सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर निबंध Sanch Barabar Tap Nahi Jhoot Barabar Paap Essay In Hindi

प्रिय साथियो आपका स्वागत है Sanch Barabar Tap Nahi Jhoot Barabar Paap Essay In Hindi में  हम आपके साथ सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर निबंध साझा कर रहे हैं.

कक्षा 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10 तक के बच्चों को सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप जाके हिरदै सांच है ताके हृदय आप कहावत निबंध सरल भाषा  में लिखे गये  हिन्दी निबंध  को परीक्षा के लिहाज से याद कर लिख सकते हैं.

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर निबंध

सांच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप पर निबंध Sanch Barabar Tap Nahi Jhoot Barabar Paap Essay In Hindi

आज के समय के मुताबिक़ यह सूक्ति जितनी अर्थपूर्ण एवं प्रासंगिक हैं, जितनी शायद यह पहले कभी नहीं रही. वर्तमान काल में यंत्रवत समाज में मानव केवल मशीन बन गया हैं,

बल्कि विद्यमान भौतिकवादी संस्कृति ने उसे जीवन की सुख सुविधाओं की प्राप्ति के लिए इस हद तक अधीर बना दिया कि उसने समस्त आदर्शों एवं मूल्यों को ताक पर रख दिया हैं.

इन्ही में से एक आदर्श सच भी हैं. उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रचार प्रसार होने के साथ ही इंसानी मूल्यों की परीक्षा की घड़ी भी सामने आ गई हैं.

मानव रिश्तों को महत्व भौतिकता प्रधान संस्कृति के चलन में होने के साथ साथ कम होती चली गई और आज उत्तर आधुनिक दौर में सामाजिक सम्बन्ध की कड़ियाँ टूटती नजर आ रही हैं.

मानव रिश्तों के आगे भी क्वेशन मार्क लग गया हैं. मानवीय सम्बन्धों से अर्थ मानव मात्र के सम्बन्धो से होना हैं. व्यक्ति उपभोक्तावादी संस्क्रति से इस हद तक प्रभावित है कि अब परिवार के सदस्यों के बीच के आपसी सम्बन्ध भी खो गये हैं.

ऐसे बनावटी परिवेश में व्यक्ति सिर्फ अपनी व्यक्तिगत सफलताओं तक सिमित रह गया हैं. और इन्हें पाने के लिए वह अत्यत खुलें एव निसकोच रूप से असत्य का सहारा लेने लगा हैं.

मानव को सामाजिक प्राणी हैं. लेकिन एक ऐसा सामाजिक प्राणी, जो सबसे अधिक विवेक बुद्धि प्राप्त हैं. वह अपनी बुद्धि का उपयोग सम्पन्नता एवं प्रतिभा से ऐसे संसार की निर्माण के जुटा है जहाँ वह अधिक से अधिक सुख सुविधाओं का आनन्द भोग सके.

नतीजेजन लगातार तेज गति से भौतिक उपलब्धियाँ प्राप्त की जा रही हैं. मगर इसका दूसरा पहलू यह हैं कि उसने अपने लिए जगह जगह पर कई ऐसी सामाजिक व्यवस्थाए भी बनाई हैं, जो निरपेक्ष नजरिये से विवादित एवं नैतिकता से बहुत दूर हैं  हैं. असत्य बोलने को सामाजिक वैधता देना उन्हीं में से एक हैं.

मानव स्वभाव को देखते हुए अनादि काल से सच्चरित्रता पर सवाल उठते रहे हैं. समाज ने सामाजिक परिपाटी को सुव्यवस्थित तरीके से गतिमान बनाने के लिए कुछ नैतिक मानकों को निर्मित किया हैं, जिसमे एक अत्यत महत्वपूर्ण नैतिकता, सत्य वचन बोलना भी हैं.

मगर मनुष्य स्वभाव को मध्य में रखते हुए यह निछोड़ निकला कि अपनी भौतिक सुख सुविधाओं के अनुसार मानव  झूठ बोलने से नहीं चूकता, जिससे उसे तो त्वरित आराम तो मिल जाता हैं. मगर बड़े स्तर पर अन्य सदस्यो को इसकी कीमत अदा करनी पड़ती हैं.

इसलिए लोगो के बीच इस सूक्ति को व्यापक रूप से प्रचारित किया गया कि सच बोलने से बड़ा कोई दूसरा तप नहीं हैं और झूठ बोलने से बड़ा कोई पाप नहीं.

तप अपने आप में एक जटिल मानवीय व्यवहार हैं, जिसमें भौतिक सुविधाओ का पूरी तरह छोड़ना पड़ता हैं. भौतिक सुख सुविधाओं की पूरी तरह समाप्त कर देना एक प्रकार से तपस्या ही हैं और ऐसी प्रवृत्ति के तप मे सच बोलना शिखर पर स्थित हैं.

क्योंकि सच बोलने का आशय हैं अपनी सुविधाओं के लिए व्यतीत हुए बिना सच्चाई को उसी रूप में सामने रखना, जिस रूप में वह उपस्थित है.

यह आम तौर पर मानव स्वभाव से मेल नही खाता क्योकि मानव न केवल सामाजिक ढाँचे का निर्माण करने वाला स्वयं ही हैं  बल्कि वह स्वभाव से थोड़ा लोभी, आलसी एवं संग्रही किस्म का भी होता हैं.

इन सभी को मध्यनजर में रखकर कहा जा सकता है कि अपनी सहूलियत के अनुसार वह सच्चाई को वह उसी रूप में प्रस्तुत नहीं करता हैं.

आज जिस तेज गति से परिवर्तित उत्तर आधुनिक समाज में मानव की सोच सिर्फ स्वय तक ही सिमित हो गयी हैं. नैतिकता उसके लिए सिर्फ दूसरो को उपदेश देने की चीज बनकर रह गई है. खुद को लाभान्वित करने के लिए  विभिन्न हथकंडे अपनाता रहता हैं.

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