धर्म क्या है धर्म का अर्थ व परिभाषा | Meaning Of Religion In Hindi आज के विज्ञान, इंटरनेट, प्रोद्योगिकी व तर्क प्रधान भौतिकवादी युग में धर्म की बात करना कालभ्रमित लग सकती हैं.
इसमें पुनरुत्थानवादी, परम्परावादी या प्रतिक्रियावादी चिन्हित होने का खतरा शामिल है. विश्व के अधिकांश देशों में धर्मनिरपेक्षता को अपनी राजनीतिक व्यवस्था में एक नीति के रूप में स्वीकार कर लिया गया हैं.
धर्म का अर्थ Dharma Meaning यहाँ जानेगे.
धर्म क्या है धर्म का अर्थ व परिभाषा | Meaning Of Religion In Hindi
What Is Religion Meaning: प्रजातांत्रिक देशों में धर्म को व्यक्तिगत मामला माना जाता हैं. या उसे केवल सामजिक व्यवस्था का एक रूप माना जाता है.
अस्पष्ट रूप में धर्म का प्रयोग विधिक बाहरी अभिव्यक्तियों और आंतरिक आध्यात्मिक उत्कृष्टता दोनों के लिए होता हैं. वास्तव में आध्यात्मिकता की शुरुआत वहां पर होती हैं. जहा धार्मिकता समाप्त होती हैं.
स्वामी विवेकानंद ने आध्यात्मिकता और बाह्य औपचारिक धर्म में अंतर् करते हुए कहा कि धर्म मनुष्य में पहले से व्याप्त देवत्व व आध्यात्मिकता का विस्तार मात्र हैं.
सभी धर्म गुरुओं और आध्यात्म को समझने वाले विद्वानों ने अपने मत एवं विचार के आधार पर धर्म और आध्यात्म की परिभाषा प्रस्तुत की हैं.
Hindi Meaning Of Religion धर्म की परिभाषा
क्न्फुशियास, मोजेस, पाइथागोरेस, बुद्ध, महावीर स्वामी, मोहम्मद पैगम्बर, मार्टिन लूथर, केल्विन, गुरु नानक, थियोसोफी और आध्यात्मवाद सभी ने मनुष्य में दिव्यता का संदेश दिया हैं.
ऐतिहासिक रूप से विश्व के विभिन्न भागों में काल, स्थान व संस्कृति के अनुरूप कई धर्मों का उद्भव और विकास हुआ. समय, स्थान और सांस्कृतिक व आध्यात्मिक परिस्थतियों के परिवर्तन से धर्म में भी परिवर्तन आए.
बाहरी रूप से सभी धर्मों में मूलतः एकता के बुनियादी तथ्यों एवं मूल्यों की बात की हैं. सनातन धर्म और वैदिक धर्म का कोई एक प्रवर्तक नहीं है. विश्व के अन्य धर्मों के अपने अपने प्रवर्तक है. वर्तमान समस्या अलग अलग धर्मों और मतों में एकता स्थापित करने की चेष्टा हैं.
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने आध्यात्मिकता को धर्म का अभिकेन्द्र माना है. उनके अनुसार धर्म का सार इस बात में निहित है कि आत्मा का उन्नयन के लिए आध्यात्मिक पक्ष पर बल दे और जीवन को धर्म निरपेक्षता की ओर अग्रसर करे.
धर्म का अर्थ गीता के अनुसार (Meaning of religion, according to Geeta)
भारतीय संस्कृति और दर्शन में धर्म सदैव एक महत्वपूर्ण संकल्पना रही है. पाश्चात्य जगत में भी धर्म और राजनीति में अटूट सम्बन्ध रहा है.
जहाँ तक धर्म शब्द की परिभाषा का प्रश्न है यह अलग अलग संस्कृतियों व देशों में अलग अलग अर्थ में प्रयुक्त हुआ है. धर्म का सबसे पहले आगाज पूर्वी संस्कृतियों में हुआ है.
पूर्व में विकसित संस्कृतियों में धर्म पर सर्वप्रथम चिंतन व मनन हुआ. भारत में इसे कर्तव्य, अहिंसा, न्याय, सदाचरण तथा सद्गुण के रूप में मान्यता प्राप्त है.
सामान्यतः हम धर्म को विश्वासों और प्रथाओं की ऐसी प्रणाली के रूप में परिभाषित कर सकते है जिसके माध्यम से लोगों का समूह यह व्याख्या करता है कि उसके लिए क्या पवित्र और अलौकिक हैं.
वस्तुतः धर्म उन्नति और कल्याण में साधक होता है व्यक्ति का उच्चस्थ स्थान स्व को जानना है. जब वह स्व को जान लेता है तभी परमार्थ में जुटता है. अंग्रेजी में धर्म का समानांतर शब्द Religion रिलिजन है जिसका अर्थ है आस्था, विश्वास अथवा अपनी मान्यता.
लेकिन अंग्रेजी का शब्द रिलीजन सही अर्थों में धर्म को स्पष्ट नहीं करता. वस्तुतः धर्म किसी पूजा पद्धति, कर्मकांड, उपासना विधि अथवा संकीर्ण अर्थों में तिलक, चोटी, दाड़ी या गंडा ताबीज धारण करने का नाम नहीं हैं.
