वराह अवतार जयंती 2024 कथा | Varaha Avatar Jayanti Story In Hindi नरसिंह अर्थात् वराह अवतार भगवान् विष्णु का एक रूप था. जिन्होंने आज से हजारों साल पूर्व एक अत्याचारी शासक हिरण्याक्ष का वध किया था,
ऐसा हमारे धार्मिक ग्रंथों में पढ़ने को मिलता हैं. विष्णु जी ने इसे नाम से तीन अवतार लिए थे. आदि वराह, नील वराह और श्वेत वराह इनके युग को वराह काल अथवा युग के नाम से भी जाना जाता हैं.
दक्षिण भारत में हिंगोली, हिंगनघाट, हींगना नदी तथा हिरण्याक्षगण हैंगड़े आदि स्थानों पर आज भी वराह अवतार के मन्दिर बने हुए हैं. बारामती कराड़ जो महाराष्ट्र के दक्षिण में स्थित हैं इसे वराह अवतार द्वारा बसाया गया था.
वराह अवतार जयंती 2024 कथा | Varaha Avatar Jayanti Story In Hindi
जब जब पृथ्वी लोक में धर्म की हानि और पाप बढ़ता है अत्याचारियों के आतंक से मानवता मरने लगती है तो ईश्वर स्वयं अलग अलग स्वरूपों में धरती पर अवतरित होते हैं.
स्रष्टि के पालनकर्ता कहे जाने वाले श्रीहरि विष्णु जी के 24 अवतार माने जाते है उनका तीसरा अवतार वराह अवतार कहा जाता है वराह का अर्थ होता है शुकर.
हिरण्याक्ष राक्षस का वध करने के लिए विष्णु जी ने भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को आधे सूअर और आधे मनुष्य के स्वरूप में अवतार लिया था. उनके अवतरण दिवस को वराह जयंती के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता हैं.
वराह जयंती कब है 2024 (Varaha Jayanti 2024 Date)
वराह जयंती पूजा | शुक्रवार | 6 सितम्बर 2024 |
भारतीय समयानुसार 6 सितम्बर 2024 को वराह जयंती मनाई जायेगी. भारत भर में इस दिन कई मन्दिरों में पूजा पाठ का आयोजन होता हैं.
मथुरा में भगवान वराह का एक प्राचीन मन्दिर है जहाँ धूमधाम से जयंती मनाई जाती हैं. और अन्य मन्दिर तिरुमाला में भू वराह स्वामी का हैं.
भगवान वराह अवतार की कथा कहानी (Varaha Avatar Story In Hindi)
Lord Vishnu Varaha Avatar Story: पुराने समय की बात हैं एक बार सनत-सनकादि जो कि ब्रह्मदेव के पुत्र थे, इन्होने देवलोक में भगवान् विष्णु जी के दर्शन करने की सोची और वहां से चल पड़े.
दोनों बिना वस्त्र पहिने नंगे साधू के वेश में थे. जब वे विष्णु जी के द्वार पर गये तो वहां उनकी मुलाक़ात दो पहरेदारों से हुई जिनका नाम जय और विजय था.
वे दोनों साधुओं को इस तरह नंगे देखकर जोर जोर से हंसकर उनका अपमान करने लगे. तथा पूछने लगे यहाँ क्यों आए और किससे आपका क्या काम हैं.
साधू बेहद विनम्र स्वभाव के थे, उन्हें अपने उपहास पर क्रोध नही आया. वे कहने लगे वत्स हमारा नाम सनत-सनकादि हैं हम भगवान् विष्णु जी से मिलने आए हैं.
यह सुनकर द्वारपाल फिर से उनका मजाक उड़ाने लगे तथा उन्हें अंदर जाने से रोकने लगे. ऐसे में उन्हें बेहद क्रोध आया और आग बबूला होकर श्राप देने लगे- हे दुष्ट मानव आप देवताओं के साथ रहकर भी दानवों जैसा व्यवहार कर रहे हो, अगले जन्म में आप दानव के रूप में जन्म लेगे.
इतना तेज गर्जना सुनकर स्वयं विष्णु जी बाहर आए तो देखा सनत-सनकादि द्वार पर खड़े थे. वे उन्हें अंदर ले जाने लगे. जब उन्होंने जय विजय का निराश चेहरा देखा तो उन्होंने पूरा वृतांत सुनाने को कहा, इस पर उन दोनों ने अपने साथ घटित वाक्या विष्णु जी को बताया.
इस पर उन्होंने उनकी नादानी पर कहा तुमने जो पाप किया है उसका फल तो भुगतना ही पड़ेगा. आपकों अगली योनी दुष्ट के रूप में जन्म लेनी होगी. मगर व्यर्थ की चिंता मत लो, आप मेरे द्वारपाल हो आपकों मैं दानव यौनी से मुक्ति दिलाउगा.
सनत-सनकादि ऋषियों ने भगवान के दर्शन किए और चले गये, जय और विजय कुछ वर्षों के बाद मर गये. श्राप के अनुसार उसे अगले जन्म में दानव की यौनी प्राप्त थी.
