Maharana Raj Singh History In Hindi: महाराणा राजसिंह प्रथम का इतिहास : मेवाड़ धरा के शासक और वर्तमान राजसमंद जिले के संस्थापक महाराणा राजसिंह का नाम इतिहास में सम्मान के साथ लिया जाता हैं.
ये न केवल धर्म, कला प्रेमी थे, बल्कि जन जन के चहेते, वीर, दानी, कुशल शासक भी थे. राज सिंह का राज्याभिषेक मात्र 23 वर्ष की अवस्था में हो गया था. आज के लेख में हम उनके इतिहास जीवन परिचय को जानेगे.
महाराणा राजसिंह का इतिहास Maharana Raj Singh History In Hindi
इतिहास बिंदु | महाराणा राजसिंह इतिहास |
पिता | जगतसिंह |
माता | महारानी जनोद कुंवर मडेतनी |
उपाधि | करकातु |
जन्म | 24 सितम्बर 1629 |
मृत्यु | 1680 |
पत्नी | रामरसदे |
24 सितंबर 1629 को जन्में राजा महाराणा राज सिंह मेवाड़ के गुहिल वंश के अन्य शासकों की तरह जन प्रिय शासक थे. इनका जन्म राजनगर में हुआ था.
इनके पिता का नाम महाराणा जगत सिंह जी और मां महारानी मेडतणीजी था. मात्र 23 वर्ष की आयु में ही इनका राज्यभिशेक हो गया था. ये जनता के प्रिय, वीर, कला प्रेमी और कुशल प्रशासक थे.
राजसिंह दान के कई कार्य किये अपने जीवनकाल में इन्होने सोने चांदी, अनमोल धातुएं, रत्नादि दान दिए तथा योग्य व्यक्तियों को अपने दरबार में स्थान देकर उन्हें सम्मानित भी किया.
इन्होंने जन कल्याण के कई कार्य किये बाग बगीचे, फव्वारे, मंदिर, बावडियां, राजप्रासाद, द्धार और सरोवर आदि का निर्माण करवाया.
जितने ये प्रजापालक थे उतने ही देव भक्त भी थे. महाराणा राजसिंह का हिन्दू धर्म तथा इनके देवी देवताओं का बड़ा सम्मान था. इन्होने श्रीनाथ जी के मेवाड़ आगमन पर उनको कंधा दिया स्वागत में स्वयं हाजिर हुए और भव्य प्रतिस्थान का आयोजन करवाया.
न सिर्फ वे मन्दिरों के निर्माण में अग्रणी रहे बल्कि इन्होंने आक्रान्ताओं से इसकी रक्षा भी की. इन्होने राजपूत राजकुमारी चारूमति के सतीत्व को बचाकर नारी रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य भी किया.
राजसिंह के समय दिल्ली की मुगलिया सत्ता पर औरंगजेब का शासन था, इन्होने उसे पत्र लिखा तथा हिन्दुओं के प्रति हो रहे अत्याचार के लिए सम्राट को जिम्मेदार ठहराया. साथ ही उन्होंने हिन्दुओं पर से जजिया कर हटाने का आग्रह भी किया.
शाहजहाँ और महाराणा राजसिंह
1652 ई में इनकी गद्दीनशीनी के समय शाहजहाँ ने राणा का खिताब, पांच हजारी जात एवं पांच हजारी सवारों का मनसब देकर हाथी एवं घोड़े भेजे.
राजसिंह ने शासक बनते ही चित्तौड़ की मरम्मत के कार्य को पूरा करने का निश्चय किया. लेकिन मुगल सम्राट ने इसे 1615 ई की मेवाड़ मुगल संधि की शर्तों के प्रतिकूल मानते हुए इसे ढहाने के लिए तीस हजार सेना के साथ सादुल्ला खां को भेजा.
राजसिंह ने मुगलों से संघर्ष करना उचित न समझकर अपनी सेना को वहां से हटा लिया. मुगल सेना कंगूरे एवं बुर्ज गिराकर लौट गई. 1658 ई में जब मुगल शहजादों में उत्तराधिकारी का युद्ध छिड़ा, तब औरंगजेब एवं दारा ने महाराणा को अपनी अपनी ओर से युद्ध में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया.
मगर महाराणा किसी भी पक्ष का समर्थन नहीं करना चाहता था. क्योंकि यदि विपक्ष विजयी हो जाय तो वह मेवाड़ के लिए समस्या खड़ी कर सकता था. अतः महाराणा टालमटोल करता रहा. यहाँ तक कि अव्यवस्था का फायदा उठाकर टीका दौड़ के बहाने राज्य के तथा बाहरी मुगल थानों को भी लूटा.
