आंग्ल मैसूर युद्ध Anglo Mysore War In Hindi

आंग्ल मैसूर युद्ध Anglo Mysore War In Hindi: प्रिय मित्रों आपका स्वागत हैं आज हम अंग्रेजों एवं मैसूर राज्य के संघर्ष का सम्पूर्ण इतिहास जानेगे.

आंग्ल मैसूर युद्ध प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ (anglo mysore war First, second, third, fourth) युद्ध के कारण प्रभाव परिणाम, संधियाँ हैदर अली आदि के विषय में विस्तार से जानकारी प्राप्त करेगे. चलिए आंग्ल मैसूर युद्ध को जानते हैं.

आंग्ल मैसूर युद्ध

आंग्ल मैसूर युद्ध Anglo Mysore War In Hindi

आंग्ल मैसूर युद्ध का परिचय (Introduction to Anglo Mysore War)

18 वीं सदी के उतरार्द्ध में दक्षिण भारत में राजनीतिक घटनाओं का क्रम चार शक्तियों पर निर्भर करता था. ये शक्तियाँ थी मराठे, हैदराबाद का निजाम, मैसूर तथा अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी. मराठों का राजनीतिक प्रभाव क्षेत्र व्यापक था, किन्तु केंद्रीय संगठन प्रभावशाली नहीं था.

1748 के बाद हैदराबाद के शासक अपेक्षाकृत अयोग्य थे. जो दक्षिण की राजनीति से क्षणिक लाभ उठाना चाहते थे. मैसूर में 1761 ई में हैदर अली ने अधिकार स्थापित किया.

वह दक्षिण के अन्य शासकों की अपेक्षा योग्य होते हुए भी अन्य शक्तियों की नीति परिवर्तन से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता था. ब्रिटिश नीति भी अन्य राज्यों की भांति अस्पष्ट और परिवर्तनशील रहती थी.

इन चारों शक्तियों की परिवर्तनशील नीतियों के संघर्ष में अंग्रेजी कूटनीति अधिक सफल नहीं क्योंकि निजाम, मैसूर तथा मराठे अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए परस्पर संघर्ष में अंग्रेजों से सहायता लेना चाहते थे.

किसी एक शक्ति का निर्णय शेष दो को प्रभा वित करता था. अतः इन तीनो शक्तियों के लिए संघर्ष श्रंखला में भाग लेना आवश्यक होता था.

क्योंकि उस श्रंखला की प्रत्येक कड़ी उन्हें निर्णायक दिखाई पड़ती थी, जबकि अंग्रेज अपने राजनीतिक हितों के लिए इन्तजार कर सकते थे. इसलिए अंग्रेजों को अधिकांश अवसरों पर कूटनीतिक सफलता मिली.

इस पृष्ठभूमि में हम इस इकाई के अंतर्गत आंग्ल मैसूर युद्ध का अध्ययन करेगें जो अंग्रेजों द्वारा दक्षिण की राजनीति में अपने हितों के अनुकूल हस्तक्षेप तथा क्षेत्रीय शक्तियों के परस्पर विरोधी गठबंधन की ऐसी श्रंखला को प्रकाशित करता है.

जो मैसूर के सशक्त राज्य के अस्तित्व की रक्षा को असम्भव एवं अंग्रेजों की फूट डालो राज करो की नीति की सफलता का मार्ग प्रशस्त करती हैं.

हैदर अली (Haider ali)

हैदर एक ऐसा व्यक्तित्व था, जिसकी व्यक्तिगत योग्यता ने न केवल मैसूर की, आंतरिक राजनीति पर वर्चस्व प्राप्त किया, अपितु जिसने विदेशी शक्तियों से सैनिक तथा कुटनीतिक सहायता प्राप्त करने का यथासम्भव प्रयास किया.

किन्तु क्षेत्रीय राजनीति के विरोधाभासों, क्षेत्रीय शक्तियों से किये गये समझौतों से प्रतिबद्धता के अभाव में, अंग्रेजी नीति अन्तः सफल रही और लम्बे संघर्ष की परम्परा के बावजूद हैदर तथा टीपू का संघर्ष विफल रहा.

मैसूर उन राज्यों की श्रंखला की एक और कड़ी बन गया, जिन्हें एक एक कर अंग्रेजों ने पराजित किया, जिससे भारत ब्रिटिश शक्ति का संगठित मुकाबला नहीं कर सका.

मैसूर राज्य के पतन के बाद अंग्रेजों के लिए दक्षिण में मराठों की अकेली ताकत से लड़ना आसान हो गया. इस आर्टिकल में हम आंग्ल मैसूर युद्ध के विभिन्न पड़ावों तथा कारणों एवं घटनाओं तथा परिणामों की चर्चा करेंगे.

मैसूर राज्य के अंग्रेजों से सम्बन्ध (Relations of Mysore State with British)

1761 ई में हैदर अली ने अपनी सैनिक, राजनीतिक योग्यता तथा व्यक्तिगत परिश्रम के आधार पर मैसूर राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया था. 1762 से ही वह इस बात के लिए प्रयत्नशील था कि वह मराठों के विरुद्ध अपनी स्थिति मजबूत करने में अंग्रेजों की सहायता प्राप्त कर सके.

हैदर अली की यह योजना था कि वह यूरोपीय शक्तियों की परस्पर प्रतिद्वंदिता से लाभ उठाकर आवश्यकता पड़ने पर अपने लिए सैनिक सामग्री तथा सहायता प्राप्त कर सके.

