चंद्रशेखर आजाद पर कविता Poem On Chandrashekhar Azad In Hindi हाँ मैं चंद्रशेखर आजाद हूँ मेरे वतन की रक्षा अपने भुजबल से करुगा, ये ही विचार आजादी के संग्राम में हर युवक को राष्ट्रसेवा की ओर प्रेरित कर रहे थे.
भारत के इतिहास में 23 जुलाई के दिन को हमेशा याद रखा जाएगा क्योंकि इस दिन भारत की धरती पर दो शेर जन्मे थे आजाद और बाल तिलक वर्ष 2023 में हम 117 वीं आजाद जयंती मना रहे हैं.
इस अवसर पर हम आपके लिए आजाद पर कविता पॉएम शायरी आदि लाए हैं. आजाद द्वारा स्वः लिखित कविता भी आपकों इस लेख में बता रहे हैं.
short Poem Chandrashekhar Azad कविता शहीद चन्द्रशेखर Hindi यहाँ बता रहे हैं.
चंद्रशेखर आजाद पर कविता Poem On Chandrashekhar Azad In Hindi
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जिनके जिनके बलिदान के बिस्तर पर ,
हम चादर ताने सोते है ;
शत शत नमन उन वीरो को,
जो शहीद होकर ही आज़ाद होते है.
चिगारी आज़ादी की सुलगी मेरे ज़हन मे है,
इन्क़लाब की ज्वालाये लिपटी मेरे बदन मे है,
मौत जहा जन्नत हो वो बात मेरे वतन मे है,
क़ुर्बानी का जज़्बा ज़िदा मेरे कफ़न मे है ||
Chandrasekhar Azad Poem in Hindi
मा हम विदा हो जाते है, हम विजय केतु फहराने आज
तेरी बलिवेदी पर चढ़कर मा निज शीश कटाने आज।
मलिन वेष ये आसू कैसे, कपित होता है क्यो गात?
वीर प्रसूति क्यो रोती है, जब लग खग हमारे हाथ।
धरा शीघ्र ही धसक जाएगी, टूट जाएगे न झुके तार
विश्व कापता रह जाएगा, होगी मा जब रण हुकार।
नृत्य करेगी रण प्रागण मे, फिर-फिर खग हमारी आज
अरि शिर गिराकर यही कहेगे, भारत भूमि तुम्हारी आज।
अभी शमशीर कातिल ने, न ली थी अपने हाथो मे।
हजारो सिर पुकार उठे, कहो दरकार कितने है॥
Chandrashekhar Azad Par Kavita
राज सत्ता में हुए मदहोश दीवानो! लुटेरों,
मैं तुम्हारे जुल्म के आघात को ललकारता हूँ।
मैं तुम्हारे दंभ को-पाखंड को, देता चुनौती,
मैं तुम्हारी जात को-औकात को ललकारता हूँ।
मैं जमाने को जगाने, आज यह आवाज देता
इन्कलाबी आग में, अन्याय की होली जलाओ।
तुम नहीं कातर स्वरों में न्याय की अब भीख माँगो,
गर्जना के घोष में विद्रोह के अब गीत गाओ।
आग भूखे पेट की, अधिकार देती है सभी को,
चूसते जो खून, उनकी बोटियाँ हम नोच खाएँ।
जिन भुजाओं में कसक-कुछ कर दिखानेकी ठसक है,
वे न भूखे पेट, दिल की आग ही अपनी दिखाएँ।
और मरना ही हमें जब, तड़प कर घुटकर मरें क्यों
छातियों में गोलियाँ खाकर शहादत से मरें हम।
मेमनों की भाँति मिमिया कर नहीं गर्दन कटाएँ,
स्वाभिमानी शीष ऊँचा रख, बगावत से मरें हम।
इसलिए, मैं देश के हर आदमी से कह रहा हूँ,
आदमीयता का तकाजा है वतन के हों सिपाही।
हड्डियों में शक्ति वह पैदा करें, तलवार मुरझे,
तोप का मुँह बंद कर, हम जुल्म पर ढाएँ तबाही।
कलम के जादूगरों से कह रही युग-चेतना यह,
लेखनी की धार से, अंधेर का वे वक्ष फाड़ें।
रक्त, मज्जा, हड्डियों के मूल्य पर जो बन रहा हो,
तोड़ दें उसके कंगूरे, उस महल को वे उजाड़ें।
बिक गई यदि कलम, तो फिर देश कैसे बच सकेगा,
सर कलम हो, कालम का सर शर्म से झुकने व पाए।
चल रही तलवार या बन्दूक हो जब देश के हित,
यह चले-चलती रहे, क्षण भर कलम स्र्कने न पाए।
यह कलम ऐसे चले, श्रम-साधना की ज्यों कुदाली,
वर्ग-भेदों की शिलाएँ तोड़ चकनाचूर कर दे।
यह चले ऐसे कि चलते खेत में हल जिस तरह हैं,
उर्वरा अपनी धरा की, मोतियों से माँग भर दे।
यह चले ऐसे कि उजड़े देश का सौभाग्य लिख दे,
यह चले ऐसे कि पतझड़ में बहारें मुस्कराएँ।
यह चले ऐसे कि फसलें झूम कर गाएँ बघावे,
यह चले तो गर्व से खलिहान अपने सर उठाएँ।
यह कलम ऐसे चले, ज्यों पुण्य की है बेल चलती,
यह कलम बन कर कटारी पाप के फाड़े कलेजे।
यह कलम ऐसे चले, चलते प्रगति के पाँव जैसे,
यह कलम चल कर हमारे देश का गौरव सहेजे।
सृष्टि नवयुग की करें हम, पुण्य-पावन इस धरा पर,
हाथ श्रम के, आज नूतन सर्जना करके दिखाएँ।
हो कला की साधना का श्रेय जन-कल्याणकारी,
हम सिपाही देश के दुर्भाग्य को जड़ से मिटाएँ।