अतः वे मृत्यु के बाद ऋषि कश्यप के घर हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु के रूप में जन्म लिया. बड़े होकर उन्होंने समस्त देवताओं को ललकार और उनके साथ युद्ध किया. इस घमासान में देवतागण पूरी तरह परास्त हो गये समस्त भूलोक पर दैत्यों का अधिकार हो गया.
हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु ने हुक्म दिया कि हमारे शासन में कोई देवताओं की पूजा पाठ आराधना नही करेगा, सभी लोग उनके नाम का जप करेगा.
यदि किसी देवता या मानव ने उनके हुक्म की अवज्ञा की तो उन्हें पाताल लोक में पंहुचा दिया जाएगा. वे पृथ्वी को रसातल में ले गये, समस्त जीव जन्तु का जीवन संकट में आ गया. जहाँ देखों तहा अथाह सागर ही था.
पृथ्वी व ब्रह्मा की स्रष्टि को समाप्त कर दिए जाने के कारण सभी देवता गण वैकुण्ठ में विष्णु जी के पास गये और उन्हें इस समस्या से निपटने के लिए कोई उपाय खोजने को कहा. विष्णु जी ने उन्हें विश्वास दिलाया कि वो पृथ्वी पर बढ़ रहे पाप के बोझ को समाप्त कर देगे.
उन्होंने वराह अवतार लिया और समुद्र में डूबी पृथ्वी को बचाने के लिए उन्होंने छलाग लगाई और अपनी दाढ़ पर धरा को उठाकर बाहर लेकर आ गये.
जब हिरण्याक्ष ने यह तांडव देखा तो आश्चर्यचकित रह गया. उसने वराह को पराजित करने के लिए सारे अस्त्र शस्त्र चलाए. मगर सारे ही निष्फल होकर गिरने लगे.
तभी उन्होंने हिरण्याक्ष को भी अपनी दाढ़ में उठा लिया और तेज चक्कर लगाकर उसे फेक दिया. जब वह मृत्यु की स्थिति में वराह अवतार के कदमों में गिरा तो उन्हें पिछला जन्म याद आया और उसने विष्णु जी के पैर पकड़ लिए तथा इस दानव यौनी से मुक्ति दिलाने के लिए धन्यवाद् कहने लगा.
वह बोला भगवान आपने मुझे तो श्राप से मुक्ति दिला दी पर मेरे भाई हिरण्यकशिपु का क्या होगा. तब विष्णु बोले अभी तुम्हारा ही वक्त था. जब हिरण्यकशिपु का पाप बढने लगेगा तब मैं नृसिंह अवतार में जन्म लेकर उसे श्राप मुक्त कर दुगा.
भगवान वराह का मंत्र
नमो भगवते वाराहरूपाय भूभुर्व: स्व: स्यात्पते भूपतित्वं देह्येतद्दापय स्वाहा।।
वराह भगवान की पूजा विधि
वराह भगवान की जयंती के दिन खासकर दक्षिण भारत उत्तर भारत के कुछ क्षेत्र मथुरा आदि में साधक बड़ी श्रद्धा व भक्ति के साथ उत्सव मनाते हैं.
वराह भगवान को प्रसन्न करने के लिए भक्त सवेरे जल्दी उठकर नहा धोकर विधि विधान के अनुसार उनकी पूजा कर मन्त्र जाप और भजन कीर्तन करते हैं.
इस दिन मूंगे और चन्दन की माला के साथ वराह मंत्र का माला जाप करने से भगवान जल्दी प्रसन्न होते है तथा साधक की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. मन्त्र जाप के साथ ही शहद शक्कर या गुड़ से 108 बार जाप करने का भी विधान हैं.
वराह जयंती महत्व (Varaha Avatar Jayanti Mahatva)
विष्णु भगवान के पूर्व के दो अवतार मत्स्य और कुर्मा के स्वरूप में थे, अपने तीसरे अवतार में मानव के सिर और देह जानवर की लेकर अवतरित हुए थे वही अपने चौथे अवतार में विष्णु पूर्ण मानव एवं जानवर स्वरूप में अवतरित हुए थे.
विष्णु पुराण में वर्णित कथा के अनुसार असुरो के आदि पुरुष कश्यप की पत्नी दिति ने दो बेटो को जन्म दिया हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष.
जब हिरण्याक्ष पृथ्वी को डुबोने के लिए रसातल में ले जाकर छुपाना था तो उसे बचाने के लिए वराह रूप में अवतरित विष्णु शैतान के हाथों पृथ्वी को बचाकर ब्रह्माण्ड में भूदेवी की स्थापना करते हैं.
ऐसी मान्यता है कि इस असुर का दक्षिण भारत में शासन था, कठोर तपस्या द्वारा इसने ब्रह्मा से युद्ध में मानवों से अजेय और अमरता का वरदान प्राप्त किया था. ऐसे में भगवान विष्णु के अर्द्ध मनुष्य के रूप में अवतरित होना पड़ा था.
पहली और दूसरी सदी के वराह मंदिर यूपी के मथुरा में हैं. गुप्तकाल की वराह मूर्तियाँ एवं शिलालेख प्राप्त होते हैं, वही 10 वीं सदी की वराह मूर्तियाँ खुजराहो, उदयपुर एवं झाँसी आदि स्थानों से प्राप्त हुई हैं.