इसी दृष्टि से उसने फ्रांसीसियो से घनिष्ठता बढ़ाई थी जिसे अंग्रेजों ने हमेशा अपने विरुद्ध समझा. दक्षिण भारत की राजनीति में संतुलन बनाये रखने के लिए तथा मराठों को मद्रास से दूर रखने के लिए अंग्रेजों को मैसूर के अस्तित्व की आवश्यकता थी.

किन्तु हैदर अली की योग्यता, कुटनीतिक सूझबूझ, सैनिक कुशलता ही अंग्रेजों की दृष्टि में उसका दोष था क्योंकि इन योग्यता ओं के आधार पर मैसूर राज्य अत्यधिक शक्तिशाली बन सकता था और ऐसा शक्तिशाली राज्य दक्षिण के संतुलन को बिगाड़ कर बढ़ती अंग्रेजी सत्ता के लिए खतरा हो सकता था.

इसलिए अंग्रेजों ने हैदर जैसे योग्य नेता को समर्थन देना अपने हितों के विरुद्ध समझा. यही नहीं, मैसूर की बढ़ती शक्ति को दबाने के लिए अंग्रेज शीघ्र ही बहाना ढूढने लगे जो दक्षिण भारतीय राजनीति ने शीघ्र ही उन्हें प्रदान कर दिया.

इसी के साथ मैसूर तथा अंग्रेजों के मध्य युद्ध की उस श्रंखला की शुरुआत हुई जो हैदर अली की मृत्यु के बाद ही टीपू के नेतृत्व में जारी रही और अंग्रेजों ने मैसूर राज्य के पतन के बाद ही राहत की सांस ली.

प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध (1767-69 ई) के कारण (first anglo mysore war causes Reasons)

first anglo mysore war in hindi–  प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध मद्रास सरकार द्वारा दक्षिण की राजनीति में भाग लेने के कारण हुआ.

अंग्रेजों ने बंगाल में आशातीत सफलता प्राप्त की थी और मद्रास सरकार इसी प्रकार की सफलता को दक्षिण में दोहराना चाहती थी.

1765 में हैदराबाद के निजाम ने हैदरअली के विरुद्ध अंग्रेजों से सहायता मांगी और उत्तरी सरकार के इलाके को प्राप्त करने के बदले में अंग्रेज निजाम को सहायता देने के लिए तैयार हो गये.

मराठे भी इस संधि में सम्मिलित हो गये और इस प्रकार 1766 में पहले मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया किन्तु हैदर अली ने बहुत चालाकी से काम किया.

उसने इस गुट को तोड़ने तथा मराठों के आक्रमण से बचने के लिए कूटनीति का सहारा लिया. उसने आक्रमणकारी मराठों को 35 लाख रूपये देने का वादा किया.

आधा धन उसी समय दे दिया गया आधे धन के बदले में कोलार के जिले को रहन के रूप में मराठों को दे दिया. मराठे इससे संतुष्ट होकर वापस चले गये.

हैदर ने निजाम को भी प्रलोभन देकर अपनी ओर मिला लिया. मई 1767 ई में निजाम ने अंग्रेजों के विरुद्ध हैदर की सहायता करने के लिए एक संधि पर हस्ताक्षर किये क्योंकि निजाम अंग्रेजों को उत्तरी सरकार देने के पक्ष में नहीं था.

युद्ध का आरंभ और घटनाएं (Start of war and events)

निजाम और अंग्रेजों ने अप्रैल 1767 ई में हैदर पर आक्रमण किया किन्तु मई 1767 में निजाम हैदर की ओर मिल गया. युद्ध अब अंग्रेजों और हैदर अली में ही रह गया.

अंग्रेज इस समय मैसूर में हैदर की शक्ति को आंतरिक विद्रोह करवा कर भी समाप्त करने की योजना बना रहे थे. सितम्बर 1767 ई में ब्रिटिश सेनापति स्मिथ को हैदर तथा निजाम की सम्मिलित सेनाओं से युद्ध करना पड़ा तथा त्रिनोपली वापस लौटना पड़ा जहाँ कर्नल वुड की सेना भी उसके साथ हो गई.

त्रिनोपली के युद्ध में निजाम और हैदर अली की सेनाओं को असफलता मिली और दिसम्बर 1787 में हैदर अली की एक अन्य स्थान पर भी हार हुई.

इन असफलताओं को देखकर और यह जानकर कि अंग्रेज हैदराबाद पर भी आक्रमण करने के लिए सेना भेज रहे हैं, निजाम का साहस टूट गया और मार्च 1768 में उसने पुनः पाला बदलते हुए हैदर अली का साथ छोड़कर अंग्रेजों से संधि कर ली.

निजाम के साथ मद्रास सरकार द्वारा की गई यह संधि अंग्रेजों और मैसूर राज्य के बीच स्थायी झगड़े का कारण बनी क्योंकि इस मैत्री में अंग्रेज ने हैदर के अस्तित्व को समाप्त करने तथा बंगाल की भांति मैसूर की दीवानी प्राप्त करने की योजना बनाई थी,

हैदर को अपहरणकर्ता और विद्रोही घोषित कर दिया गया. इस संधि के पश्चात हैदर को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करना पड़ा.

इसके बाद अंग्रेजों ने मार्च 1768 ई में मंगलोर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया लेकिन हैदर ने शीघ्र ही उस पर पुनः अधिकार स्थापित कर लिया. इससे हैदर की सैनिक प्रतिष्ठा बढ़ी तथा अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का निश्चय भी दृढ हुआ.

उसने अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध शैली में परिवर्तन किया. एक स्थान पर युद्ध करने की अपेक्षा उसने अपनी घुड़सवार फौज से अंग्रेजी सेना को परेशान करना आरंभ किया और 1768 ई के अंत तक हैदर विभिन्न स्थानों पर पुनः नियंत्रण स्थापित कर सका.