गीता में श्रीकृष्ण कहते है कि प्रत्येक मानव देहधारी को प्रकृति प्रदत्त उपहार स्वरूप विवेक प्राप्त हुआ है. यही विवेक मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ जानने और सर्वश्रेष्ठ करने के लिए उद्यत बनाता हैं.
यही मनुष्य का धर्म अर्थात स्वधर्म है. इसलिए मनुष्य को परमार्थ के कल्याण के लिए सदैव उद्यत रहना ही सही अर्थों में धर्म का अनुसरण करना हैं.
धर्म / रिलीजन का महत्व
वास्तव में प्रत्येक मनुष्य का अपना सुनिश्चित कर्म अथवा कर्तव्य निर्धारित होता हैं. जिसे उसने कर्म के आधार पर पाया अथवा निर्धारित किया हैं इसलिए श्रेष्ठ सामाजिक संरचना के लिए समाज के सभी वर्गों को व सभी व्यक्तियों को अपना अपना कर्म अर्थात अपने अपने कर्तव्यों का निष्ठापूर्वक पालन करते रहना ही धर्मानुसार आचरण करना हैं.
यह तभी संभव है जब मनुष्य स्वार्थ, संकीर्णता, अभिमान तथा दूसरों पर शासन करने की इच्छा का परित्याग करे. धर्म सर्वत्र पवित्र माना गया है लेकिन धार्मिक पवित्रता सापेक्ष्वादी हैं.
जिसको एक धर्म पवित्र मानता है संभव है उसे दूसरे धेम में घ्रणा की दृष्टि से देखा जा सकता हैं. वास्तव में मनुष्य ही यह निर्धारित करते है कि उनके लिए क्या पवित्र है क्या नही.
धर्म को एक ऐसी एकीकृत प्रणाली के रूप में परिभाषित किया जा सकता हैं. जो अपनी प्रथाओं और विश्वासों से एक समुदाय विशेष को नैतिकता से जोड़ता है. समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से धर्म हर समाज में विद्यमान होता है.
सामाजिक धर्म का मुख्य कारण सभी मानवीय गतिविधियों को एक सूत्र में बाँधने का आधार प्रदान करता हैं. अतः एक समुदाय विशेष के धर्म को उसके राजनीतिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक जीवन से पृथक करना अत्यंत कठिन हैं.
धर्म के कितने प्रकार हैं?
नीचे आपको कुछ मुख्य धर्मों के नाम दिए जा रहे हैं।
- हिंदू धर्म
- इस्लाम धर्म
- सिख धर्म
- बौद्ध धर्म
- ईसाई धर्म
- कन्फ्यूशियस
- यहूदी धर्म
- पारसी धर्म
- जैन धर्म
धर्म का महत्व क्या है?
धर्म के कुछ प्रमुख महत्व इस प्रकार है।
1: धर्म से समाज संगठित होता है
किसी भी धर्म के कारण ही उस धर्म को मानने वाले लोगों में आपस में प्यार और सम्मान बना रहता है, क्योंकि समाज को संगठित करने में धर्म की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
जो व्यक्ति एक समान धर्म को मानते हैं वह एक समान मत होने के कारण एक दूसरे का विरोध नहीं करते और समान विचारधारा होने के कारण वह एक दूसरे के सुख दुख में भी बराबर शामिल होते रहते हैं। इस प्रकार उनके बीच एक ग्रुप बन जाता है।
2: सामाजिक व्यवस्था धर्म करता है?
कई समाज शास्त्रियों ने यह मत व्यक्त किया है कि व्यक्ति को और समाज को जीवंत रखने में धर्म की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
धर्म होने के कारण ही व्यक्ति अपने धर्म के ईश्वर से डरता है और वह गलत अथवा अनैतिक कामों को करने से बचता है। इस प्रकार सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका धर्म की होती है।
3: सामाजिक नियंत्रण में धर्म सहायक होता है।
पाप और पुण्य की भावना समाज में रहने वाले सदस्यों के मन में धर्म के कारण ही पैदा होती है और धर्म के कारण ही व्यक्ति अपने व्यवहार और आचरण में समय-समय पर सुधार करता रहता है।
किसी भी धर्म में पारलौकिक शक्ति काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और पारलौकिक शक्ति हर व्यक्ति के आचरण और वर्क को भी देखती है। इसके अलावा गलत काम करने पर अथवा धर्म विरोधी काम करने पर व्यक्ति को सजा भी दे सकती है। इसी भय के कारण कई लोग गलत कामों को करने से बचते हैं।
4: धर्म समाज का कल्याण करता है।
दुनिया में जितने भी धर्म है वह सभी अपने अपने सदस्यों को हमेशा लोगों का कल्याण करने के लिए प्रेरित करते हैं। सभी धर्मों की मूल अवधारणा यही है कि वह मानव का कल्याण करें तथा जितने भी जीव जंतु संसार में पैदा हुए हैं उन सभी के प्रति दया का भाव रखें।
धर्म के कारण ही लोग धार्मिक कामों में और सामाजिक कामों में ज्यादा रुचि लेते हैं और समय-समय पर लोगों के कल्याण के लिए अलग-अलग काम करते रहते हैं।