आहड़ सभ्यता उदयपुर का इतिहास Ahar Civilization In Hindi

आहड़ सभ्यता उदयपुर का इतिहास Ahar Civilization In Hindi: वर्तमान में उदयपुर जिले में स्थित आहड़ दक्षिणी पश्चिम राजस्थान की कांस्ययुगीन संस्कृति का मुख्य केंद्र था.

यह संस्कृति बेडच बनास की घाटियों में विकसित हुई थी. आहड़ की सभ्यता पांच हजार वर्ष पुरानी है.

आहड़ सभ्यता उदयपुर का इतिहास Ahar Civilization In Hindi

आहड़ सभ्यता उदयपुर का इतिहास Ahar Civilization In Hindi

विभिन्न उत्खनन के स्तरों से पता चलता है कि प्रारम्भिक बसावट से लेकर 18 वीं सदी तक यहाँ कई बार बस्तियां बसी और उजड़ी.

ऐसा लगता है कि आहड़ के आस-पास तांबे की उपलब्धता होने से सतत रूप से इस स्थान के निवासी इस धातु के उपकरण बनाते रहे और उन्हें एक ताम्रयुगीन कौशल केंद्र बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

लगभग 500 मीटर लम्बे धूलकोट का टीला आहड़ सभ्यता का प्रमुख केन्द्रीय स्थान था. ताम्बे की कुल्हाड़ियाँ प्रस्तर के औजार, अर्धकिमती प्रस्तर की वस्तुएं आदि सामग्री आहड़ से प्राप्त हुई है.

यहाँ की नगर योजना के अंतर्गत मकानों की योजना में आंगन या गली या खुला स्थान रखने की व्यवस्था थी. एक मकान में 4 से 6 बड़े चूल्हों का होना आहड़ में वृहत परिवार या सामूहिक भोजन बनाने की व्यवस्था पर प्रकाश डालते है.

आहड़ से खुदाई से प्राप्त बर्तनों तथा अनेक खंडित टुकड़ो से हमे उस युग में मिटटी के बर्तन बनाने की कला का अच्छा परिचय प्राप्त होता है.

इस आहड़ संस्कृति (Ahar culture) की व्यापकता एवं विस्तार गिलुण्ड, बालाथल, बांगौर तथा अन्य आसपास के पुरातात्विक स्थानों से प्रमाणित है. इसका सम्पर्क नवदाटोली, नागदा, एरन, कायथा तथा उत्तर गुजरात में कच्छ तक अर्थात इस सभ्यता का संर्पक चार हजार वर्ष पुरानी सभ्यता से भी था.

जो आहड़ से प्राप्त काले व लाल मिटटी के बर्तनों के आकार, उत्पादन व कौशल की समानता से पता चलता है. कुछ समय पूर्व आहड़ के कुछ क्षेत्रों में खनन का कार्य किया गया था.

4 हजार साल पुरानी मिट्टी के तले दबी इस राजस्थानी सभ्यता को दीर्घकालीन उत्खनन से एक बार फिर दुनिया के सामने लाने के प्रयास किये जाने चाहिए.

इस सभ्यता का समयकाल 1900 ईसा पूर्व से 1200 ईसा पूर्व तक माना जाता है. 1953 में भारतीय पुरातत्ववेत्ता अक्षय कीर्ति व्यास के नेतृत्व में इस क्षेत्र की खुदाई का कार्य आरम्भ किया गया था.

ताम्रवती नाम से विख्यात इस सभ्यता को स्थानीय भाषा में धुलकोर कहा जाता है. इसके उत्खनन में हंसमुख धीरजलाल तथा रत्न चन्द्र अग्रवाल का महत्वपूर्ण योगदान रहा.

आहड़ सभ्यता के स्थलों की खुदाई में एक अनाज पीसने की चक्की, छापे, 6 तांबे के सिक्के, 6 संयुक्त परिवार के चूल्हे तथा विभिन्न धातुओं के बर्तन व आभूषन भी प्राप्त हुए है.

