बोधिधर्म का इतिहास और जीवन परिचय Bodhidharma History In Hindi Story Biography: बौद्ध धर्म की झेन धारा के प्रवर्तक बोधिधर्म दक्षिण भारत के कांचीपुरम के राजकुमार थे,
जो बाद में योगी बन गये और चीन की यात्रा की. बौद्ध धर्म के ये 28 वें और अंतिम गुरु माने जाते है. आज के आर्टिकल में उनका इतिहास जीवनी को पढ़ेगे.
बोधिधर्म का इतिहास और जीवन परिचय Bodhidharma History In Hindi
एक भारतीय बौद्ध भिक्षु थे. इनके जन्म के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नही हैं. मगर बोधिधर्म का जन्म का जन्म दक्षिण भारत के पल्लव राज्य के कांचीपुरम के राजा के यहाँ हुआ था.
सन्यासी की तरह मात्र अल्पायु में ही विरक्ति की भावना में इन्होने २२ साल की आयु में ही राज्य का त्याग कर बौद्ध भिक्षु के रूप में अपना जीवन शुरू किया. इन्होने चीन, जापान और कोरिया सहित एशिया के कई देशों में बौद्ध धर्म का प्रसार प्रचार किया.
520-526 ईस्वीं में ये चीन की यात्रा पर गये और यहीं उन्होंने ध्यान सम्प्रदाय की नीव रखी जो चीनी भाषा में च्यान या झेन कहलाता हैं. आज इस इसे मानने वालों की संख्या करोड़ों में हैं.
5 वी से 6 छठी शताब्दी के मध्य इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ था. ये धर्म प्रचार के लिए चीन गये तथा वहीँ बस गये. इन्हें प्रथम चीनी कुलपिता कहा जाता है यानि चीन में बौद्ध धर्म की नीव रखने का श्रेय बोधिधर्म को ही जाता हैं.
चीन के इतिहासकारों के मुताबिक़ बोधिधर्म एक लंबी दाढ़ी वाले, गहरी आँखों वाले, उदार चरित्र वाले व्यक्ति थे. यहाँ उनकी जान पहचान हजारों लोगों से थी.
उनके विचारों का करोड़ो लोग अनुसरण करते हैं. बोधिधर्म योगा और ध्यान साधना और लोकअवतार सूत्र के प्रशिक्षक भी थे. इन्हें महात्मा बुद्ध द्वारा चलाए गये बौद्ध धर्म का २८ वां वारिश माना गया है.
भारत में बोधिधर्म उस परम्परा के अंतिम गुरु थे जिसे महात्मा बुद्ध ने आरम्भ की थी. भारतीय बौद्ध धर्म के जानकारी इन योगी ने समुद्र के रास्ते से चीन की यात्रा की तथा केंटन के बंदरगाह से वे चीन पहुचे तथा वहां पर इन्होने झेन बौद्ध धर्म की नीव रखी.
भगवान् बुद्ध ने अपने परम ज्ञान का सम्प्रेषण महाकश्यप में किया. जिसे महाकश्यप ने आनन्द में किया इस तरह यह गुरु शिष्य परम्परा की तरह २७ चरणों तक चलती रही. २८ वे और अंतिम बौद्ध गुरु बोधिधर्म ही थे.
Bodhidharma History In Hindi
बोधिधर्म ने बहुत ही कम उम्रः में इतना कुछ ज्ञान पा लिया था, जिसके लिए बहुत से जन्म भी कम पड़ते हैं. इन्होने इतिहास में अपने ज्ञान व कला के दम पर कई ऐसे कार्य किये जिनके लिए आज भी उन्हें याद किया जाता हैं.
बोधिधर्म कौन थे, बोधिधर्म क्या है, बोधिधर्म के कार्य, बोधिधर्म की कहानी, बोधिधर्म का इतिहास, बोधिधर्म की का जीवन परिचय, जीवनी आदि के बारे में बहुत से लोग जानना चाहते हैं.
इन्हें एक ऐसी कला का पिता अथवा पिता माना जाता है जिसमें शस्त्रों के बिना लड़ाई को जीता जा सकता हैं. जी हाँ मार्शल आर्ट्स. नाम तो कई बार सुना होगा. आधुनिक मार्शल आर्ट्स कला के जन्मदाता बोधिधर्म ही थे.
आयुर्वेद, सम्मोहन, मार्शल आर्ट और पंच तत्वों पर नियंत्रण पाने जैसी कई देवीय शक्तियाँ उनके पास थी. जिन्हें उन्होंने अपनी कठोर लग्न और परिश्रम के बल पर अर्जित किया था.
यदि हम मार्शल आर्ट के इतिहास के कुछ पन्नों को खोले तो हमें इसी कला के तीन बादशाहों के नाम और उनकी कला के बारे में पता चलेगा.
