मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ Maithili Sharan Gupt Poems In Hindi– शीर्षक के इस लेख में आपकों भारत भूमि, भवन, जलवायु, दान, प्रभात, गो-पालन, होमागिन, देवालय, अतिथि-सत्कार, पुरुष और स्त्रियों इन विषयों पर आधारित 12 छोटी कविता इस पोस्ट में प्रकाशित की जा रही हैं.
खड़ी बोली हिंदी में रचित मैथिलीशरण गुप्त जी की ये कविताएँ उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ भारत-भारती का हिस्सा हैं. भारतीय सभ्यता और संस्क्रति के परम पुजारी गुप्त की भाषा शैली बेहद सरल हैं, इसलिए इन कविता के हिंदी अर्थ की आवश्यकता नही रहेगी.
मैथिलीशरण गुप्त की कविताएँ Maithili Sharan Gupt Poems In Hindi
भारतमाता पर आधारित कविता
ब्राही-स्वरूपा, जन्मदात्री, ज्ञान-गौरव-शालिनी,
प्रत्यक्ष लक्ष्मीरूपिणी, धन-धान्यपूर्णा, पालिनी,
दुद्धूर्ष रुद्राणी स्वरूपा शत्रु-स्रष्टि-लयंकारी,
वह भूमि भारतवर्ष ही हैं भूरि भावों से भरी ||
वे ही नगर वन,शैल,नदियाँ जो कि पहले थी यहाँ-
हैं आज भी, पर आज वैसी जान पड़ती हैं कहाँ ?
कारण कदाचित् हैं यही-बदले स्वय हम आज हैं,
अनुरूप ही अपनी दशा के दीखते सब साज हैं ||
भवन पर आधारित कविता
चित्रित घनों से होड़ कर जो व्योम में फहरा रहे-
वे केतु उन्नत मन्दिरों के किस तरह लहरा रहे ?
इन मन्दिर में से अधिक अब भूमितल में दब गये,
अवशिष्ट ऐसे दीखते हैं अब गये या तब गये ||
जलवायु पर कविता
पियूष-सम, पीकर जिसे होता प्रसन्न शरीर हैं,
आलस्य-नाशक, बल-विकासक उस समय का नीर हैं |
हैं आज भी वह, किन्तु अब पड़ता न पूर्व प्रभाव हैं,
यह कौन जाने नीर बदला या शरीर-स्वभाव हैं?
सुबह पर कविता
क्या ही पुनीत प्रभाव हैं, कैसी चमकती हैं मही:
अनुरागिणी उषा सभी को कर्म में रत कर रही |
यधपि जगाति हैं हमे भी देर तक प्रतिदिन वही,
पर हम अविध निद्रा-निकट सुनते कहाँ उसकी कहीं ?
दान पर छोटी कविता
सुस्नान के पीछे यथाक्रम दान की बारी हुई,
सर्वस्व तक के त्याग की सानन्द तैयारी हुई |
दानी बहुत हैं किन्तु याचक अल्प हैं उस काल में,
ऐसा नही जैसी कि अब प्रतिकूलता हैं हाल में ||
गाय पर छोटी कविता
जो अन्य धात्री के सद्र्श सबको पिलाती दुग्ध हैं,
(हैं जो अमृत इस लोक का, जिस पर अमर भी मुग्ध हैं)
वे धेनुएँ प्रत्येक गृह में हैं दुही जाने लगी-
यों शक्ति की नदियाँ वहाँ सर्वत्र लहराने लगी ||
धृत आदि के आधिक्य से बल-वीर्य का सु-विकास हैं,
क्या आजकल का-सा कही भी व्याधियों का वास हैं |
हैं उस समय गो-वंश पलता, इस समय मरता वही |
क्या एक हो सकती कभी यह और वह भारत मही ?
होमाग्नि पर छोटी कविता
निर्मल पवन जिसकी शिखा को तनिक चंचल कर उठी-
होमाग्नि जलकर द्विज-गृहों में पुण्य परिमल भर उठी |
प्राची दिशा के साथ भारत-भूमि जगमग जग उठी,
आलस्य में उत्साह की-सी आग देखो, लग उठी ||
देवालय पर कविता
नर-नारियों का मन्दिर में आगमन होने लगा,
दर्शन, श्रवण, कीर्तन, मनन से मग्न मन होने लगा |
ले ईश्-चरनामृत मुदित राजा-प्रजा अति चाव से-
कर्तव्य द्रढ़ता की विनय करने लगे समभाव से ||
अतिथि सत्कार पर छोटी कविता
अपने अतिथियों से वचन जाकर गृहस्थोने कहे –
सम्मान्य आप यहाँ निशा में कुशलपूर्वक तो रहे |
हमसे हुई हो चुक जो कृपया क्षमा कर दीजिए –
अनुचित न हो तो, आज भी यह गेह पावन कीजिए ||
आदमी पर छोटी कविता
पुरुष-प्रवर उस काल के कैसे सदाशय हैं अहा !
संसार को उनका सुयश कैसा समुज्ज्वल कर रहा !
तन में अलौकिक कान्ति हैं, मन में महासुख-शांति हैं,
देखो न उनको देखकर होती सुरों की भ्रान्ति हैं ! ||
स्त्री पर छोटी कविता
आलस्य में अवकाश को वे व्यर्थ ही खोती नही,
दिन क्या निशा में भी कभी पति से प्रथम सोती नही,
सीना पिरोना, चित्रकारी जानती हैं वे सभी-
संगीत भी, पर गीत गंदे वे नही गाती कभी ||
संसार-यात्रा में स्वपति की वे अटल अश्रन्ति हैं,
हैं दुःख में वे धीरता, सुख में सदा वे शांति हैं |
नर हो न निराश करो मन को
नर हो न निराश करो मन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।