आहड़ बनास संस्कृति उदयपुर का इतिहास

राजस्थान के दक्षिण और पूर्व में आहड़ नदी के किनारे 3000 ईसा पूर्व से 1500 ई तक एक नगरीय सभ्यता पनपी जिन्हें आहड़ ताम्र पुरातात्विक संस्कृति कहा गया. इसे बनास संस्कृति भी कहा जाता हैं. यह सिन्धु घाटी सभ्यता की समकालीन सभ्यता थी.

अरावली पर्वत श्रेणियों के बीच बसी इस मानवीय सभ्यता में लोगों के पास औजार और विभिन्न धातुओं की कलाकृतियों बनाने का कौशल विद्यमान था. प्राप्त पुरातात्विक अवशेषों के अनुसार लोग गेहूं और जौ की फसलें उगाते थे तथा ताबे के अयस्कों से कुल्हाड़ी और अन्य हथियार भी बनाने में कुशल थे.

आहड़ को प्राचीनकाल में ताम्रवती के नाम से भी जाना जाता था. वर्तमान में बेडच नदी के क्षेत्र में आहड़ सभ्यता की बसावट थी. 10 वीं सदी में आहड़ को अघाटदुर्ग भी कहा जाता था. वर्तमान में स्थानीय लोग इसे धूलकोट के नाम से जानते हैं.

उदयपुर की आहड़ बनास संस्कृति तकनीकी रूप से उन्नत मानी जाती हैं. यहाँ मिले अवशेषों से यह मालूम पड़ता है कि सभ्यता के लोगों की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार कृषि ही था. ताम्बे के औजार और बर्तन बनाए जाते थे. यहाँ कई सार्वजनिक भवनों और इमारतों के अवशेष भी मिले है जिससे संस्कृति की समृद्धि का अनुमान लगाया जा सकता हैं.

इतिहासकारों ने आहड़ के इतिहास को अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से दो भागों में विभाजित किया हैं. पहले आहड़ दौर की समयावधि 2580 ई पू से 1500 ई पू तक मानी है जिसमें यहाँ के लोग ताम्बे का प्रयोग करते थे.

दूसरा दौर जिसकी अवधि 1000 ई पू के बाद की मानी जाती हैं. इस अवधि में आहड़ के लोगों द्वारा धातु का प्रयोग किया जाता था. यहाँ से खुदाई में कई प्रकार की कलाकृतियाँ, काली पॉलिश किये हुए बर्तन और ब्राह्मी लिपि से अंकित तीन मोहरें भी प्राप्त हुई हैं.

आहड़ के उत्खनन में भेड़, बकरी, बैल, सूअर, कुत्ते आदि जानवरों के कंकाल तथा धान की खेती के अवशेष मिले हैं. इसके अलावा कई शिकार के हथियार भी प्राप्त हुए हैं. सपाट कुल्हाड़ियाँ, अंगूठियाँ, चूड़ियाँ, तार और ताम्बे के बने ट्यूब की कलाकृतियाँ भी मिली हैं.

एक गड्डा भी खुदाई के दौरान प्राप्त हुआ है जिसमें ताम्बे की राख थी, सम्भवत इसे तांबे को गलाने के लिए काम में लिया जाता रहा होगा. टेराकोटा, मनके, चूड़ियाँ और बालियाँ मिलना उस समय के समाज में नारियों के श्रृंगार करने के प्रमाण देता हैं.

आहड़ में मिले बर्तनों में बड़ी विविधता देखी गई हैं. काले और लाल रंग के पके बर्तन इस संस्कृति की विशेषता रहे हैं. यहाँ कम से कम आठ तरह के बर्तन मिले हैं जिनमें काले और लाल रंग पर सफेद पॉलिश तथा भूरा बर्तन और चमड़े के बर्तन भी शामिल हैं.

अब तक आहड़ संस्कृति के 90 से अधिक स्थलों की पहचान की जा चुकी हैं जिनमें गिलुण्ड, आहड़, बालाथल प्रमुख हैं. साल 2003 में गिलुण्ड में हुए उत्खनन में 2100-1700 ई पूर्व की मुहरों का एक भंडार प्राप्त हुआ हैं.

पेन्सिल्वेनिया म्यूजियम और डेक्कन कॉलेज के पुरातत्ववेत्ताओं की टीम को यहाँ 100 से अधिक मुहरों का भंडार प्राप्त हुआ.

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