विजयी होकर हैदर ने अंग्रेजों से संधि वार्ता आरंभ की. यह वार्ता दिसम्बर 1768 ई से लेकर 1769 ई तक चलती रही. डेढ़ वर्ष के अनिर्णायक युद्ध के पश्चात हैदर अली ने अंग्रेजों के विरुद्ध बाजी उलट दी और मद्रास को घेर लिया.

मद्रास सरकार विवशता की स्थिति में थी अतः भयभीत अंग्रेजों को हैदर के साथ संधि करनी पड़ी.

मद्रास की संधि और प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध का अंत (Treaty of Madras and end of First Anglo Mysore War)

4 अप्रैल 1779 ई को हैदर अली तथा अंग्रेजों के मध्य हुई मद्रास संधि की मुख्य बाते ये थी.

  1. दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए क्षेत्र लौटा दिए,
  2. हैदर अली के पास करुर का क्षेत्र रहने दिया गया
  3. हैदर ने 205 अंग्रेज युद्धबंदियों को छोड़ दिया
  4. अंग्रेजों व हैदर अली ने एक दूसरे को किसी भी बाह्य आक्रमण के अवसर पर परस्पर सहायता देने का वादा किया.

प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध का परिणाम (Result of First Anglo Mysore War)

इस प्रकार यह एक प्रकार का रक्षात्मक समझौता था. मद्रास सरकार को इस युद्ध से कोई लाभ नहीं हुआ. निसंदेह युद्ध में हैदर अली को सफलता प्राप्त हुई थी और उसने ही संधि की शर्तों को निश्चित किया था, किन्तु यह संधि दो मित्रों के बीच नहीं थी.

अंग्रेज न तो हैदर अली को मित्र बनाने के लिए तैयार थे और ना ही संधि की शर्तों के अनुसार शत्रुओं के विरुद्ध सहायता देने के लिए तत्पर थे.

1771 ई में मराठा पेशवा माधवराज ने मैसूर पर आक्रमण किया और हैदर द्वारा सहायता मांगने पर भी अंग्रेजों ने उसकी सहायता नहीं की. हैदर को पराजित होकर मराठों को भारी धनराशी देनी पड़ी.

अंग्रेजों द्वारा की गई इस वादा खिलाफी से हैदर का विश्वास उन पर से उठ गया. 1771 ई की यह घटना ही 10 वर्ष पश्चात हैदर को अंग्रेजों के पक्ष में लाने में विफल रही.

द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध के कारण (Second Anglo Mysore War Causes)

2nd, second anglo mysore war in hindi- 1775 ई के बाद मद्रास प्रशासन कुछ आंतरिक कलह और विवादों में उलझा हुआ था. मराठा संघ भी आंतरिक कठिनाइयों में उलझा हुआ था इसलिए हैदर को अपनी शक्ति बढ़ाने का सुअवसर मिलता रहा.

इस दौरान दोनों पक्षों में मतभेद रहे जिन्होंने परिवर्तित परिस्थतियों में द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध के कारणों को जन्म दिया.

  • 1776 ई में आरंभ हुए अमरीकी उपनिवेशों के स्वतंत्रता संग्राम में फ़्रांस ने इंग्लैंड के विरुद्ध उपनिवेशों की सहायता की थी इसलिए भारत में अंग्रेजी कम्पनी के अधिकारियों ने फ्रांसीसियों के क्षेत्रों पर अधिकार करने का निश्चय किया. इसी क्रम में पोंडिचेरी, मच्छलीपट्टम तथा 19 मार्च 1779 ई को माही पर अंग्रेजों का नियंत्रण हो गया. मालाबार तट पर स्थित माही का यह फ़्रांसिसी तट हैदर के नियंत्रण में था, जहाँ से सैनिक सामान मैसूर पहुँचता था.
  • अंग्रेजों ने हैदर को गंटूर सरकार के प्रश्न पर भी लड़ने के लिए बाध्य किया. 1778 में अंग्रेजों ने बसालत जंग से गंटूर छीन लिया. यह कार्य हैदर अली विरोधी था, क्योंकि गंटूर के निकट हैदर अपना प्रभाव स्थापित कर रहा था, अतः हैदर ने बसालत के विरुद्ध कार्यवाही की धमकी दी और अंग्रेजों ने बसालत की सहायता के लिए ऐसा मार्ग चुना जो हैदर के राज्य से होकर जाता था. हैदर की अनुमति के बिना ही अंग्रेजी सेनाओं को मद्रास सरकार ने मैसूर राज्य से जाने का आदेश दिया. जब हैदर की सेना ने अंग्रेजी सेना का विरोध किया तो मद्रास सरकार ने इसे शत्रुता पूर्ण कार्य कहा, यह आंग्ल मैसूर युद्ध का दूसरा कारण था.
  • युद्ध का एक अन्य कारण हेस्टिंग्स की साम्राज्यवादी महत्त्वकांक्षा थी. उसने मद्रास सरकार के साथ हैदर के 1778 ई की संधि स्थापना के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. हेस्टिंग्स ने मराठों की राजनीति मे हस्तक्षेप करने यह स्पष्ट कर दिया था कि उसका महत्वकांक्षा समस्त भारत में अंग्रेजी प्रभाव स्थापित करने की हैं जिससे मैसूर राज्य भी अधिक दिनों तक नहीं बच सकता था.
  • अंग्रेजी नीति ने दक्षिण भारतीय शक्तियों को संगठित होने का अवसर दिया. हैदर अली अंग्रेजों से पहले ही असंतुष्ट था जबकि अंग्रेजों ने 1768 में निजाम के साथ की गई संधि के अनुसार उत्तरी सरकार के जिलों के बदले सात लाख रूपये वार्षिक देने का वादे को भी पूरा नहीं करने से इनकार कर दिया और बसालत जंग से गंटूर का जिला छीन लिया. इसलिए निजाम इस समय अंग्रेजों से असंतुष्ट था. उधर, मराठों के साथ अंग्रेजों का प्रथम युद्ध आरंभ हो चूका था. परिणामस्वरूप अंग्रेजों से नाराज इन तीनों दक्षिण शक्तियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध एक गुट बना लिया और एक निश्चित योजना के साथ यह तय किया गया कि मराठे बरार और मध्य भारत से होते हुए अंग्रेजों पर उत्तर भारत में आक्रमण करेंगे, निजाम उत्तरी सरकार पर आक्रमण करेगा तथा हैदर अली मद्रास तथा आसपास के क्षेत्रों को जीतेगा. इस प्रकार द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार हो गई.

