सुमित्रानंदन पंत की कविता Sumitranandan Pant Poems In Hindi

सुमित्रानंदन पंत की कविता Sumitranandan Pant Poems In Hindi- प्रकृति के सुकुमार कवि कहे जाने वाले पंत जी की कविताएँ समाज देशप्रेम और प्राकृतिक सौदर्य पर आधारित हैं.

यहाँ दी गयी प्रार्थना, संध्या और द्रुत झरो शीर्षक की कविताओं में कवि कभी बादलों को बरसने का आव्हान करता हैं तो कभी संध्या के समय का मनोहारी वर्णन अपनी पक्तियों से करता हैं.

तीसरी कविता में सुमित्रानंदन पंत जी उन पुरानी परम्पराओ और रीती-रिवाज नष्ट होने की बात करते हैं, जिनका इस आधुनिक युग में कोई महत्व नही हैं.

सुमित्रानंदन पंत की कविता Sumitranandan Pant Poems In Hindi

सुमित्रानंदन पंत की कविता Sumitranandan Pant Poems In Hindi

प्रार्थना Sumitranandan Pant Poems In Hindi

जग के उर्वर आँगन में,
बरसो ज्योतिमर्य जीवन |
बरसो लघु-लघु तरन तरु पर,
हे चिर-अवयव चिर-नूतन !

बरसो कुसुमों के मधुवन,
प्राणों के अमर प्रणय धन,
स्मति स्वप्न अधर पलकों में,
उर अंगो में सुख यौवन |

छू-छु जग के मृत रजकण
कर दो तरण तरु में चेतन,
म्रंमरण बाँध दो जग का,
दे प्राणों का आलिंगन !

बरसो सुख बन सुखमा बन,
बरसो जग-जीवन के घन !
दिशि-दिशि में औ पल-पल में
बरसो संस्रति के सावन!

संध्या :Sumitranandan Pant Poems In Hindi

कौन, तुम रूपसि कौन ?
व्योम से उतर रही चुपचाप,
छिपी निज छाया छवि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,
मधुर, मंथर मृदु, मौन!
मूंद अधरों में मधु पालाप,
पलक में निमिष,पदों में चाप,
भाव संकुल बंकिम भुर्र-चाप,
मौन केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक धुति गात,
नयन मुकुलित नतमुख जलजात,
देह छबि छाया में दिन रात,
कहां रहती तुम कौन ?
अनिल पुलकित स्वर्णाचल लोल,
मधुर, नुपुर-ध्वनि खग-कुल रोल,
सीप से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल-
बने पावस घन स्वर्ण-हिंडोल,
कहो एकाकिनी कौन ?
मधुर, मंथर तुम मौन |

(Sumitranandan Pant Poems In Hindi) : द्रुत झरो

द्रुत झरो जगत के जीर्णपत्र
हे स्रस्त ध्वस्त ! हे शुष्क शीर्ण !
हिमताप पीत, मधुवात भीत
तुम वीत राग जड़ पुराचीन!!
निष्प्राण विगत युग! मृत विहंग!
जग नीड़ शब्द और श्वासहिन्
च्युत अस्त व्यस्त पंखो से तुम,
झर-झर अनन्त में हो विलीन!
कंकाल जाल जग में फैले
फिर नवल रुधिर-पल्लव लाली!
प्राणों के मर्मर से मुखरित
जीवन की मासल हरियाली !
मंजरित विश्व में यौवन के
जगकर जग का पिक, मतवाली
नीज अमर प्रणय स्वर मदिरा से
भर से फिर नवयुग की प्याली |

बापू के प्रति कविता| सुमित्रानंदन पंत | Sumitranandan Pant Poems

तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!

तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन;
आधार अमर, होगी जिस पर
भावी की संस्कृति समासीन!

तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,
निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग
है विश्व-भोग का वर साधन।

इस भस्म-काम तन की रज से
जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!

सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम,
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँक दी
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।

जग पीड़ित छूतों से प्रभूत,
छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!
तुमने पावन कर, मुक्त किए
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!

सुख-भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज!

जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर
चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,
पशुता का पंकज बना दिया
तुमने मानवता का सरोज!

पशु-बल की कारा से जग को
दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,
विद्वेष, घृणा से लड़ने को
सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;

वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ
तुमने विचार-परिणीत उक्ति,
विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!

