Essay On Justice In Hindi: नमस्कार दोस्तों आज हम न्याय पर निबंध लेकर आए हैं. आज के निबंध, स्पीच, अनुच्छेद लेख में हम न्याय इसके प्रकार, स्वरूप अवधारणा और सिद्धांत के बारें में पढ़ेगे.
अक्सर न्याय के जिस पहलू के बारें में अधिक चिन्तन करते है वह social justice अर्थात सामाजिक न्याय होता हैं. इस निबंध में हम न्याय के बारें में पढ़ेगे.
न्याय पर निबंध | Essay On Justice In Hindi
300 शब्द : न्याय निबंध
डॉक्टर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर और अन्य लोगों के द्वारा तैयार किए गए भारतीय संविधान में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि भारत के सभी लोगों को न्याय पाने का अधिकार है और यह प्रयास किया जाए कि भारत के किसी भी व्यक्ति के साथ अन्याय ना हो फिर चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, मत, मजहब का क्यों ना हो।
हमारे भारतीय संविधान के द्वारा न्याय व्यवस्था का सही प्रकार से पालन हो सके, इसके लिए अदालत की व्यवस्था की गई है। अदालत में बैठे हुए न्यायाधीश लोगों को न्याय देने का काम करते हैं और अपराधी व्यक्ति को सजा सुनाने का काम करते हैं।
भारतीय दंड संहिता में न्याय की कई धाराएं शामिल की गई है। हालांकि जिस प्रकार से भारत में न्याय होना चाहिए,उस प्रकार से न्याय नहीं हो रहा है क्योंकि दबंग और पैसे वाले लोग अक्सर गरीब लोगों का शोषण करते हैं और जब गरीब लोग नजदीकी पुलिस थाने में शिकायत दर्ज कराने के लिए जाते हैं तो उनकी शिकायत दबंग लोगों के प्रभाव में दर्ज नहीं होती है।
कई बार तो पीड़ित व्यक्ति को ही पुलिस के द्वारा दबंग व्यक्ति के प्रभाव में फंसा दिया जाता है और उनसे पैसे लिए जाते हैं, जिसकी वजह से हमारे भारत देश की न्याय व्यवस्था पूरी दुनिया भर में बदनाम है।
हमारे देश में न्याय पाने के लिए व्यक्ति को कई सालों लग जाते हैं। कई बार तो व्यक्ति की मृत्यु होने के पश्चात भी उसे न्याय नहीं मिलता है जो कि भारत के लचर कानून सिस्टम को उजागर करता है।
इसलिए सरकार को यह प्रयास करना चाहिए कि वह भारतीय कानून व्यवस्था और न्याय व्यवस्था में सुधार करें और ऐसे कानून का निर्माण करें जिसके द्वारा किसी भी वर्ग के व्यक्ति को न्याय प्राप्त हो सके और दुनिया में भारत की न्याय व्यवस्था की तारीफ हो।
800 शब्द : न्याय निबंध
बहुत से लोगों से अक्सर यह सवाल सुनने को मिलता है कि न्याय कहाँ मिलता हैं. इस प्रश्न का होना भी यह बताता है कि आज भी आम आदमी को आसानी से न्याय नहीं मिल पा रहा हैं.
आधुनिक सामाजिक स्वरूप ने न्याय व्यवस्था की जिम्मेदारी कोर्ट अर्थात अदलिया पर डाल दी है वे ही न्याय के एकमात्र एवं सर्वोपरि स्रोत माने जाते हैं.
भारतीय संस्कृति में न्याय का एक स्पष्ट विधान और इसका समृद्ध अतीत रहा हैं अक्सर राजा महाराजे ही न्यायिक मामलों को देखते थे, विस्तृत साम्राज्य की स्थिति में एक अलग से विभाग की व्यवस्था होती थी जो आज भी देखने को मिलती हैं.
मगर इनसे असंतुष्ट व्यक्ति सच्चे न्याय की अपेक्षा केवल ईश्वर से रखता हैं, भगवान सब देखता है अथवा ईश्वर न्यायकारी है ये बेबसी भरे सबक उस इन्सान के दिल की पीड़ा को दर्शाते है जिसे हमारी न्याय व्यवस्था न्याय नहीं दे पाई हैं.
आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में कानून के शासन के तहत अदालतों को न्याय एवं अन्याय में फर्क करने का अधिकार हासिल हैं. सही क्या है तथा गलत क्या है यह अदालत विधान की पुस्तकों के आधार पर तय करती हैं.
आज लम्बित मामलों की संख्या को देखकर कहा जा सकता है इंसाफ चाहने वाले पीड़ित लोगों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही हैं. न्याय की देरी व अभाव ही इसकी मांग को उतरोत्तर बढ़ा रहा हैं.
हमारे देश की विधायी व्यवस्था में न्याय की शीर्षस्थ संस्था न्यायालय हैं स्वाभाविक रूप से सभी स्तरों पर उत्पन्न न्याय की अभिलाषा यहाँ एकत्रित हो जाती हैं.
जिसका अर्थ है कि न्यायालय में कई वर्षों से जमा विचाराधीन मामले इस बात का प्रमाण है कि न्यायालय न्याय प्राप्ति के विश्वसनीय स्रोत हैं.
मगर जेहन में एक सवाल यह भी आता है क्या न्याय प्रणाली मात्र अदालतों तक ही सिमित हैं. क्या हमारें समाज में इसके अतिरिक्त अन्य न्यायिक संस्थाओं की आवश्यकता या व्यवस्था हैं.