हमारे पुरानों के अनुसार महर्षि अगस्त्य ने दक्षिणी कलारिप्पयतु यानि बिना शस्त्र के लड़ने की कला को जन्म दिया तो परशुराम ने शस्त्र युक्त कलारिप्पयतु का विकास किया.
मगर भगवान श्री कृष्ण ने शस्त्र और बिना शस्त्र के मेल की कालारिपयट्टू कला को विकसित किया, जब उनकी आयु मात्र सोलह वर्ष की थी. जब उन्होंने एक दुष्ट राजा का हथेली से सिर काट दिया था.
हमारे धर्मग्रंथों के अनुसार जिस कला को भगवान श्री कृष्ण ने आरम्भ किया था वह अगत्स्य ऋषि से होते हुए बोधिधर्म के पास आई तथा इन्होने इसका देश विदेश में व्यापक प्रचार किया. आज भी भारत के दक्षिणी राज्यों में यह कला को बड़े स्तर पर प्रचलन में हैं.
Bodhidharma History Story Biography Of Bodhidharma In Hindi
बोधिधर्म ने गुरु महाकाश्यप को अपना गुरु माना तथा इन्ही के सानिध्य में इन्होने ज्ञान की प्राप्ति की. गृह त्याग के बाद भिक्षु बनकर ये इन्ही के साथ रही तथा भिक्षु के रूप में अपना जीवन बिताते रहे.
भिक्षु बनने से इनका पूर्व नाम बोधितारा था जिसे बदलकर इन्होने बोधि धर्म रख लिया था. पिता की मृत्यु के बाद इन्होने अपने गुरु के साथ देश विदेश में बौद्ध धर्मप्रचार का कार्य शुरू कर दिया.
जब इनके गुरु का देहांत हो गया तब इन्होने मठ का त्याग कर अपने गुरु के आदेशों की पालना के लिए चीन को अपना लक्ष्य चुना. तथा यही से इसके जीवन के महत्वपूर्ण अध्याय की शुरुआत होती हैं.
बोधिधर्म की चीन यात्रा के सम्बन्ध में सभी विद्वान एकमत है मगर वे किस शहर तथा किस समुद्री रास्ते अथवा नदीमार्ग से चीन पहुचे थे इस सम्बन्ध में कोई प्रमाणिक जानकारी नहीं मिलती हैं.
कुछ लोगों का मानना है कि ये लुओयांग में सबसे पहले गये थे क्योंकि यह बौद्ध धर्म प्रचार का केंद्र हुआ करता था. बहरहाल जो भी बताया यह भी जाता हैं कि उन्हें इस यात्रा में बोधिधर्म को तीन वर्ष का समय लग गया था.
बोधिधर्म का मानना था कि सांसारिक सत्य तथा ज्ञान के लिए बौद्ध ग्रन्थ एवं शिक्षाएं पर्याप्त हैं मगर सच्चे आत्मज्ञान की प्राप्ति तथा अनुभूति के लिए कठिन अभ्यास की आवश्यकता रहती हैं. उन्हें धर्म प्रचार के रास्ते में कई कठिनाइयों और विरोधों का सामना भी करना पड़ा.
यह भी कहा जाता है उन्होंने बौद्ध धर्म की एक नई धारा की शुरुआत की जिनमें भगवान बुद्ध को अधिक महत्व नहीं दिया गया, जिसके कारण उन्हें कड़ा प्रतिरोध झेलना पड़ा तथा लुओयांग प्रान्त छोड़कर हेनान की तरफ जाना पड़ा. वहां जाकर बोधिधर्म ने एक बौद्ध मठ की यात्रा की.
बोधिधर्म एक ऊर्जा से भरपूर बौद्ध धर्म प्रचारक थे. इनकी मृत्यु का कारण इनके शिष्य ही बने जो उत्तराधिकारी घोषित नहीं किये जाने पर उन्होंने जहर दे दिया था.
अपने जीवन में संकट, उपहास एवं विरोधों के बावजूद वे अपने गुरु की शिक्षाओं को जन जन तक पहुचाने में सफल रहे. बौद्ध धर्म में इन्होने ध्यान को बड़ा महत्व दिया.
जब ये शाओलिन मठ में गये तो यहाँ के भिक्षुओं ने उन्हें प्रवेश नहीं दिया गया. जिस पर बोधिधर्म ने एक पहाड़ की गुफा में निरंतर 9 वर्षों तक कठोर तप किया.
जिसके बाद शियोंलिन की मठ में ये प्राचार्य बने तथा अपने शिष्यों को ज्ञान देते रहे. इन्होने चीन जाकर भारतीय श्वास व्यायाम और साथ ही मार्शल आर्ट/ कुंग फू का ज्ञान दिया, जिनके लिए आज उनका नाम इतिहास में अमर हैं.