द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध का आरंभ और घटनाएँ (Second Anglo-Mysore beginning of the war and events)

फरवरी 1780 में अंग्रेज विरोधी गुट में शामिल होने के बाद हैदर ने तय योजना के अनुसार जुलाई 1780 में 83000 सैनिकों तथा 100 तोपों के साथ कर्नाटक के मैदान में प्रवेश किया.

मद्रास सरकार ने एक सेना कर्नल बेली और दूसरी बक्सर युद्ध के विजेता हैक्टर मुनरो के नेतृत्व में हैदर अली को आगे बढ़ने से रोकने के लिए भेजी.

टीपू ने इन दोनों सेनाओं को मिलने से रोका. कांजीवरम के निकट हुए बेली के साथ मुकाबले में बेली मारा गया. मुनरो, जो कांजीवरम में बेली का इन्तजार कर रहा था इतना घबराया कि उसने मद्रास में जाकर शरण ली.

अक्टूबर 1780 में हैदर ने अकार्ट पर अधिकार कर लिया. अंग्रेजी प्रतिष्ठा न्यूनतम बिंदु पर पहुँच गई. अल्फ्रेड लॉयल ने उस समय की अंग्रेजों की स्थिति के बारे में लिखा है कि भारत में अंग्रेजों का भाग्य सबसे नीचे गिर चूका था.

किन्तु वारेन हेस्टिंग्स ने बड़ी दृढ़ता से काम लिया और उसने बंगाल से एक बड़ी सेना सर आयर कूट के नेतृत्व में मद्रास भेजी. उसने कूटनीति का भी सहारा लिया.

भौसले तथा सिंधिया को मैसूर की सहायता न करने के लिए सहमत कर लिया तथा निजाम को गंटूर का जिला देकर उसे भी हैदर अली से पृथक कर दिया, परिणामस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध अब हैदर अकेला ही रह गया.

जुलाई 1781 ई में अंग्रेजी सेनाध्यक्ष सर आयरकूट अवश्य हैदर अली को पार्टोनोवा के स्थान पर हराया किन्तु कूट को इस सफलता से कोई लाभ नहीं हुआ. युद्ध स्थल से एक भी तोप नहीं मिल सकी.

कूट के पास घोड़े भी नहीं थे, इसलिए वह हैदर अली का पीछा नहीं कर सका. उसने स्वयं लिखा कि उसकी स्थिति विजय की अपेक्षा पराजित सेना की सी थी.

इसी समय कर्नल पीयर्स के नेतृत्व में एक अन्य सेना बंगाल से आ गई. इन दोनों सेनाओं ने पोलिलूर के युद्ध में हैदर अली का मुकाबला किया, किन्तु इस युद्ध में कोई निर्णय नहीं हुआ.

सितम्बर 1781 में आयरकूट ने हैदर अली को सोलिंगपुर के युद्ध में परास्त किया और नवम्बर में अंग्रेजों ने नीगापटम पर अधिकार कर लिया, परन्तु इसके पश्चात अंग्रेजों की हार होनी आरंभ हो गई.

सन 1782 के आरंभ में ही एडमिरल सफरिन के नेतृत्व में फ्रांसीसियों ने कुडालोर और त्रिनोपाली के बन्दरगाहों पर अधिकार कर लिया और आयरकूट का अनी पर अधिकार करने का प्रयास तथा बम्बई सरकार का मालाबार पर आक्रमण का प्रयत्न विफल रहा.

वर्षा आरंभ होने से युद्ध शिथिल पड़ गया. अंग्रेज मद्रास चले गये. फ्रांसीसी कुडालोर में तथा हैदर अली अकार्ट के निकट पड़ा रहा, ऐसी ही स्थिति में 7 दिसम्बर 1782 को केंसर से हैदर अली की मृत्यु हो गई.

हैदर अली की मृत्यु से द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध समाप्त नहीं हुआ बल्कि उसका बेटा टीपू सुल्तान उससे भी अधिक महत्व कांक्षी साबित हुआ और उसने युद्ध जारी रखा.

उसने बम्बई सरकार द्वारा भेजे गये ब्रिगेडियर मैथ्यूज को न केवल मंगलोर और बदनौर पर आक्रमण करने से ही रोक दिया बल्कि उसे बहुत से सेनिकों के साथ कैद कर लिया.

परन्तु इसी समय यूरोप में फ़्रांस तथा ब्रिटेन के मध्य पेरिस की संधि हो गई तथा फ्रांसीसी इस संघर्ष से अलग हो गये. यह टीपू के लिए हानिकारक था. 1783 में अंग्रेजों को पुनः सफलता मिली.

