पारसी धर्म के संस्थापक इतिहास और पूजा स्थल | Parsi Religion Founder History and Place of Worship in Hindi

पारसी धर्म के संस्थापक इतिहास और पूजा स्थल | Parsi Religion Founder History and Place of Worship in Hindi: पारसी धर्म का जन्म फारस (ईरान) में हुआ था.

वहां के निवासियों का धर्म प्रकृति की पूजा पर आधारित था. पारसी धर्म के मुख्य देवता सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी आदि थे. परन्तु सूर्य को सबसे बड़ा देवता माना जाता था.

आज के आर्टिकल में हम इस एकेश्वरवादी रिलिजन के बारे में विस्तार से जानेगे.

पारसी धर्म संस्थापक इतिहास | Parsi Religion in Hindi

धर्म नामपारसी धर्म (जरथुस्त्र धर्म)
संस्थापकसन्त ज़रथुष्ट्र
प्राचीनता2 हजार ईसा पूर्व
मान्यताएकेश्वरवाद
प्रतीकसदरो (पवित्र कुर्ती) और पवित्र धागा
धर्मग्रन्थजेंद अवेस्ता
मानने वालों की संख्या1 से 1.5 लाख
मूल देशईरान
बहुल आबादीमुंबई
देवताहुरा मज़्दा (होरमज़्द)
प्रमुख त्यौहारनवरौज

फारस का यह प्राकृतिक धर्म कालांतर में धर्म श्रवौन के रूप में स्वीकार किया गया. इस धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र थे. यही श्रवौन धर्म बाद में पारसी धर्म बना. जरथुष्ट्र का जन्म पश्चिमी ईरान के अजरबेजान प्रान्त में हुआ था. उनके पिता का नाम पोमशष्पा और माता का नाम दुरोधा था.

वे आरम्भ से ही विचारशील थे. तीस वर्ष की आयु में सबलाना पर्वत पर उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, अधिकाँश विद्वान जरथुष्ट्र का काल 600 ई.पू. मानते है.

जरथुष्ट्र द्वारा स्थापित दार्शनिक चिन्तन के अनुसार शरीर नाशवान है. तथा आत्मा अमर है. परन्तु मनुष्य को अपने कर्म के अनुसार सत्य व असत्य का पालन करने से स्वर्ग तथा नरक की प्राप्ति होती है. इन विचारों से पारसी दर्शन तथा वैदिक दर्शन के समान ही दिखाई देते है.

पारसी दर्शन के अनुसार संसार दैवी और दानवी शक्तियों का प्र्त्क अहुरमजदा है. यह महान देवता है, जिसने पृथ्वी, मनुष्य व स्वर्ग की रचना की. अहुरमजदा शक्ति कहती है कि ”ऐ मनुष्यों बुरी बात न सोचो सद्मार्ग न छोड़ो तथा पाप न करों.

दानवीय शक्तियों का प्रतीक अहरिमन है. अहरिमन शक्ति मनुष्यों को शैतान बनाकर नरक की ओर ले जाती है. इन दोनों शक्तियों में संघर्ष चलता रहता है.

किन्तु अंतिम विजय अहुरमजदा की होती है. जरथुष्ट्र का धर्म पलायनवादी नही है. उसका मत है कि संसार में रहते हुए सद्कर्म करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है.

पारसी धर्म के अनुसार शरीर के दो भाग है. 1. शारीरिक तथा 2. अध्यात्मिक. मरने के बाद शरीर तो नष्ट हो जाता है किन्तु आध्यात्मिक भाग जीवित रहता है.

पारसी धर्म दर्शन के अनुसार वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी से मिलकर बना है. पारसी धर्म का पवित्र ग्रन्थ अवेस्ता-ए-जेद है जिसमे इस धर्म के संस्थापक जरथुष्ट्र की शिक्षाएँ संकलित है.

कालान्तर में ईरान पर बाहरी आक्रमण होने से पारसियों की बहुत बड़ी संख्या भारत में आ बसी. मुंबई में स्थित पारसी मन्दिर वास्तुकला की दृष्टि से आज भी अत्यंत प्रसिद्ध है. इस प्रकार हम देखते है कि संसार के विभिन्न देशों में अलग अलग धर्म तथा दर्शनों ने जन्म लिया.

पारसी धर्म के लोग भारत में

अरब के मुस्लिम आक्रान्ताओं की बर्बरीयत की जिन्दा कहानी पारसी धर्म का अतीत हैं, जब इन्हें सातवीं सदी में अपने घर से खदेड़ा गया तो ये खुरासान आ पहुचे,

यहाँ लगभग 100 वर्षों तक रहे. मगर जब इस्लामी उपद्रवी यहाँ भी पहुच गये तो उन्होंने फारस की खाड़ी के एक द्वीप उरमुज का रुख किया, अगले 15 वर्षों तक वे यहाँ रहे.

जब आक्रमणकारियों की नजर इस द्वीप पर पड़ी तो उन्होंने एक छोटे जहाज में पवित्र अग्नि और धार्मिक पुस्तक के साथ भारत के दीव टापू की ओर प्रस्थान किया, यहाँ पुर्तगालियों का शासन था.

