कुंवर प्रताप सिंह बारहठ का जीवन परिचय | Pratap Singh Baharat Biography in Hindi

Pratap Singh Baharat Biography in Hindi | कुंवर प्रताप सिंह बारहठ का जीवन परिचय: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में राणा प्रताप की तरह बारहठ परिवार ने वतन के लिए सर्वोच्च त्याग कर दिया था.

प्रतापसिंह बारहठ एक युवा क्रांतिकारी थे.  क्रांतिकारी मास्टर अमीरचंद उनकी प्रेरणा के केंद्र थे. लॉर्ड हर्डिंग्स पर बम फेंकने की योजना में प्रताप सिंह भी साथ थे.

बनारस काण्ड के आरोप में बारहठ को अंग्रेजों ने जेल में बंद कर दिया. बरेली में काराग्रह में कठोर यातनाओं के कारण यह वीर जवान शहीद हो गया.

कुंवर प्रताप सिंह बारहठ का जीवन परिचय

कुंवर प्रताप सिंह बारहठ का जीवन परिचय | Pratap Singh Baharat Biography in Hindi
जन्म २४ मई १८९३
मृत्यु7 मई १९१८
पिताकेसरी सिंह बारहठ
पहचानक्रांतिकारी
स्थानशाहपुरा, भीलवाड़ा
कृत्य’बनारस षड्यंत्र’ और लॉर्ड हार्डिंग्ज मामले,
स्मारकशाहपुरा

24 मई 1893 को उदयपुर में जन्मे कुंवर प्रतापसिंह को देशभक्ति विरासत में मिली थी. इनके पिता केसरीसिंह एवं चाचा जोरावरसिंह प्रसिद्ध क्रांतिकारी थे.

1912 में वायसराय लार्ड हाडिर्ग्ज पर बम फेकते समय जोरावरसिंह के साथ प्रतापसिंह भी थे. वे बंदी बना दिए गये मगर प्रमाण के अभाव में अंग्रेज सरकार द्वारा इन्हें रिहा करना पड़ा.

बनारस षडयंत्र अभियोग में वे गिरफ्तार कर लिए गये, जहाँ ये 21 फरवरी 1915 की सशस्त्र क्रांति के लिए शस्त्र जुटाने गये थे. इन्हें बरेली जेक में रखा गया.

भारत सरकार के गुप्तचर निदेशक सर चार्ल्स क्लीवलैंड ने प्रताप को अपने साथियों का पता बताने के बदले उंचा पद देने, जब्त जागीर लौटाने, पिता व चाचा को मुक्त करने आदि प्रस्ताव रखे.

यहाँ तक की उन्हें अपनी माँ के आंसू बहाने का वास्ता भी दिया गया, इस पर प्रताप का उत्तर था. मेरी माँ रोती है तो रोने दो.

मैं अपनी माँ को हंसाने के लिए हजारों माताओं को रुलाना नहीं चाहता हूँ. क्लीवलैंड ने उन्हें घोर यातना दी. अमानुषिक यातनाओं के कारण 27 मई 1918 को प्रताप की मृत्यु हो गई.

हारकर क्लीवलैंड को यह कहना पड़ा, मैंने आज तक प्रतापसिंह जैसा युवक नहीं देखा. ये चन्द्रशेखर आजाद की तरह अपनी माँ मातृभूमि को मानने वाले सपूत थे.

प्रताप सिंह बारहठ ने हिला दिया था ब्रिटिश साम्राज्य

मात्र पच्चीस साल की आयु में ही मातृभूमि रक्षार्थ प्रताप सिंह सेंट्रल जेल में शहीद हो गये. अंग्रेजों ने इन्हें मुहं खोलने के लिए कड़ी यातनाएं दी मगर वे टस न मस हुए. अपने चाचा जोरावर सिंह के साथ मिलकर इन्होने लार्ड हार्डिग पर बम फेका था.

24 मई 1893 को उदयपुर में जन्मे बारहठ ने दयानन्द स्कूल में पढाई की. पढाई के बाद ये वीर अमीरचन्द्र जी के साथ लम्बे समय तक रहे, जब 1912 में राजधानी में दिल्ली दरबार सजाया जा रहा था.

उस समय क्रांतिकारी रास बिहारी बोस ने ब्रिटिश सरकार पर हमले के लिए चाचा जोरावर और उनके भतीजे प्रताप सिंह को चुना.

उस समय प्रताप सिंह की आयु महज 19 साल थी. 23 दिसम्बर 1912 के दिन जब वायसराय का जुलुस चांदनी चौक से गुजर रहा था तो जोरावर सिंह एवं प्रताप सिंह ने एक एक करके उन पर गोले फेकने शुरू कर दिए,

इस हमलें हार्डिंग गम्भीर रूप से घायल हो गया था. ब्रिटिश पुलिस के इस आक्रमण के बाद कान खड़े हो गये तथा इस दौरान चले गिरफ्तारी अभियान में जोरावर सिंह तो बच निकले मगर प्रताप पकड़े गये.

ब्रिटिश हुकुमत ने उन पर बनारस षड्यंत्र केस के तहत मुकदमा चलाया, सेशन कोर्ट ने उम्र कैद की सजा सुनाई गई और बरेली के केन्द्रीय काराग्रह में भेज दिए गये. अंग्रेजों ने अमानवता की सारी हदे तोड़ते हुए उन्हें प्रताड़ित किया, साथियों का नाम बताने के लिए लालच भी दिए.

वायसराय के खास मंत्री चार्ल्स क्लीवलैंड की प्रताप सिंह से बारहठ के दौरान उन्हें आश्वस्त किया गया कि अगर आप अपने साथियों और योजना के बारे में सही सही जानकारी देते हो तो बदले में सरकार आपके पिता केसरी सिंह को रिहा कर देगी, जोरावर सिंह का अरेस्ट वारंट रद्द कर देगी आपकी सारी सम्पति और घर लौटा देगे.

आपकी माँ रोज आपकी याद में फूट फूटकर रोती हैं. तब प्रताप सिंह बारहठ कहते हैं मैं अपनी माँ की ख़ुशी के लिए तैतीस करोड़ पुत्रों की माओं को नहीं रुला सकता.

उनकी दृढ़ता और राष्ट्रभक्ति के स्तर का अनुमान इसी वक्तव्य से लगा सकते हैं. आखिर 24 मई 1918 के दिन यातनाएं सहते सहते 25 साल की आयु में इन्होने दम तोड़ दिया.

स्मृति

राजस्थान के इस महान क्रांतिकारी परिवार की स्मृति में उनके भव्य स्मारक शाहपुरा में बने हुए हैं, सरकार ने उनकी हवेली को भी क्रांतिकारी म्यूजियम में बदल दिया हैं.

बरेली के जिस केन्द्रीय काराग्रह में प्रताप सिंह रहे अब उनकी स्मृति में वहां बैरक का नाम उनके द्वार का नाम भी उनका रखा गया हैं. साथ ही बैरक को उनके चित्रों द्वारा चित्रित भी किया गया हैं.

सरकार ने उनके बलिदान स्थल बरेली में 24 मई को बलिदान दिवस के मौके पर एक भव्य स्मारक का निर्माण भी करवाया हैं. राजस्थानी शैली में गुलाबी पत्थरों से मंडल एवं प्रतिमा आज भी शान से खड़ी हैं.

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