औरंगजेब और महाराणा राजसिंह का इतिहास
महाराणा ने टोडा, मालपुरा, टोंक, चाकसू, लालसोट को लूटा एवं मेवाड़ के खोये हुए भागों पर पुनः अधिकार कर लिया. किशन गढ़ की राजकुमारी चारुमति से विवाह कर इसने बादशाह औरंगजेब को भी अप्रसन्न किया. औरंगजेब द्वारा 1679 ई में जजिया कर लगाने का राजसिंह ने विरोध किया.
मुगल मारवाड़ संघर्ष छिड़ने पर महाराणा राजसिंह ने राठौड़ों का साथ दिया. सिसोदिया राठौड़ गुट बनने से सम्राट औरंगजेब बड़ा चिंतित हुआ और उसने राजपूतों को नष्ट करने में अपनी शक्ति लगा दी.
युद्ध से मेवाड़ के कई इलाके वीरान हो गये. राजसिंह ने शाहजादे अकबर को अपनी ओर मिलाकर मुगल शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया. परन्तु औरंगजेब ने छल से राजकुमार अकबर और राजपूतों में फूट डलवा दी. 1680 ई में राजसिंह की मृत्यु हो गई.
महाराणा राजसिंह व रानी चारूमति का विवाह
किशनगढ़ व रुपनगर के राजा रुपसिंह राठौड़ की मृत्यु के पश्चात मानसिंह वहां के शासक बने. मानसिंह की बहन चारूमति राठौड़ की खूबसूरती में अद्वितीय थी. जब औरंगजेब को इस बारे में पता चला तो उसने मानसिंह से कहा कि हम आपकी बहन से निकाह करेगे.
औरंगजेब के दवाब में आकर मानसिंह ने हाँ कर दी मगर चारुमति राठौड़ को यह विवाह प्रस्ताव कतई मंजूर नहीं था. उसने साफ़ शब्दों में प्रस्ताव को नकारते हुए कहा कि मैं आत्महत्या कर लुंगी पर बादशाह से विवाह नहीं करुगी.
इस मानसिंह के पूरे परिवार ने निर्णय लिया कि राजपूताने में केवल महाराणा मानसिंह औरंगजेब की टक्कर ले सकते हैं. अतः मानसिंह ने अपनी बहन को राजसिंह को पत्र लिखने के लिए कहते हैं.
चारुमति अपने पत्र में लिखती हैं आप एकलिंग जी के उपासक हैं. जिस तरह कृष्ण भगवान ने शिशुपाल का वध कर भीष्म की बेटी रुकमनी से विवाह किया उसी तरह आप मुझसे विवाह कर औरंगजेब के चंगुल से छुड़ाए.
एक पत्र मानसिंह ने भी लिखा कि यदि आप ऐसे ही चारुमति को विवाह कर ले जाएगे तो औरंगजेब हमें जीवित नहीं छोड़ेगा, अतः आप सेना के साथ आए और हमें भी बंदी बनाकर साथ ले जाए.
योजना के अनुसार राजा राजसिंह और चारुमति का विवाह सम्पन्न हुआ, मगर देवलिया का हरिसिंह मेवाड़ महाराणा से प्रति शोध लेने की ताक में था. उसने दिल्ली जाकर सारी घटना औरंगजेब को बता दी.
औरंगजेब यह कहानी सुनकर बहुत क्रोधित हुआ और उसने गयासपुर व वसावर के परगने महाराणा राजसिंह से छिनकर हरिसिंह को दे दिए. दोनों के बीच युद्ध की स्थिति बन चुकी थी.
औरंगजेब ने महाराणा को जवाब मांगते हुए हरिसिंह के जरिये एक फरमान राज सिंह को भेजा, जिसमें उन्होंने लिखा कि आपने हमारी मर्जी के खिलाफ जाकर चारुमति से विवाह क्यों किया.
राज सिंह जानते थे यह युद्ध करने का उचित समय नहीं हैं. अतः उन्होंने कूट नीति से काम लेते हुए कोठरिया के रावत उदयकरण के हाथों एक खत भिजवाकर औरंगजेब को अपनी सफाई भेजी.
सलह कँवर (हाड़ी रानी) का इतिहास
राजसिंह के सेनापति और सलूम्बर उदयपुर के रावत रतनसिंह चूंडावत का विवाह बूंदी के संग्रामसिंह की पुत्री सलह कँवर के साथ हुआ था.
