सीता पर कविता | Poem On Sita Mata In Hindi

नमस्कार दोस्तों आज की कविता माँ सीता पर कविता Poem On Sita Mata In Hindi लेकर आए हैं. बच्चों के लिए छोटी और सरल कविताएँ आपकों इस आर्टिकल में मिलेगी.

भगवान राम, लंका में, हनुमान जी के साथ वार्तालाप पर आधारित सीता जी के दर्द की कविता यहाँ दी गई हैं.

सीता पर कविता Poem On Sita Mata In Hindi

सीता पर कविता | Poem On Sita Mata In Hindi

लंका में जिन दिनों मेरा निवास था
वहां विलोकी जो दाम्पत्य विडम्बना
उसका ही परिणाम राज्य विध्वस था
भयकर है संयम की अवमानना

होता है यह उचित कि जब दम्पति खिजे
सूत्रपात जब अनबन का होने लगे
उसी समय हो सावधान संयत बने
कलह बीज बिगड़ा मन बोने लगे

यदि चंचलता पत्नी दिखलाएं अधिक
पति तो कभी न त्यागे गंभीरता
उग्र हुए पति के पत्नी कोमल बने
हो अधीर कोई भी तजे न धीरता

तपे हुए की शीतलता है औषधि
सहनशीलता कुछ कलहों की है दवा
शांत चित्ता का अवलम्बन मिल गया
प्रकृति भी हो जाती है हवा

कोई प्राणी दोष रहित होता नही
कितनी दुर्बलताएं है उसमे भरी
किन्तु सुधारे सब बाते है सुधरती
भलाइयों ने सब बुराइयों है हरी

सभी उलझने है सुलझाते सुलझती
गाँठ डालने पर पड़ जाती गाँठ है
रस के भरने से ही रह सकता है
हरा भरा कब होता है उकठा काठ है.

सीता जीवन

भगवान श्रीराम की पत्नी माँ सीता का जीवन प्रत्येक नारी के लिए आदर्श व्यक्तित्व माना जाता हैं. जीवन की तमाम विपरीत परिस्थितियों में अपने पति धर्म और सन्तान धर्म की पालना की सीख और त्याग इनके सम्पूर्ण जीवन में देखी जा सकती हैं.

सीता जीवन और सीता माता के सुख का त्याग शीर्षक से दी गई कविताएँ मौलिक लेखिका अरुणा जी गुप्ता ने लिखी हैं. ये HIHINDI के पाठकों के लिए विविध विषयों पर लिखती हैं.

माँ सीता के जीवन और त्याग पर समर्पित इन कविताओं को पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया कमेंट के जरिये जरुर देवे.

नारायणी जगत जननी है सीता माता,
इनका जीवन हमें बहुत कुछ सिखाता,

त्याग समर्पण की ये देवी सीता माता,
इनका जीवन सदेव प्रेम, करना सिखाता,

राज महल की थी ये प्यारी राजकुमारी,
कभी ना पथरीली ज़मीन पर चलने वाली,

वनवास के वक्त ये पति संग होली,
बन गई अपने पति के दुखों की हमजोली,

कभी जिसने ना देखा था रसोइखाना,
बनाया उसने मिट्टी के चुल्हे पर खाना,

पति को जिसने परमेश्वर माना,
उसने ही अपने देवर को भाई जाना,

एक औरत की सहनशीला की प्रतीक हैं,
लव कुश को अकेले पालना ये इनकी जीत है,

स्वाभिमान होना सिखाया हमको,
संघर्ष करने का पाठ पढ़ाया सबको,

एक चुप सौ सुख वाली बात बतलाई,
अपने दामन पर लगे दाग की बात झुठलाई,
By: Aruna Gupta

सीता माता के सुख का त्याग

सीता हैं वो देवी माता,
जिनको कोई ना भूला पाता,
संस्कारी बेटी, बहू थी ये,
प्रेम, त्याग, समर्पण था जिनमे,

वनवासी बन गई ये पति संग,
त्याग दिया महलों का रस रंग,
छप्पन भोग खाने वाली,
हो गई थी उनकी थाली खाली,

फिर भी तेज रहता था चेहरे पर,
दुख कभी न दिखाया जीवन भर,
जमीन पर सोयी महलों की रानी,
कभी ना छलकाया नैनो से पानी,

लव कुश को जीवन का पाठ पढ़ाया,
परिवार का मान सम्मान बतलाया,
अपने आंसुओं को छिपाया,
उनको आगे बढ़ना सिखाया,

गहनों का त्याग कर दिया माता ने,
पति प्रेम को ही गहना बना लिया इन्होने,
इनका जीवन सबर करना सिखाता है,
धन बिना भी खुश रहना बतलाता है,
By: Aruna Gupta

माता सीता सी कोई नहीं कविता

राधा बनने को सब चाहें
माता सीता सी कोई नहीं!
सब कृष्ण के प्रेम में भटक रही
संग राम के वन में कोई नहीं!!

