उत्तर वैदिक काल का इतिहास | Later Vedic Period In Hindi Language

उत्तर वैदिक काल का इतिहास Later Vedic Period In Hindi Language: early vedic period यानि ऋग्वैदिक काल के बारे में हम पहले से (ऋग्वैदिक काल) में पढ़ चुके है अब हम उत्तर वैदिक काल (later vedic period) के बारे में यहाँ पढ़ेगे.

इस काल का इतिहास ऋग्वेद के आधार पर विकसित संहिता ग्रंथ, ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषदों से ज्ञात होता है, जिनका समय लगभग १००० ई.पू से ६०० ईसा पूर्व तक माना जाता हैं.

उत्तर वैदिक काल का इतिहास Later Vedic Period In Hindi

उत्तर वैदिक काल का इतिहास | Later Vedic Period In Hindi Language

उत्तर वैदिक काल की उपत्ति, विस्तार, समयावधि (origin, expansion, time period of later vedic period)

उत्तर वैदिक काल में आर्य सभ्यता पंजाब से सम्पूर्ण गंगा यमुना दोआब में फ़ैल गई. उत्तर वैदिक काल आते आते पन्चजन्यों का लोप हो गया तथा उनके स्थान पर विशाल राज्यों की स्थापना हो हुई, जिनमें गुरू तथा पंचाल सबसे अधिक प्रचलित थे.

कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था, कबायली की सरंचना में दरार पड़ना, वर्ण व्यवस्था की जटिलता बढ़ना, क्षेत्रगत राज्यों का उदय तथा धार्मिक कर्मकांडों की प्रधानता इस काल की प्रमुख विशेषताएं थी.

तकनीकी विकास के दृष्टिकोण से लोहे का प्रयोग सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रयोग था. आरम्भ में इसका उपयोग अस्त्र शस्त्रों के निर्माण में हुआ,

परन्तु धीरे धीरे इसका व्यवहार कृषि एवं अन्य आर्थिक गतिविधियों में भी होने लगा. इन परिवर्तनों का प्रभाव सभ्यता और संस्कृति पर व्यापक रूप से पड़ा. लोहे को कृष्ण अयस कहा जाता था.

लोहे के उपकरणों के प्रयोग से गंगा यमुना के दोआब क्षेत्र को साफ़ करना अधिक सुगम हो गया तथा आर्यों का विस्तार गंगा यमुना दोआब के अंतर्गत समूचे भारत में हो गया.

उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन (political life of early and later vedic period)

इस समय ऋग्वैदिककालीन अनेक छोटे छोटे कबीलों एक दूसरें में विलीन होकर में क्षेत्रगत जनपदों में बदलने लगे थे. सभा और समिति नामक सभाओं का अंत ही गया और राजा की शक्ति में वृद्धि होने लगी. स्त्रियों की सभा की सदस्यता से बहिस्कृत कर दिया गया.

राष्ट्र शब्द जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र होता हैं, सर्वप्रथम इसी समय प्रयोग में आया. उत्तरवैदिक काल में पांचाल सर्वाधिक विकसित जनपद था.

शतदल ब्राह्मण में इन्हें वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ट प्रतिनिधि कहा गया हैं. राजकीय प्रशासन में आए परिवर्तन तथा कर्मकांडों के विधानों जैसे राजसूय, अश्वमेघ, वाजपेय आदि यज्ञों ने राजा की शक्ति एवं प्रतिष्ठा को बढ़ाया.

प्रमुख यज्ञ

  • राजसूय– ऐसा माना था कि इससे राजा को दिव्य शक्ति प्राप्त होगी.
  • अश्वमेघ– यह यज्ञ में राजा को छोड़ा गया घोड़ा जिन जिन क्षेत्रों में बेरोक गुजरता था उन सारे क्षेत्रों पर उस राजा का एकछत्र राज्य माना जाता था.
  • वाजपेय- राजा रथो की दौड़ का आयोजन करता था, जिसमें राजा का रथ उसके अन्य बन्धुओं के रथों से आगे निकलता था, यह निश्चित होता था.

राजा का पद आनुवांशिक बन गया जो सामान्यतः उसके ज्येष्ठ पुत्र को मिलने लगा. राजा मंत्रियों की सहायता से समस्त राज्य का प्रशासन करता था. इन मंत्रियों को उत्तर वैदिक काल में रत्निन कहा जाता था.