अंग्रेजों के पाल घाट तथा कोयम्बटूर पर अधिकार कर लिया किन्तु जब कर्नल फुलर्टन मैसूर की राजधानी श्रीरंगपट्टनम की ओर बढ़ रहा था तभी उसे मद्रास सरकार ने वापिस बुला लिया क्योंकि आर्थिक संसाधनों की अत्यधिक कमी होने के कारण मद्रास का गर्वनर मैकार्टनी संधि के लिए उत्सुक था.

इधर फ्रांसीसी यूरोप में अंग्रेजों से समझौता कर चुके थे, मराठों तथा अंग्रेजों में साल्बाई की संधि हो गई थी और निजाम भी अंग्रेजों की ओर जा मिला था.

इसलिए अकेले संघर्षरत टीपू ने भी अंग्रेजों से संधि करना उचित समझा परिणामस्वरूप दोनों पक्षों में मंगलौर की संधि हो गई.

मंगलोर की संधि और द्वितीय आंग्ल मैसूर युद्ध की समाप्ति (Treaty of Mangalore and End of Second Anglo Mysore War)

आरंभ में वारेन हेस्टिंग्स मद्रास सरकार के इस प्रस्ताव से सहमत नहीं था कि टीपू के साथ एक अलग संधि की जाए लेकिन संचालक समिति के आंग्ल मैसूर युद्ध के समाप्ति के आदेश के बाद बंगाल सरकार के सामने कोई विकल्प नहीं रह गया. अतः मार्च 1784 ई में दोनों पक्षों के बीच मंगलोर की संधि हुई.

इस संधि के अनुसार दोनों पक्षों ने एक दूसरे के जीते हुए प्रदेश लौटा दिए तथा टीपू ने अंग्रेज बंदियों को छोड़ दिया. यह संधि टीपू के लिए एक प्रकार से कूटनीतिक सफलता थी

क्योंकि वह अंग्रेजों के साथ पृथक और मराठों की सर्वोच्चता स्वीकार करने का सफल विरोध कर सका था. उसने अपने राज्य में अंग्रेजों को कोई व्यापारिक अधिकार प्रदान नहीं किये.

वारेन हेस्टिंग्स संधि से बिलकुल भी संतुष्ट नहीं था और इंग्लैंड में बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल ने युद्ध के पुनः आरंभ होने के बुरे परिणाम को सोचकर संधि को स्वीकार कर लिया था.

वस्तुतः मद्रास सरकार और टीपू दोनों उस समय युद्ध से तंग आ चुके थे और थोडा समय शान्ति चाहते थे. अतः निश्चित था कि दोनों पक्ष एक बार फिर आमने सामने होंगे.

तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध के कारण (Third Anglo Mysore War Causes)

third anglo mysore war in hindi– अंग्रेजी साम्राज्यवादी परम्परा के अनुकूल, मंगलोर की संधि को अंग्रेजों ने आने वाले आक्रमण के लिए साँस लेने का समय ही माना और टीपू को भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध अवश्यंभावी प्रतीत होता था. ऐसी स्थिति में युद्ध के निम्नलिखित कारण उत्तरदायी रहे.

1784 के पिट्स इंडिया अधिनियम में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि कम्पनी भारत में कोई नया प्रदेश नहीं करेगी किन्तु भारत में अंग्रेजों की प्रधानता स्थापित करने के लिए कार्नवालिस यह आवश्यक समझता था कि टीपू को पराजित किया जाए, क्योंकि समकालीन भारतीय शासकों में टीपू अधिक योग्य शक्तिशाली था तथा उसका राज्य भी सम्पन्न था.

टीपू ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध को अवश्यंभावी मानते हुए अपनी स्थिति को दृढ़ करने के लिए उसने जुलाई 1787 में एक राजदूत मंडल फ़्रांस भेजा था तथा उसी वर्ष दूसरा राजदूत मंडल टर्की के सुलतान के यहाँ भेजा.

यदपि दोनों स्थानों पर इन मंडलों का अच्छा स्वागत हुआ किन्तु आश्वासन के अलावा कोई विशेष भौतिक सहायता उसे फर्ज नहीं हो सकी. उसके इन कार्यों का अर्थ कार्नवालिस ने यह लिया कि टीपू अंग्रेजों की शक्ति को नष्ट करने के लिए कृत संकल्प था.

यदपि सीक्रेट कमेटी ने लंदन से जुलाई 1788 ई में लिखा था कि फ़्रांस सरकार ने ब्रिटेन के विरुद्ध न तो कोई संधि की ना ही किसी का विचार था.

कमेटी ने यह आश्वासन दिया कि इंग्लैंड सरकार टीपू के दूत पर निगरानी रखेगी, इसके बावजूद टीपू द्वारा फ़्रांस में दूत भेजने के कार्य को ब्रिटिश विरोधी माना गया.

त्रावणकोर पर टीपू द्वारा किया गया आक्रमण भी दोनों पक्षों में झगड़े का कारण बना. हैदर अली के समय से ही कालीकट तथा त्रावणकोर के मध्य कोचीन पर उसका आधिपत्य बढ़ गया था.

कोचीन के क्षेत्र में 40 मील लम्बी त्रावणकोर लाइंस थी जो त्रावणकोर की उत्तरी आक्रमण से रक्षा के लिए महत्वपूर्ण थी. इस रेखा तक पहुँचने का मार्ग दो से नियंत्रित था- कांगनूर और आइकोटा.

ये दोनों दुर्ग डच नियन्त्रण में थे. टीपू के बढ़ते हुए प्रभुत्व को रोकने के लिए त्रावणकोर के शासक ने इन दोनों दुर्गों को डच गर्वनर से खरीद लिया जबकि टीपू स्वयं उन्हें खरीदना चाहता था.