हमारे सवाल का जवाब हाँ में होगा. देश में अलग अलग स्तरों पर मनमुटाव रोकने और व्यवस्था व्यवस्था बहाल करने के लिए अलग अलग निकाय हैं.
जिनमें पुलिस प्रशासन पंचायत स्थानीय शासन आदि ऐसे संस्थान है जो अपनी सीमाओं में न्यायिक मामलों की सुनवाई करते हैं. अपने कार्यक्षेत्र के बाहर के मामले को न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये जाने की व्यवस्था कायम हैं.
न्याय में देर ही अंधेर
एक अनुमान के मुताबिक़ भारत में उच्च न्यायालय एक मुकदमें का निर्णय सुनाने में लगभग चार वर्ष से अधिक का समय लेते हैं. उच्च न्यायालय से निम्न स्तरीय अदालतों का हाल तो इससे कही बुरा हैं.
जिला कोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक चलने वाले एक मुकदमें का अंतिम फैसला 7 से 10 साल में आता हैं. राजस्थान, इलाहाबाद, कर्नाटक और कलकत्ता हाईकोर्ट देश के सबसे अधिक समय लेने वाले कोर्ट बन चुके हैं. वही निचली अदालतों की धीमी कार्यवाहियों वाले राज्यों की बात करे तो इसके गुजरात पहले पायदान पर हैं.
न्यायालय की कार्यप्रणाली को लेकर एक संस्था ने शोध किया जिसके नतीजे हैरतअंगेज करने वाले हैं. इस शोध में यह बात सामने आई कि किसी मुकदमें में लगने वाले कुल समय का ५५ प्रतिशत हिस्सा मात्र तारीख और समन में व्यय हो जाता हैं शेष मात्र ४५ प्रतिशत समय में ही मुकदमें की सुनवाई होती हैं.
न्याय व्यवस्था में सुधारों की आवश्यकता
न्याय के बारे में एक पुरानी अंग्रेजी उक्ति है- ‘न्याय में देरी करना न्याय को नकारना है और न्याय में जल्दबाजी करना न्याय को दफनाना है. यदि इस कहावत को हम भारतीय न्याय व्यवस्था के परिपेक्ष्य में देखे तो पाएगे कि इसका पहला भाग पुर्णतः सत्य प्रतीत होता हैं.
सिमित संख्या में हमारे जज और मजिस्ट्रेट मुकदमों के बोझ तले दबे प्रतीत होते हैं. एक मामूली विवाद कई सालों तक चलता रहता है तथा पीड़ित को दशकों तक न्याय का इतजार करना पड़ता हैं.
यही वजह है कि लोगों में न्याय के प्रति गहरे असंतोष के भाव हैं वे अपने साथ हुए अन्याय के विरुद्ध इसलिए कोर्ट नहीं जाते क्योंकि उनके यह भरोसा नहीं रहा कि न्याय उसके लिए मददगार होगा.
न्याय एडियाँ रगड़ते रगड़ते कई साल बाद मिलेगा जिसमें इतना समय तो व्यय हो ही जाएगा जो उसके वांछित न्याय मूल्य या सहायता से अधिक होगा.
जब भी कोई समस्या जन्म लेती है तो यकीनन एक नहीं कई समाधान भी उसके साथ आते हैं. हमें जरूरत होती है उस सही समाधान की तलाश की जो समस्या के प्रभाव को समाप्त कर दे.
बहुत से विद्वान् मानते है कि भारत की न्याय प्रणाली में अधिक समय खर्च होने का मूल कारण मामलों की अधिकता हैं बल्कि ऐसा नहीं है मामलों का शीघ्र निपटान न होना असल समस्या हैं.
इसके लिए सबसे बड़े जिम्मेदार वकील ही है जो केस को लम्बा खीचने के लिए कानून की सहूलियत का फायदा उठाकर तारीख पर तारीख ले लेते हैं.
जितना दोष वकीलों का है उतना माननीय न्यायधीशों का भी है जो पर्याप्त कारणों के बीना भी इन वकीलों को तारीखे देकर केस को अनावश्यक लम्बा खीचने में मदद करते हैं.
केवल यह कहकर कि हमारे न्यायिक तन्त्र में खामियां है उसे कोसते रहना उचित नहीं हैं. सभी नागरिकों, जजो, वकीलों तथा हमारी सरकारों का यह दायित्व है कि हम न्याय व्यवस्था को दुरुस्त करे कोर्ट की तारीख पर तारीख देने की प्रवृत्ति को हर हाल में रोकना होगा, अन्यथा जल्दी न्याय की अपेक्षा व्यर्थ है भले ही फास्ट ट्रेक कोर्ट बनाए या कुछ और.
साथ ही वादी तथा प्रति वादी द्वारा अधिकतम समय लेने की सीमा भी निर्धारित की जानी चाहिए. तारीख लेने की नियत संख्या निर्धारित होने के बाद उस समयावधि में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत गवाहों एवं सबूतों के आधार पर फैसला दे देना चाहिए.
ऐसा नहीं है कि न्यायालय की इच्छा शक्ति का कोई महत्व नहीं हैं. राम मन्दिर विवाद का निर्णय इसकी मिसाल है जज महा शय द्वारा केस की सुनवाई का समय निर्धारित हो गया था जिसके बाद किसी डेट पर सुनवाई नहीं होगी,
वाकई इस पद्धति को प्रत्येक मामले पर लागू किया जाए तो हमारी न्याय व्यवस्था में अभूतपूर्व बदलाव देखे जा सकते हैं. इससे पीड़ित व्यक्ति को न केवल समय पर न्याय मिल सकेगा बल्कि आमजन का न्याय में विश्वास बढ़ेगा जो बड़ी बात हैं.