ये क्यों कहते हैं धोखा खा गई
रो -रो वक़्त गुज़ार रही
सब ढूंढ़ती रही है राजभवन
सीता सा वन पथ कोई नहीं।।
फिर कहां मिलेगा सत्य प्रेम

जो कर्तव्यों से जुझी नहीं।
वो जनक सुता महलों की ज्योति
वन आकर भी बूझी नहीं।।
बीता दिया कांटों में जीवन
फिर भी लंका की हुई नहीं।

राम हुए बस सीता के…..
वो और किसी की हुई नहीं।।
राधा बनने को सब चाहे
माता सीता सी कोई नहीं!
सब कृष्ण के प्रेम में भटक रही
संग राम के वन में कोई नहीं!!

-अमित प्रेमशंकर

सीता माता का जबाब हिंदी कविता

सघन था जंगल,धुप्प अंधेरा,
वनचर आवाजें आती थी,
विद्रूप रूप की अंधेरों में ,
बरवस वहम हो जाती थी।।

वनराज भी था,गजराज भी था,
सन्नाटा ओ कर्कश आवाज भी था,
उल्लु की घूमती आँखे,
बजता झिंगुर का साज भी था।।

थी मेघों की अफरा तफरी,
तुफां भी कब आ जाए,
चंदा की आँख मिचौनी भी,
अच्छे अच्छे थर्रा जाए।।

पर रूको कहानी और भी है,
घने जंगल एक ठौर भी है,
लवकुश से है सजी झोपडी,
वनचर बीच कोई और भी है।।

दो फूल गोद में लिये हुए,
बैठी ये सुकुमारी है,
सुन्दरता ईश्वर की गढी हुई,
कौन है ? कहाँ की नारी है ?

तभी श्रृषि अचानक प्रकट हुए,
मय तेजदीप और थे ज्ञाता,
कुछ कहा तो तंद्रा कौंध गयी,
अरे ये तो है सीता माता।।

हे दयावान ,हे शिवदानी,
ये कैसी कहानी रच डाली,
हे मन मतंग औघढदानी,
प्याले मे भंग क्यों ज्यादा डाली।।

सब खेल तुम्हारा ही होता,
रचना ये कैसी रच देते,
खेबैया कौन ? बीच धार नाव,
उस पार किनारा दे देते।।

हैं राम पति जिनके उनको,
फिर कैसे कहूँ अबला नारी,
दशरथ ,जनक जिनके परिजन,
थी कौन सी ऐसी लाचारी।।

जो महलो में रहने वाली,
हे राम, जंगल मे क्यों छोड दिया ,
क्या अहंकार पौरूष का था,
तो धनुष तुमने क्यों तोड दिया।।

दे पत्नी को ऐसा दुःख दर्द,
पतियों का ये काम नहीं,
भय नहीं खुले में कहता हूँ,
तुम मर्यादा पुरूषोत्तम राम नहीं।।

औरत को कमतर आंका,
क्यों किया भेद ये तुम जानो,
अब लाख बहाने गढ डालो,
है गलत किया इसको मानो।।

तभी श्रृषि ने ये चुपचाप कहा,
सुन ‘सीते’ राम अब आएगा,
भूल अपनी शायद समझ गया,
आकर तुमको ले जायेगा ।।

कोई तरंग सजी ,कहीं मृदंग बजी,
लय सुर गीत झंकार किया,
हृदय तरंगित, मोहित मन,
बंद आँखों में उन्हें साकार किया ।।

तभी टीस उठी, आत्मा रोई,
फिर मन ही मन में ये ठाना,
हे पतिदेव ,हे बलशाली,
कमजोर मुझे कहो क्यों माना ?

मैं औरत हूँ ,तुम पुरूष सही,
ताकत लेकिन अधूरी है ,
अस्तित्व के दो पहिये हैं,
दुनियां तभी सिंधुरी है।।

  • Onkar

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