आज का निबंध, मौलिक अधिकार का महत्व पर निबंध Essay On Fundamental Rights In Hindi पर दिया गया हैं. हमें भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकार स्वतंत्रता प्रदान करते हैं.
हमारे संविधान का तीसरा भाग सभी नागरिकों को बिना किसी भेद के सभी प्रकार के अधिकार समान रूप से प्रदान करता हैं. आज हम मूल अधिकार कितने कौन कौनसे है उनके महत्व आदि के बारे में निबंध पढ़ेगे.
मौलिक अधिकार का महत्व पर निबंध Essay On Fundamental Rights In Hindi
संविधान के भाग-III में यह कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के लिंग, जाति, धर्म, पंथ या जन्म स्थान की स्थिति के आधार पर भेदभाव ना करके उन्हें ये अधिकार दिए जाते हैं।
अधिकार व्यक्ति के विकास के वे दावे है, जिन्हे समाज और राज्य स्वीकार करता है, जब उन अधिकारों का वर्णन देश के संविधान में हो और उनको न्यायपालिका द्वारा न्यायिक सुरक्षा प्राप्त हो. तब ऐसे मौलिक अधिकार कहलाते है.
मौलिक अधिकारों का वर्णन लोकतांत्रिक संविधान की प्रमुख विशेषता होती है, जिनके बारे में संविधान निर्माता सचेत थे. भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदत अधिकारों के बारे में जानकारी दी जा रही है.
संविधान निर्माण के लिए गठित विभिन्न समितियों में एक मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित समिति भी थी. संविधान निर्माता चाहते है कि इन अधिकारों में भारत की सम्रद्ध सांस्कृतिक परम्परा एवं वैदिक काल से इस देश के महान लोगों द्वारा सजोए आधारभूत मूल्यों का समावेश हो,
इसलिए मूल अधिकारों वाले भाग पर कुल 38 दिनों तक चर्चा हुई. डॉक्टर एस राधाकृष्णन ने मूल अधिकारों को हमारी भावनाओं के साथ किया गया वादा तथा सभ्य विश्व के साथ की गयी संधि कहा जाता था.
वास्तव में मौलिक अधिकारों द्वारा राष्ट्र की एकता और अखंडता की सुरक्षा के साथ जनता के हितों की रक्षा के लिए कठिन कार्य करने का प्रयास किया गया है.
यही कारण है कि इन अधिकारों का जितना विस्तृत वर्णन भारतीय संविधान में है, उतना व्यापक वर्णन विश्व के किसी भी देश के संविधान में नही है.
भारतीय संविधान के भाग 3 में अनुच्छेद 12 से लेकर 35 तक अधिकारों का वर्णन है, मूल रूप से कुल सात मौलिक अधिकार प्रदत थे, लेकिन 44 वें संविधान संशोधन 1978 द्वारा सम्पति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की श्रेणी से हटाकर कानूनी अधिकार बनाने के कारण वर्तमान में कुल 6 मौलिक अधिकार है, यथा
भारत के संविधान के मौलिक अधिकार Fundamental Rights in Hindi
समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18) (Right to Equality)
संविधान निर्माता समाज में व्याप्त असमानताओ समानता का अंत नही किया जाएगा, तब तक स्वतंत्रता के अधिकार का कोई औचित्य नही होगा,
इसलिए उन्होंने समानता के अधिकार को पहला मौलिक अधिकार बनाया, समानता के अधिकार के अनुसार किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून के समान संरक्षण से वंचित नही किया जा सकता है.
राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के कारण भेदभाव नही करेगा तथा दुकानों, सार्वजनिक स्थलों भोजनालयों, होटलों साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं तालाबों स्नानघरों के उपयोग पर उपर्युक्त में से किसी कारण से पाबंदी नही लगाई जा सकती,
सरकारी पदों पर नियुक्ति के बारे में सभी नागरिकों को समान अवसर प्रदान किया गया है. मूलवंश, धर्म, जाति के आधार पर किसी नागरिक को किसी सरकारी सेवा या पद के लिए अयोग्य घोषित नही किया जाएगा.
लेकिन अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग एवं महिलाओं आदि के लिए विशेष प्रावधान किये जा सकते है. जिनमे आरक्षण भी शामिल है.
इसके अलावा समानता के अधिकार में ही अस्प्रश्यता अथवा छुआछुत का अंत कर उसे दंडनीय अपराध बनाया गया है.
और किसी तरह की उपाधियो का अंत कर दिया गया है. जिससे कि नागरिकों में किसी तरह की असमानता प्रकट न हो सके. केवल सैनिक वीरता व विद्या कौशल के लिए सम्मान के रूप में परमवीर चक्र, महावीर चक्र, भारतरत्न, पदम् सम्मान आदि दिए जा सकते है.
इस तरह समानता के अधिकार में संविधान न केवल कानूनी समानता अपितु सामाजिक समानता की स्थापना पर भी जोर देता है जिससे कि एक समरस समाज की स्थापना की जा सके.
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22) (right to freedom in hindi)
समानता के अधिकार के बाद संविधान स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है, जिससे नागरिक अपने व्यक्तित्व का सर्वोत्तम विकास कर सके.
देश के सभी नागरिकों को विचार अभिव्यक्ति करने की, शांतिपूर्ण बिना शस्त्रों के सम्मेलन करने की, किसी तरह का संगठन बनाने की,
भारत में कही भी घूमने फिरने की और निवास करने की तथा कोई भी पेशा, नौकरी, व्यवसाय आदि आजीविका प्राप्त करने की स्वतंत्रता प्राप्त है.