कोचीन रियासत को अपने अधीन मानते के कारण टीपू ने त्रावणकोर के शासक के इस कार्य को अपनी सत्ता में हस्तक्षेप मानते हुए उसने अप्रैल 1790 में त्रावणकोर पर आक्रमण कर दिया.

अंग्रेजों ने इस युद्ध के लिए पहले से ही उद्यत बैठे थे त्रावणकोर के राजा का पक्ष लिया क्योंकि 1784 में दोनों पक्षों के बीच इस आशय पर संधि हुई थी.

यदपि अंग्रेजों की अनुमति के बिना त्रावणकोर द्वारा दुर्गों को खरीदना स्वयं कार्नवालिस ने अनुचित माना था फिर भी उसने टीपू के कार्य को युद्ध का कार्य समझा.

मैसूर पर आक्रमण करने से पहले कार्नवालिस ने इस बात की भी व्यवस्था की कि मराठे या किसी कारण टीपू का साथ देने को तैयार न हो जाए.

कार्नवालिस और टीपू में युद्ध कहीं तक त्रावणकोर के प्रश्न के फलस्वरूप हुआ था, यह इस बात से भी स्पष्ट होता है कि कार्नवालिस ने मराठों और निजाम से टीपू के विरुद्ध युद्ध के लिए अक्टूबर 1788 में ही वार्ता आरंभ कर दी थी और अन्तः इस युद्ध से त्रावणकोर को कोई लाभ भी नहीं हुआ था.

दो वर्षों के निरंतर प्रयास के बाद ही मैलेट तथा कोनावे मराठों तथा निजाम के साथ क्रमशः समझौता कर सकें. मराठों का संदेह दूर करने के लिए कार्नवालिस ने बम्बई की सैनिक टुकड़ी को मराठा सेनाध्यक्ष के नियंत्रण में रखना स्वीकार किया.

1 जून 1790 ई को मराठों के साथ तथा 4 जुलाई 1790 ई को निजाम के साथ अंग्रेजों ने मैत्री संधि कर ली, जिनके अनुसार मराठा तथा निजाम दोनों ने टीपू के विरुद्ध युद्ध में अंग्रेजों ने युद्ध में जीते गये क्षेत्रों को आपस में बांटने का आश्वासन दिया, यदपि निजाम तथा मराठों ने अंग्रेजों की बहुत सहायता की तथा युद्ध का अधिकांश भार अंग्रेजों पर ही रहा,

परन्तु इससे मराठों तथा निजाम के टीपू के साथ जा मिलने की संभावना को खत्म कर दिया. इस प्रकार टीपू के आक्रमण को आरंभ में ही रोका जा सकता था,

क्योंकि इन राज्यों के साथ अंग्रेजों के मैत्री सम्बन्ध थे इस प्रकार टीपू के लिए राज्य विस्तार अत्यंत कठिन हो गया था. उसे फ़्रांस से भी कोई सहायता प्राप्त नहीं हो सकी क्योंकि एक वर्ष पहले ही फ़्रांस में जनक्रांति प्रारम्भ हो चुकी थी.

आंग्ल मैसूर तृतीय युद्ध का आरंभ और घटनाएं (Start the Anglo-Mysore War III and events)

third anglo-mysore war period- अप्रैल 1790 ई में टीपू द्वारा त्रावणकोर पर आक्रमण के बाद कार्नवालिस ने एक बड़ी सेना की सहायता से मद्रास के गर्वनर मिडोज के नेतृत्व में मैसूर पर आक्रमण का निर्णय लिया किन्तु यह अभियान पुर्णतः विफल रहा.

इस असफलता के पश्चात कार्नवालिस ने डून्दास ने लिखा था- युद्ध की शीघ्र और सफल समाप्ति की मधुर आशा अब कुछ धुंधली हो गई हैं. हम समय खो चुके हैं और शत्रु ने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली हैं.

कार्नवालिस ने टीपू को आशा से अधिक शक्तिशाली पाया और इसलिए उसे स्वयं मद्रास पहुँचने और सेना का नेतृत्व संभालने के लिए विवश होना पड़ा. कार्नवालिस ने वैलोर और अम्बर की ओर से बंगलौर की ओर बढ़ना शुरू किया और मार्च 1791 ई में बंगलौर पर अधिकार कर लिया.

मई तक अंग्रेजी सेनाएं श्रीरंगपट्टनम से एक मील दूर रह गई थी परन्तु टीपू ने इस समय बहुत साहस और कुशल सेनापतित्व का परिचय दिया.

कुछ वर्षा ऋतु आरंभ होने से, अंग्रेजी सेना में बीमारी फ़ैल जाने तथा खाद्य सामग्री के कम हो जाने से कार्नवालिस को पीछे हट जाना पड़ा.

कार्नवालिस की इस असफलता को देखकर इंग्लैंड में उसकी नीति की आलोचना होने लगी. युद्ध को अनावश्यक, अनुचित तथा मराठों एवं निजाम के साथ की गई संधियों को 1784 ई के एक्ट के विपरीत बताया गया. इससे कार्नवालिस बहुत क्रुद्ध हुआ.

उसे यह विश्वास था कि टीपू के साधन तथा सैनिक शक्ति बहुत कम हो चुकी थी. और यदि मराठे तथा निजाम अंग्रेजों का साथ देते तो टीपू को शीघ्र ही संधि की याचना करनी पड़ेगी.

वर्षा ऋतु की समाप्ति के बाद नवम्बर 1791 ने कार्नवालिस ने पुनः टीपू के विरुद्ध सैनिक अभियान आरंभ किया. फरवरी 1792 में कार्नवालिस ने श्रीरंगपट्टनम पर घेर डाला.