सहयोग सिखा शासित-जन को
शासन का दुर्वह हरा भार,
होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से
रोका मिथ्या का बल-प्रहार:

बहु भेद-विग्रहों में खोई
ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,
तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,
औ अन्धकार को अन्धकार।

उर के चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।

रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद,
मानवी-कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।

जड़वाद जर्जरित जग में तुम
अवतरित हुए आत्मा महान,
यन्त्राभिभूत जग में करने
मानव-जीवन का परित्राण;

बहु छाया-बिम्बों में खोया
पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,
फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में
फूँकने सत्य से अमर प्राण!

संसार छोड़ कर ग्रहण किया
नर-जीवन का परमार्थ-सार,
अपवाद बने, मानवता के
ध्रुव नियमों का करने प्रचार;

हो सार्वजनिकता जयी, अजित!
तुमने निजत्व निज दिया हार,
लौकिकता को जीवित रखने
तुम हुए अलौकिक, हे उदार!

मंगल-शशि-लोलुप मानव थे
विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,
तुम केन्द्र खोजने आये तब
सब में व्यापक, गत राग-शोक;

पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित
उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,
जीवन-इच्छा को आत्मा के
वश में रख, शासित किए लोक।

था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त
इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण,
बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद
मानव-संस्कृति के बने प्राण;

थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद
छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान,
भू पर रहते थे मनुज नहीं,
बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान–

तुम विश्व मंच पर हुए उदित
बन जग-जीवन के सूत्रधार,
पट पर पट उठा दिए मन से
कर नव चरित्र का नवोद्धार;

आत्मा को विषयाधार बना,
दिशि-पल के दृश्यों को सँवार,
गा-गा–एकोहं बहु स्याम,
हर लिए भेद, भव-भीति-भार!

एकता इष्ट निर्देश किया,
जग खोज रहा था जब समता,
अन्तर-शासन चिर राम-राज्य,
औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता;

हों कर्म-निरत जन, राग-विरत,
रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता,
प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव,
है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता।

ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र
शासन-चालन के कृतक यान,
मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र
हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान;

भौतिक विज्ञानों की प्रसूति
जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान,
मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम–
मानव मानवता का विधान!

साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी
मानवता पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त;

कारा-गृह में दे दिव्य जन्म
मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त!

कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति
बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त,
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम;

आए तुम मुक्त पुरुष, कहने–
मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं, मा भैः
जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!

सुख-दुख कविता

सुख-दुख के मधुर मिलन से
यह जीवन हो परिपूरन;
फिर घन में ओझल हो शशि,
फिर शशि से ओझल हो घन !

मैं नहीं चाहता चिर-सुख,
मैं नहीं चाहता चिर-दुख,
सुख दुख की खेल मिचौनी
खोले जीवन अपना मुख !

जग पीड़ित है अति-दुख से
जग पीड़ित रे अति-सुख से,
मानव-जग में बँट जाएँ
दुख सुख से औ’ सुख दुख से !

अविरत दुख है उत्पीड़न,
अविरत सुख भी उत्पीड़न;
दुख-सुख की निशा-दिवा में,
सोता-जगता जग-जीवन !

यह साँझ-उषा का आँगन,
आलिंगन विरह-मिलन का;
चिर हास-अश्रुमय आनन
रे इस मानव-जीवन का !

सुमित्रानंदन पंत की कविता चींटी

चींटी को देखा?
वह सरल, विरल, काली रेखा
तम के तागे सी जो हिल-डुल,
चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल,
यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति
काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।
गाय चराती, धूप खिलाती,
बच्चों की निगरानी करती
लड़ती, अरि से तनिक न डरती,
दल के दल सेना संवारती,
घर-आँगन, जनपथ बुहारती।
चींटी है प्राणी सामाजिक,
वह श्रमजीवी, वह सुनागरिक।
देखा चींटी को?
उसके जी को?
भूरे बालों की सी कतरन,
छुपा नहीं उसका छोटापन,
वह समस्त पृथ्वी पर निर्भर
विचरण करती, श्रम में तन्मय
वह जीवन की तिनगी अक्षय।
वह भी क्या देही है, तिल-सी?
प्राणों की रिलमिल झिलमिल-सी।
दिनभर में वह मीलों चलती,
अथक कार्य से कभी न टलती।

जीना अपने ही में -सुमित्रानंदन पंत

जीना अपने ही में
एक महान कर्म है,
जीने का हो सदुपयोग
यह मनुज धर्म है।

अपने ही में रहना
एक प्रबुद्ध कला है,
जग के हित रहने में
सबका सहज भला है।

जग का प्यार मिले
जन्मों के पुण्य चाहिए,
जग जीवन को
प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए।

ज्ञानी बनकर
मत नीरस उपदेश दीजिए,
लोक कर्म भव सत्य
प्रथम सत्कर्म कीजिए।

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