लेकिन इन सारी स्वतन्त्रताओ पर युक्तियुक्त अथवा उचित प्रतिबन्ध लगाए जा सकते है .भाषण की स्वतंत्रता का अर्थ किसी का अपमान करना ,न्यायालय की अवमानना करना या सदाचार और नेतिकता का उल्लंघन करना नहीं है
व्यक्ति समाज के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ होता है इसलिए उसको इसी सीमा तक स्वतंत्रता है कि दुसरे लोगों की स्वतंत्रता में किसी तरह की बाधा नहीं पहुंचे
संविधान यह अधिकार भी प्रदान करता है कि किसी भी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए तब तक दोषी नही ठहराया जा सकता, जब तक कि उसने ऐसा कार्य करते समय किसी प्रचलित विधि का अतिक्रमण नही किया हो, किसी भी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दुबारा दंडित नही किया जाएगा.
इसी तरह किसी व्यक्ति को अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नही किया जा सकता. मौलिक अधिकारों में सबसे महत्वपूर्ण अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 21 में है,
जो प्राण और दैहिक स्वतंत्रता अर्थात जीवन का अधिकार प्रदान करता है, जिसके अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता की विधि द्वारा स्थापित स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जा सकता है.
86 वें संविधान संशोधन 2002 के द्वारा अनुच्छेद 21 क में जीवन में अधिकार में शिक्षा के अधिकार को शामिल करते हुए कहा गया है कि राज्य छ वर्ष से 14 वर्ष तक के सभी बालकों के लिए निशुल्क एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करेगा,
इसके अतिरिक्त यह यह स्वतंत्रता भी प्रदान की गई है कि किसी व्यक्ति को कैद किया गया है तो उसे शीघ्र ही गिरफ्तारी के कारणों से अवगत करवाना होगा.
उसे अपनी इच्छा के किसी वकील की सहायता लेने से भी नही रोका जा सकता है. पुलिस का यह कर्तव्य है कि वह बंदी व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर न्यायालय में प्रस्तुत करे.
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23,24) (right against exploitation)
राज्य व्यक्ति अथवा किन्ही दूसरे व्यक्तियों के शोषण का शिकार नही हो, इसलिए इसलिए संविधान शोषण के विरुद्ध अधिकार प्रदान करता है. इसके अनुसार मानव दुर्व्यवहार, बेगार प्रथा और जबरन श्रम पर रोक लगाई गई है.
चौदह वर्ष से कम आयु के लड़के लड़कियों को किसी कारखाने, खान या अन्य खतरनाक कार्यों पर रोक लगाकर बाल श्रम का अंत कर दिया गया है.
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28) (Right to freedom of religion)
धर्म भारतीय समाज का सवेदनशील मुद्दा रहा है. मध्यकालीन भारत का इतिहास गवाह है कि शासकों से अलग किसी धर्म को मानने वालों को या तो मरवा दिया जाता था या फिर शासक का धर्म स्वीकार करने के लिए मजबूर किया था. अतः सविधान निर्माताओं ने धर्म व अतःकरण के अधिकार को मौलिक अधिकारों में स्थान दिया है.
सभी व्यक्तियों को धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार दिया गया है. लेकिन लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर इस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है.
इसी तरह यह किसी के धर्मांतरण का अधिकार भी प्रदान नही करता है. सेवा चिकित्सा, शिक्षा के द्वारा अथवा किसी को बहला फुसलाकर धर्म परिवर्तन करवाने के प्रयासों को न्यायपालिका कई बार गैर सवैधानिक बता चुकी है.
इसके साथ साथ धार्मिक कार्यों के प्रबन्धन के लिए धार्मिक संस्थाओ जैसे मन्दिर, मठ, गुरुद्वारा आदि की स्थापना करने के अधिकार को भी मौलिक अधिकार बनाया गया है. यह प्रावधान किया गया है कि सरकार की सहायता से पोषित किसी शिक्षा संस्था में धार्मिक शिक्षा नही दी जा सकती.
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29,30) (Culture and Education Rights)
भारतीय संविधान ने यह अनुपम व्यवस्था की है कि मौलिक अधिकारों में भी संस्कृति एवं शिक्षा संबंधी अधिकार अल्पसंख्यक वर्ग के हितों की रक्षा करता है,
इसके अनुसार नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा.
साथ ही धर्म और भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और संचालन का अधिकार होगा.
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32) (Right to Constitutional Remedies)
केवल संविधान में अधिकारों का वर्णन करना ही पर्याप्त नही है, अपितु ऐसी व्यवस्था करना भी आवश्यक है, जिससे इन मौलिक अधिकारों को लागू किया जा सके एवं उनका उल्लघन नही हो.
संवैधानिक उपचारों का अधिकार वह साधन है जो अधिकारों की सुरक्षा करता है. इसके अंतर्गत हर नागरिक को यह अधिकार है कि वह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थति में सर्वोच्च न्यायालय में जा सकता है. न्यायालय अधिकारों की सुरक्षा के लिए पांच तरह के प्रादेश या रिट जारी करता है.
बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार प्रच्छा और उत्प्रेषण रिट. इनके महत्व को बताते हुए डॉक्टर अम्बेडकर ने इसे संविधान का ह्रद्य व आत्मा की संज्ञा दी थी.