टीपू ने अत्यंत कुशल सैन्य संचालन का परिचय दिया किन्तु अंग्रेजी सेनाएं श्रीरंगपट्टनम के किले की दीवार तक आ पहुची. हताश होकर टीपू को संधि की बातचीत आरंभ करनी पड़ी और मार्च 1792 में संधि हो गई.

श्रीरंगपट्टनम की संधि, मार्च 1792 और तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध की समाप्ति (Treaty of Srirangapatna and the end of the Third Anglo Mysore War)

जनवरी 1792 ई में टीपू ने संधि वार्ता आरंभ की थी लेकिन कार्नवालिस टीपू को निर्णायक रूप से हराना चाहता था, इसलिए श्रीरंगपट्टनम की जीत निश्चित होने के बाद ही मार्च 1792 में संधि हो गई. तृतीय आंग्ल मैसूर युद्ध की संधि के अनुसार-

  1. टीपू का लगभग आधा राज्य उससे छीन लिया गया. अधिकांश भाग अंग्रेजों को प्राप्त हुआ जिसमें मालाबार, दक्षिण में दिंडीगुल तथा उसके समीप के सभी जिले, पूर्व बारामहल और आसपास के सभी पहाड़ी मार्ग शामिल थे जिससे उनके राज्य का विस्तार ही नहीं हुआ बल्कि उन्हें मैसूर में सैनिक और राजनीतिक, महत्व के स्थान भी प्राप्त हुए, मराठों को तुंगभद्रा नदी के उत्तर का भाग मिला और निजाम को पन्नार तथा कृष्णा नदी के बीच का भाग मिला.
  2. टीपू को 4 करोड़ रूपये युद्ध के हर्जाने के रूप में देने पड़े
  3. जब तक हर्जाना न चूका दिया जाए, टीपू के दो पुत्र अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखे गये.
  4. अंग्रेजों को कुर्ग के राजा पर आधिपत्य प्राप्त हुआ.

इस संधि से मैसूर राज्य की आर्थिक सम्पन्नता तथा सुरक्षात्मक व्यवस्था विच्छिन्न हो गई थी. बारामहल, कुर्ग तथा मालाबार के निकल जाने से मैसूर की प्राकृतिक सुरक्षा व्यवस्था समाप्त प्रायः हो गई.

ऐसी स्थिति में टीपू विशाल सेना का भार सहन नहीं कर सकता था. अन्तः मैसूर की अंग्रेजों के विरुद्ध सफलता असम्भव हो गई.

कई इतिहासकारों, विशेषकर मुनरों तथा थार्नटन ने कार्नवालिस की इस नीति की तीव्र आलोचना की हैं. कि उसने पूर्ण सफलता प्राप्त करने के बावजूद मैसूर राज्य को ही समाप्त क्यों नहीं किया.

किन्तु कार्नवालिस के लिए ऐसा करना सम्भव नहीं था. कार्नवालिस का टीपू की राजधानी पर अधिकार नहीं हुआ था. उधर, महादजी सिंधिया उत्तर भारत से पूना की ओर चल चुका था और वह मराठा सेना की अंग्रेज समर्थक नीति के पक्ष में नहीं था. इसलिए कार्नवालिस को टीपू के साथ युद्ध शीघ्र ही समाप्त करना आवश्यक हो गया.

तीसरे यूरोप में फ्रांस तथा इंग्लैंड में रू आरंभ होने की पूरी संभावना थी. और ऐसी स्थिति में टीपू को फ़्रांस की सैनिक सहायता प्राप्त हो सकती थी.

चौथा किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण यह था कि यदि मैसूर राज्य को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाता तब उसके भूभाग को तीनों पक्षों, अंग्रेजों, मराठों तथा निजाम में समान रूप से बांटना पड़ता है जिससे मराठे बहुत अधिक शक्तिशाली हो सकते थे.

कार्नवालिस यह नहीं चाहता था. उसने अपनी कूटनीतिक सफलता को इस प्रकार वर्णित किया है. हमने युद्ध को इतनी लाभदायक शर्तों पर समाप्त किया है जितनी कोई आशा कर सकता था.

हमने अपने मित्रों को अधिक शक्तिशाली बनाये बिना ही अपने शत्रु को प्रभावशाली ढंग से पंगु बना दिया हैं.

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध (1799) के कारण (Fourth Anglo Mysore War Causes upsc)

fourth anglo mysore war In Hindi: भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की नीति का मुख्य अंग साम्राज्य विस्तार के लिए युद्ध लड़ना था और फिर युद्ध के लिए अपने आप को तैयार करने के लिए शांति की नीति अपनाना था.

उधर तृतीय मैसूर युद्ध में शीघ्र ही अंग्रेज तथा टीपू पुनः युद्ध में उलझ गये जिसके निम्नलिखित कारण थे.

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध का पहला कारण

टीपू अपनी पराजय को स्वीकार नहीं कर पा रहा था इसलिए श्रीरंगपट्टनम की संधि के बाद वह पुनः अपनी स्थिति को मजबूत करने में लग गया.

उसने अपने किले की किलेबंदी मजबूत करना आरंभ किया, अपनी घुड़सवार तथा पैदल सेना की संख्या तथा प्रशिक्षण उन्नत किया.

विद्रोही सरदारों को दबाया तथा कृषि अवस्था को उन्नत करने का प्रयास किया. 1796 में मैसूर के नाममात्र के राजा की मृत्यु के बाद टीपू ने उसके अल्पवयस्क पुत्र को नाममात्र का शासक भी नहीं बनाया.

इस प्रकार अपनी आंतरिक स्थिति को सभालने के प्रयास के बाद उसने अपने पृथक अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए उसने फ़्रांस तथा अफगानिस्तान से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया.

