाव्यों में मिलनेवाली करुणा के समान हैं.
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