Biography Of Swami Keshwanand In Hindi | स्वामी केशवानंद की जीवनी: निर्धन ढाका परिवार में जन्में केशवानंद स्वतंत्रता सेनानी व महान समाज सुधारक थे.
इनके बचपन का नाम बीरमा था पूर्व में इनका परिवार मगलूणा से रतनगढ़ में आ बसा था. इनके माता पिता का बचपन में ही देहांत हो गया था,
इस वजह से इनका लालन पोषण ठाकरसी दारा किया गया. जो अपने ऊट के जरिये माल ढोकर परिवार का गुजर बसर करती थी.
स्वामी केशवानंद की जीवनी
पूरा नाम | स्वामी केशवानन्द |
जन्म | 1883 |
मृत्यु | 1972 |
पहचान | स्वतंत्रता सेनानी एवं समाज सुधारक |
स्थान | सीकर, राजस्थान |
पिता का नाम | ठाकरसी |
माता का नाम | सारा |
बचपन नाम | बीरमा |
शिक्षा संत के रूप में प्रसिद्ध स्वामी केशवानंद का जन्म सीकर जिले के मंगलूणा गाँव में 1883 ई में चौधरी ठाकरसी के घर हुआ. इनके बचपन का नाम बीरमा था.
1904 में फाजिल्का में उदासी साधु कुशलदास के सम्पर्क में आये, यहाँ इन्होने संस्कृत सीखी. प्रयाग में कुम्भ मेला देखने के दौरान इनके संस्कृत के शुद्ध वाचन से प्रभावित होकर अवधूत हीरानन्द ने इनका नाम केशवानंद रख दिया.
गांधीजी से प्रभावित होकर केशवानंद ने 1921 से 1931 ई तक स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लिया और जेल गये. इसी दौरान इन्होने 1925 ई में अबोहर में साहित्य सदन की स्थापना की. और यहीं से हिंदी मासिक पत्रिका दीपक का प्रकाशन किया.
इन्होने चल पुस्तकालय के माध्यम से पंजाब और जम्मू कश्मीर में राष्ट्र भाषा हिंदी का प्रचार प्रचार किया. केशवानंद ने 1932 ई में संगरिया में जाट विद्यालय का संचालन संभाला और उसे मिडिल स्तर से महाविद्यालय स्तर तक पहुचाया.
जिसमें कला, कृषि, विज्ञान तथा महाविद्यालय के अतिरिक्त शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय संग्रहालय एवं ग्रामौत्थान विद्यापीठ बना दिया.
इन्होने 1944 से 1956 ई तक बीकानेर में रेगिस्तानी गाँवों में लगभग 300 पाठशालाएं खुलवाई तथा अनेक स्थानों पर चलते फिरते वाचनालय एवं पुस्तकालय स्थापित किये.
स्वामी केशवानंद ने रूढ़ियों, अंधविश्वासों, नशा सेवन, दहेज प्रथा, मौसर, छुआछूत आदि के विरुद्ध आंदोलन चलाया.
इन्होने राष्ट्र सेवा, दलितोंउद्धार एवं शिक्षा प्रसार में अपना जीवन लगा दिया, उन्हें 1952 से 1964 ई तक राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया. 13 सितम्बर 1972 को दिल्ली में इनकी मृत्यु हुई.
प्रारंभिक जीवन
स्वामी केशवानंद जी की गिनती राजस्थान के महान शिक्षा-संत, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक, कला-मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ और निष्काम कर्मयोगी में की जाती हैं, इनका जन्म 1883 में सीकर के लक्षमणगढ़ के एक छोटे से गाँव में जाट परिवार में हुआ था.
इनको बचपन में बीरमा नाम से पुकारा जाता था, जब ये महज पांच साल के थे तभी इनका परिवार रतलागढ़ शहर जाकर बस गया,
यहाँ इनके पिताजी ठाकरसी सेठ साहूकारों के सामान को ऊंट के जरिये लाया ले जाया करते थे. 1990 में जब बीरमा जी की आयु 7 वर्ष थी तभी उनके पिताजी का भी देहावसान हो गया.
पिताजी के देहावसान के पश्चात 1897 में ये अपनी माँ के साथ केलनिया में चले गये, मगर जीवन में विपदाओं का अंत यहाँ भी नहीं हुआ, भयंकर अकाल के चलते जीवन निर्वहन करना मुश्किल हो गया.
पाताल का पानी सुख गया, अन्न के दर्शन सुलभ नहीं हो पा रहे थे, ऊपर से सामंतों के अत्याचार ने जीवन की मुशिब्ते बढ़ा रखी थी. इसी बीच साल 1899 में बीरमा जी की माँ का देहावसान भी हो चला,
शिक्षा
माता पिता के देहावसान के बाद केशवानंद जी ने मरु धरा को छोड़ने का निश्चय किया. आजीविका की तलाश में वे पंजाब चले गये तथा उन्होंने कुशलदास जी से सम्पर्क किया तथा उनसे शिक्षा लेने का निवेदन रखा. मगर एक गृहस्थी के रूप में उन्हें वैदिक संस्कृत सीखने की अनुमति नहीं थी.
इस तरह साल 1904 में संस्कृत सीखने के उद्देश्य से सन्यास धारण किया और साधु बन गये. गुरु ने अब उन्हें स्वामी केशवानंद नाम दिया. गुरु के साथ आश्रम में रहकर इन्होने संस्कृत, हिंदी तथा पंजाबी का ज्ञान प्राप्त की.
स्वतंत्रता सेनानी
एक सन्यासी के रूप में केशवानंद जी का समाज तथा क्रांतिकारियों के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध था. उन्होंने आर्य समाज तथा कांग्रेस की सभाओं में भाग लेना शुरू कर दिया था. विभिन्न कांग्रेस अधिवेशनों में आना जाना हुआ, इस दौरान वे अब्दुल गफ्फार खान, मदन मोहन मालवीय जी से भी मिले.
1919 में जलियावाल बाग़ हत्याकांड ने उन्हें भी उद्देलित कर दिया. वे महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल गये तथा फिरोजपुर से इन्होने आन्दोलन का नेतृत्व किया.
ब्रिटिश हुकुमत ने 1930 में इन्हें राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया तथा गांधी इरविन पैक्ट के बाद रिहा भी कर दिया. इससे पूर्व ये असहयोग आन्दोलन के दौरान भी फिरोजपुर जेल में 2 वर्ष के लिए बंद किये गये.
शिक्षक के रूप में कार्य
बचपन से ही माँ बाप का छाया सिर से उठ जाने के बावजूद स्वामी केशवानंद ने युवावस्था में अनेक भाषाओं की पढाई की तथा एक शिक्षक के रूप में अपनी सेवाएं दी. इन्होने करीब तीन सौ विद्यालय पचास से अधिक छात्रावास कई समाज सेवा केंद्र एवं म्यूजियम खोले.
ये 1932 में जाट स्कूल सांगरिया के निदेशक भी बने. धन के अभाव में संस्थान को बंद होने से रोकने के लिए इन्होने समाज से धन इकट्ठा भी किया.
आज इस संस्थान को ग्रामौत्थान विद्यापीठ के नाम से जाना जाता हैं यहाँ कई दुलर्भ दस्तावेजों के संग्रह भी उपलब्ध हैं.
हमें ईस बात का गर्व है कि हमें भी ग्रामोत्थान विधापीठ संगरिया में पढने का अवसर मिला
जय केशवानंद