इसी क्रम में टीपू तथा फ्रांसीसी द्वीप मॉरीशस के गवर्नर मेलार्टिक के मध्य पत्र व्यवहार हुआ था. इसके बाद में टीपू ने अपने प्रतिनिधि मारीशस भेजे, जिनका मेलार्टिक ने नागरिक अभिनन्दन किया.

उसने मारीशस के फ्रांसीसी नागरिकों से टीपू की सैनिक सहायता करने का अनुरोध किया, जिसके परिणामस्वरूप 99 व्यक्ति अप्रैल 1798 को मंगलौर पहुंचे.

उन्होंने मैसूर में स्वतंत्रता के वृक्ष को आरोपित किया. इसके अलावा अरब, काबुल तथा टर्की में भी टीपू ने अपने दूत भेजे. मारीशस के फ्रांसीसी गर्वनर ने टीपू को मैसूर का सुल्तान स्वीकार किया.

टीपू की इन समस्त गतिविधियों को अंग्रेज विरोधी माना, यह भी चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध का एक कारण बना.

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध का दूसरा कारण

लार्ड वेलेजली भारत का गर्वनर जनरल बनकर भारत आया जो साम्राज्यवादी नीति का प्रबल पक्षधर था और उसकी आक्रामक नीति ही चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध के लिए मुख्य रूप से जिम्मेदार थी.

टीपू के फ्रांसीसियों से सम्बन्धों को वेलेजली ने अंग्रेजों के प्रति शत्रुता पूर्ण कार्य माना. टीपू द्वारा मैसूर में 99 फ्रांसीसियों के सार्वजनिक सम्मान किये जाने को वेलेजली ने जुलाई 1798 में ही युद्ध की घोषणा के समान माना था.

अपने 12 अगस्त 1798 ई के आलेख में उसने कहा था कि टीपू के राज्य में फ्रांसीसी सैनिकों का स्वागत एक स्पष्ट असंदिग्ध तथा निश्चित युद्ध की घोषणा के समान हैं.

वह उस समय भी टीपू पर आक्रमण करने के लिए तैयार था, किन्तु सैनिक तैयारी में कमी के कारण उसे अभियान में शीघ्र सफलता में विश्वास नहीं था इसीलिए उसने तुरंत आक्रमण नहीं किया.

चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध का तीसरा कारण

वेलेजली ने दृढ़ निश्चय किया था कि या तो टीपू सुलतान को पूर्णतया समाप्त कर दिया जाए अथवा उसे पूर्णतया अंग्रेजों के अधीन कर दिया जाए.

वह पहले टीपू के तटीय प्रदेशों को नियंत्रण में कर लेना चाहता था. उसने इस बात का भी प्रयत्न किया कि वह मराठों तथा निजाम के साथ उस त्रिगुट को पुनः टीपू के विरुद्ध स्थापित करे जिसे कार्नवालिस ने बनाया था.

सितम्बर 1798 में सहायक संधि स्वीकार करके निजाम अंग्रेजों का मित्र बन गया. मराठों ने वेलेजली को कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया.

फिर भी अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए वेलेजली ने अपनी ओर से मैसूर के जीते हुए क्षेत्रों में से आधे पेशवा को देने की पेशकश की. इस प्रकार दक्षिण में अपनी स्थिति को दृढ़ करने के बाद वेलेजली ने आक्रमण की तैयारी शुरू कर दी.

आंग्ल मैसूर चतुर्थ युद्ध का आरंभ और घटनाएं (Anglo-Mysore IV war started and events)

टीपू पर आक्रमण की योजना उसके फ़्रांस से मैत्री या मेलार्टिक की घोषणाओं की अपेक्षा केवल वेलेजली की अपनी सैनिक तैयारी पर निर्भर करती थी. अतः तैयारी पूर्ण होते ही मैसूर पर आक्रमण का निर्णय ले लिया गया.

जनरल हैरिस और आर्थर वेलेजली के नेतृत्व में एक सेना ने फरवरी 1799 में वैलोर से चलकर मार्च 1799 में मैसूर पर आक्र-मण कर दिया. पश्चिम से एक दूसरी सेना ने जनरल स्टुअर्ट के नेतृत्व में मैसूर पर आक्रमण किया.

जनरल स्टुअर्ट ने टीपू को सीदसीर और जनरल हैरिस ने टीपू को मालवेली के युद्ध में परास्त किया. अब टीपू को श्रीरंगपट्टनम के किले में शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा.

17 अप्रैल 1799 को श्रीरंगपट्टनम का घेरा डाल दिया गया और 4 मई 1799 को उस पर अधिकार कर लिया गया.

टीपू अपने किले पर युद्ध करते हुए मारा गया और उसके बेटों ने अंग्रेजों के समक्ष समर्पण कर दिया. टीपू की राजधानी श्रीरंग पट्टनम अंग्रेजी सेना के नियन्त्रण में चली गई.

टीपू ने राजमहल तथा समस्त नगर को सेना ने खुले रूप से लूटा और विभिन्न स्थानों को जलाया. यह लूट 5 मई को सुबह आरंभ हुई और 6 मई तक मकान जलते रहे.

इस लूट में टीपू का पुस्तकालय भी था इसमें 2 हजार से अधिक पांडुलिपियाँ थी. इसमें से अधिकांश या तो लूट ली गई या जला दी गई. लूट का आधा माल अंग्रेजी सेना में बांटा गया. टीपू का समस्त राज्य चतुर्थ आंग्ल मैसूर युद्ध के बाद अंग्रेजों के नियंत्रण में चला गया.

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