उत्तरवैदिककालीन पदाधिकारी

  • पुरोहित– राजा का प्रमुख सलाहकार युद्ध में राजा के साथ जाता था समस्त धार्मिक कार्यों में सहभागी.
  • महिषी– राजा की पटरानी महिषी कहलाती थी जो प्रशासनिक कार्यो में राजा की सहायक एवं सलाहकार के रूप में काम करती थी.
  • युवराज– राजा अपने ज्येष्ठ पुत्र को इस पद पर आसीन कर उसे उतराधिकारी के रूप में प्रशासनिक कार्यों में निपुण करने का प्रयास करता था,
  • सूत– रथों के निर्माण, रखरखाव हेतु पदाधिकारी.
  • सेनानी– सेना का प्रधान पदाधिकारी
  • ग्रामिणी– ग्राम शासन का प्रधान पदाधिकारी
  • क्षत्रि– राजप्रासादों की सुरक्षा हेतु पदाधिकारी.
  • संग्रहीत्र– राज्य का कोषाध्यक्ष
  • भाग्दुध– भूमि कर की वसूली हेतु पदाधिकारी
  • अक्षवाप– जुआ आदि पर निगरानी रखने वाला

उत्तर वैदिक काल का सामाजिक जीवन (Social Life During Later Vedic Age)

परिवार में पितृ प्रधान एवं संयुक्त परिवार था. समाज में स्त्रियों की दशा का पतन हुआ है. जाति प्रथा कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगी उसमें कठोरता आ गई हैं. इंसान का जीवन चार आश्रमों में विभाजित माना जाता था.

  • ब्रह्माचर्य- २५ वर्ष की आयु तक
  • गृहस्थ- २५ से ५० वर्ष की आयु तक
  • वानप्रस्थ- ५० से ७० वर्ष की आयु तक
  • सन्यास- ७५ वर्ष से १०० वर्ष की आयु तक

शिक्षा गुरुकुल के माध्यम से दी जाती थी. मनोरंजन के साधन में लोकनृत्य, जुआ, संगीत व युद्ध थे. मनुस्मृति में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिसमें प्रथम चार प्रकार के विवाह प्रशंसनीय व शेष चार निंदनीय माने जाते थे.

उत्तर वैदिक काल का आर्थिक जीवन (later vedic period economic life)

इस युग में आर्यों के आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए. पशुपालन की अपेक्षा कृषि एवं आर्थिक जीवन का मुख्य आधार बनी. मुख्य धान गेहूं व धान थी.

गाय के अतिरिक्त भैस भी अब पालतू मवेशी बन गई. कृषि तथा पशुपालन के अतिरिक्त मछुआ, सारथी, गडरिया, स्वर्णकार, मणिहार, रस्सी बटने वाले, टोकरी बनाने वाले, धोबी, लुहार, जुलाहा आदि व्यवसायियों का उल्लेख मिलता हैं. 

इस समय मिट्टी के एक विशेष प्रकार के बर्तन बनाए जाते थे, जिन्हें चित्रित, धूसर, म्रदभांड कहा जाता था. ऋण देने एवं ब्याज लेने की प्रथा प्रचलित हो चुकी थी. सूत कातने एवं वस्त्र बुनने का व्यवसाय बहुत अधिक विकसित था. 

ब्राह्मण तथा क्षत्रिय अधिकांश राजकीय करों से मुक्त थे. राज्य को कर का अधिकांश भाग वैश्यों से ही प्राप्त होता था. यदपि शतमान, निष्क, कृष्णल एवं पाध्य शब्दों का उल्लेख मिलता हैं तथापि सिक्कों के प्रचलन का कोई पुरातात्विक प्रमाण नही है. 

व्यापार, वस्तु विनिमय के आधार पर छोटे पैमाने पर होता था. इस काल की अर्थव्यवस्था को प्राक शहरी अर्थव्यवस्था का नाम दिया जा सकता है क्योंकि ये न पूरी तरह ग्रामीण थी न ही शहरी.

उत्तर वैदिक काल का राजनीतिक जीवन (Later Vedic Period Politics, Social and Economic Life)

उत्तरवैदिक काल में यज्ञ तत्कालीन संस्कृति का मूल आधार था. यज्ञ के साथ साथ अनेक अनुष्ठान भी प्रचलन में थे. ऋग्वैदिक काल के प्रमुख देवताओं में इंद्र अग्नि और वरुण का अब पहले जैसा महत्व नही रहा. 

उनके स्थान पर इस काल में प्रजापति को सर्वोच्च स्थान प्राप्त हो गया. विष्णु को संरक्षक के रूप में पूजा जाने लगा. पूषण शूद्रों के देवता के रूप में प्रतिष्ठापित थे.

समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व काफी बढ़ गया क्योंकि वे ही धार्मिक अनुष्ठान करा सकते थे. जादू टोनों में विश्वास बढ़ गया था.

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