उन्होंने भी यहाँ पारसियों को नहीं रहने दिया तो ये दमन गये जहा राजा यादव राणा ने संजान नगर बसाकर उन्हें रहने की जगह दी तथा उनका मन्दिर भी बना दिया. जब मुसलमानों ने संजान पर भी आक्रमण कर दिया तो पारसी नवसारी आ गये और यहाँ से आसपास के शहरों में रहने लगे.

दुनिया के सबसे पुराने एवं श्रेष्ट धर्मों में से एक पारसी धर्म का उद्भव अखंड भारत में ही हुआ था. उनके वंशज भारतीय ही थे. उस समय तक ईरान भारत का ही हिस्सा था. 

टाटा समूह से लेकर रॉकस्टार फ्रेडी मर्करी, फिरोजशाह मेहता, दादा भाई नौरोजी और भीकाजी कामा ये कुछ मुंबई के पारसी लोगों के नाम है जिनके पूर्वज वहां के लोगों के द्वारा उत्पीडन से तंग आकर मुंबई में बस गये थे.

आज हमें मुंबई का जो विकसित चेहरा दिखाई देता हैं उसमें पारसी लोगों का बड़ा योगदान हैं. वर्तमान में पारसी धर्म के लोगों के बारे में बात करे तो बताया जाता हैं कि पारसियों की कुल आबादी सत्तर हजार ही हैं.

यह धर्म निरंतर सिमटता जा रहा हैं. इसे मानने वाले सर्वाधिक अनुयायी भारत एवं श्रीलंका में रहते हैं 5 % पारसी पाकिस्तान में भी रहते हैं. परन्तु दुनियां के अन्य देशों में इनकी उपस्थिति नामात्र हैं.

पारसी धर्म के संस्थापक

संत जरथुस्त्र को पारसी धर्म का संस्थापक माना जाता हैं. यह कालावधि 1700-1500 ई पू की थी उस समय भारत में राजा सुदास का अधिकार का था,

मध्य एशिया और यूरोप में हजरत इब्राहिम यहूदी धर्म का प्रसार कर रहे थे. पारसी धर्म को मानने वालों को पारसी या जोराबियन कहा जाता हैं. आहुरा माज्दा को ईश्वर को कहा जाता हैं.

जरथुस्त्र का जन्म यीशु मसीह की तरह एक कुँवारी कन्या जिनका नाम दुधधोवा (दोग्दों) से जीवन प्राप्त किया था, मान्यतानुसार इन्हें तीस वर्ष की आयु में ज्ञान की प्राप्ति हुई तथा 77 साल की आयु में इनका देहावसान हो गया. 24 अगस्त को इनका जन्म दिवस मनाया जाता हैं.

फारस के इस मत के बारे में आज बेहद कम साहित्यिक सामग्री उपलब्ध हैं, इसका कारण यह है कि सिकन्दर और उसके बाद मुस्लिम आक्रान्ताओं ने फारस के धार्मिक साहित्य को पूरी तरह समाप्त कर दिया,

ईरान के पहाड़ों में खुदे शिलालेख और लोगों को श्रुति रूप में मिली जानकारी ही इस धर्म के इतिहास का स्रोत रह गई हैं.

एक समय का फारस का राजधर्म बन चूका पारसी धर्म अरब में इस्लाम के उदय के बाद अपने पतन की ओर अग्रसर हो गया. सातवीं सदी में मुसलमानों ने ईरान पर आक्रमण किया और पारसियों के बुरे दिनों की शुरुआत हो गई.

अधिकतर को मुसलमान बना दिया गया शेष अपने धर्म की रक्षा के लिए अपना वतन छोडकर अन्य देशों की ओर प्रस्थान करने लगे. पारसियों की एक बड़ी संख्या 766 ईसा पूर्व दीव (दमण और दीव) पहुची जहाँ से मुंबई और गुजरात में पहुचे.

पवित्र पुस्तक व त्यौहार

पारसी धर्म की सबसे पवित्र पुस्तक ‘जेंद अवेस्ता मानी जाती हैं यह ऋग्वैदिक संस्कृत की एक समतुल्य अवेस्ता भाषा में लिखी गई हैं, इसकी शब्दावली उस दौर की संस्कृत से काफी मिलती जुलती हैं.

ऋग्वेद में पारसियों को आर्य की एक शाखा माना जाता हैं पारस को पारस्य तथा यहाँ के निवासियों को अत्रि कुल का माना गया हैं.

अगर बात करें पारसी धर्म के त्यौहार की तो नववर्ष जिसे नवरोज कहा जाता हैं सबसे बड़ा त्यौहार हैं, जिसे सभी पारसी बड़े धूमधाम से मनाते है तथा एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं. इस दिन अग्नि मन्दिरों में पूजा आदि के कार्यक्रम होते हैं. ईरान में इस दिन को ऐदे नवरोज कहा जाता हैं.

शाह जमशेद जी ने पारसी समुदाय के मध्य इस पर्व को मनाने की शुरुआत की हैं. सालभर में इस धर्म के मानने वाले तीन मौकों को बेहद खास मानते है.

उन्हें एक उत्सव की तरह मनाते है जिनमें एक खौरदाद साल, प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्मदिवस 24 अगस्त और तीसरा 31 मार्च .

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