विवाह के दो दिन बाद ही जब रतनसिंह को युद्ध लड़ने जाना पड़ा तब सलह कँवर ने निशानी के रूप में अपना सिर भिजवा दिया था. यही सलह कँवर इतिहास में हाड़ी रानी के नाम से विख्यात हैं.
महाराणा राजसिंह के कार्य व उपलब्धियां
राजसिंह अपनी प्रजा में सैनिक एवं नैतिक प्रवृति को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से विजय करकातु की उपाधि धारण की. राजसिंह की पत्नी रामरसदे ने उदयपुर में जयाबावड़ी / त्रिमुखी बावड़ी का निर्माण करवाया था. अकाल प्रबंधन के उद्देश्य से राजसिंह ने गोमती नदी के पानी को रोककर राजसमंद झील का निर्माण करवाया था.
तथा इस झील के उत्तरी किनारे नौ चौकी नामक स्थान पर राज प्रशस्ति नामक शिलालेख लगवाया. संस्कृत भाषा में लिखित राजप्रशस्ति शिलालेख की रचना रणछोड़ भट्ट द्वारा की गई थी.
यह प्रशस्ति 25 काले संगमरमर की शिलाओं पर खुदी हुई हैं. इसी आधार पर इसे संसार का सबसे बड़ा शिलालेख माना गया हैं.
राजप्रशस्ति में मेवाड़ का प्रमाणिक इतिहास और ऐतिहासिक मुगल मेवाड़ संधि 1615 का उल्लेख मिलता है. इस प्रशस्ति में मेवाड़ के शासकों की तकनीकी योग्यता की जानकारी मिलती है. राजसिंह के प्रतिनिधि दाऊजी महाराज / दामोदर जी महाराज में मथुरा से श्रीनाथ जी और द्वारिकानाथ की मूर्ति लायें थे.
राजसिंह ने श्रीनाथ जी को सिहाड़ वर्तमान नाथद्वारा में तथा द्वारकाधीश को कांकरोली राजसमंद में प्रतिष्ठित करवाया था व उसने अम्बिका माता मंदिर उदयपुर को भी प्रतिष्ठित करवाया था.
राजसिंह पेनोरमा
राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण की ओर से राजसमंद के संस्थापक महाराणा राजसिंह की जीवन गाथा, उनके आदर्श व इतिहास को प्रदर्शित कराते एक पेनोरमा को खोला हैं. इसे 11 अगस्त 2018 से आमजन के लिए खोल दिया गया.
देशी तथा विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने तथा मेवाड़ के प्राचीन इतिहास को दिखाने के उद्देश्य से पेनोरमा में पटकथा लेखन व डिस्प्ले प्लान भी शुरू किया गया.
दो मंजिले इस पेनोरमा की तीन दीर्घा भूतल पर हैं तथा दो चित्र दीर्घा दूसरी मंजिल पर हैं. जयपुर के 2 डी मूर्तिकार आलोक बनर्जी ने यहाँ स्थिति मूर्तियाँ बनाई हैं.
राजसिंह पेनोरमा में स्थित मुख्य मॉडल में महाराणा राजसिंह के इतिहास को बड़ी बड़ी घटनाओं जैसे इनका जन्म, धर्म यात्रा, राज्याभिषेक, अजित सिंह की रक्षा का वचन, औरंगजेब को ललकारना, जजिया का विरोध, औरंगजेब को शिकस्त देना, बाण माता के आगे मस्तक होने की मूर्तियों के सुंदर मॉडल उकेरे गये हैं.
इस पेनेरमा में प्रवेश के लिए स्टूडेंट्स से 5 रु वयस्कों से 10 विदेशी पर्यटकों से 20 रु और कैमरा व फोन साथ ले जाने पर 20 रु की अतिरिक्त टिकट लेनी पड़ती हैं.
महाराणा राजसिंह की मृत्यु
1737 कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन मेवाड़ के इस बहादुर, साहसी व स्वाभिमानी सपूत का देहावसान हो गया. राणा राजसिंह की मृत्यु ओडा नामक ग्राम में उस समय हुई थी जब वे औरंगजेब के साथ एक लड़ाई में रात्री विश्राम कर रहे थे.
उनके भोजन में विष मिला देने के कारण उनकी मृत्यु हो गई. राजसिंह का अंतिम संस्कार इसी ओडा गाँव में सम्पन्न हुआ.