दादू दयाल का जीवन परिचय | Dadu Dayal Biography in Hindi दादू दयाल मध्यकालीन भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत थे. इनका जन्म विक्रम संवत् 1601 में फाल्गुन शुक्ला अष्टमी को अहमदाबाद में हुआ था.
पूर्व में दादू दयाल का नाम महाबलि था. पत्नी की मृत्यु के बाद ये सन्यासी बन गये. अधिकाशतया ये सांभर व आमेर में रहने लगे.
दादू दयाल का जीवन परिचय | Dadu Dayal Biography in Hindi
पूरा नाम | दादूदयाल |
जन्म | 1544 |
स्थान | अहमदाबाद, गुजरात सल्तनत |
मृत्यु | 1603, आकोदा |
गुरु/शिक्षक | कबीर |
दर्शन | भक्ति |
धर्म | हिन्दू |
दर्शन | भक्ति |
मुख्य रचनाएं | साखी, पद्य, हरडेवानी, अंगवधू |
फतेहपुर सिकरी में अकबर से भेट के बाद आप भक्ति का प्रसार प्रसार करने लगे. राजस्थान में ये नारायणा में रहने लगे. 1603 में वही पर इन्होने अपनी देह का त्याग किया.
दादूदयाल के 52 शिष्य थे इनमे से रज्जब, सुन्दरदास, जनगोपाल प्रमुख थे. जिन्होंने अपने गुरु की शिक्षाएँ जन जन तक फैलाई. इनकी शिक्षाएँ दादुवाणी में संग्रहित है.
दादू दयाल ने बहुत ही सरल भाषा में अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है. इनके अनुसार ब्रह्मा से ओकार की उत्पति और ओंकार से पांच तत्वों की उत्पति हुई. माया के कारण ही आत्मा और परमात्मा के मध्य भेद होता है. दादू दयाल ने ईश्वर प्राप्ति के लिए गुरु को अत्यंत आवश्यक बताया.
अच्छी संगति, ईश्वर का स्मरण, अहंकार का त्याग, संयम एवं निर्भीक उपासना ही सच्चे साधन है. दादू दयाल ने विभिन्न प्रकार के सामाजिक आडम्बर, पाखंड एवं सामाजिक भेदभाव का खंडन किया.
जीवन में सादगी, सफलता और निश्छलता पर विशेष बल दिया. सरल भाषा एवं विचारों के आधार पर दादू को राजस्थान का कबीर भी कहा जाता है.
निर्गुण उपासना के समर्थक संत दादू बाहरी साधना से ध्यान हटाकर व्यक्तिगत साधना पर जोर देते थे. दादू ने ईश्वर की भक्ति को समाज सेवा और मानवीय दृष्टि से जोड़ा. दादू ने अहंकार से दूर रहकर विनम्रता से ईश्वर के प्रति समर्पित रहने की शिक्षा दी हैं.
दादू ने बताया कि ईश्वर की प्राप्ति न केवल प्रेम और भक्ति के माध्यम से ही संभव हैं, बल्कि मानवता के प्रति सेवा से भी संभव हो सकती हैं.
दादू दयाल पहले सांभर व आमेर आकर रहने लगे. जयपुर के पास नरायणा गाँव में इनकी मृत्यु हुई. दादू पंथी गुरु को अधिक महत्व देते थे. इनके शिष्य विभिन्न धर्मों वर्गों एवं जातियों से संबंध थे.
इनकी शिक्षाएं दादू दयाल री वाणी और दादू दयाल रा दूहा में संगृहीत हैं. दादू के अनुसार ब्रह्मा एक हैं और वह सब जगह हैं. sant dadu dayal bhajan दादू दयाल के दोहे से जुड़े अन्य लेख नीचे दिए गये हैं.
शुरूआती जीवन
लोदीराम और बसी बाई के घर सन् 1544 में जन्में संत दादू दयाल जी के जीवन के विषय में अधिक प्रमाणिक जानकारी का अभाव हैं, उनके जीवन, मृत्यु और रचनाओं के विषय में आधार केवल किवदंतियों और कपोल कल्पनाओं पर आधारित ही हैं.
कुछ इतिहासकार इनका जन्म स्थल गुजरात के अहमदाबाद को मानते है जबकि दादू का अधिकतर जीवन राजस्थान में व्यतीत हुआ और अजमेर में उन्होंने अपनी सांस ली थी.
इनके जन्म के विषय में लोक प्रचलित मान्यता यह है कि कबीर की तरह ही इनका जन्म एक कुँवारी ब्राह्मण कन्या के गर्भ से हुआ था.
लोक लाज और सामाजिक मर्यादा के चलते इन्हें साबरमती नदी में बहा दिया, मगर संयोग से लोदीराम नामक एक नागर ब्राह्मण ने इनको बचाकर पालन पोषण किया.
लिहाजा इनके पिता लोदीराम और माँ बसी बाई ही बताई जाती हैं. बताया जाता है कि इनके ग़रीबदास और मिस्कीनदास दो बेटे तथा नानीबाई तथा माताबाई दो बेटियां भी हुई.
संत दादू दयाल की जाति और धर्म
दादू दयाल किस धर्म और जाति के थे, यह प्रश्न उतना ही जटिल और स्रोतहीन है जितना कि संत कबीर के विषय में था.
इनके धर्म को लेकर तरह तरह के मत गढ़े गये है सर्वमान्य मत के अनुसार वे हिन्दू थे मगर उनकी जाति ब्राह्मण थी या निम्न जाति इस पर मतभेद है वही कबीर की तरह दादू को भी मुस्लिम संत बनाने की भरपूर चेष्टा इतिहास में हुई हैं.
दादू के एक प्रसिद्ध शिष्य थे रज्जब जिन्होंने एक दोहा लिखा जो दादू के मत और उनकी मान्यता के विषय में संशय को भी जन्म देता हैं, रज्जब का दोहा इस तरह हैं.
धुनी ग्रभे उत्पन्नो दादू योगन्द्रो महामुनिः। उतृम जोग धारनं, तस्मात् क्यं न्यानि कारणम्।।
इसमें प्रयुक्त पिंजारा शब्द धुनिया जाति का परिचायक हैं यह रुई बुनने वाली जाति हैं. दक्षिण राजस्थान और गुजरात के कई भागों में यह जाति पाई जाती हैं.
वहीँ एक विद्वान् क्षितिजमोहन सेन का दावा है कि दादू दयाल बंगाल से थे, तथा उनका जन्म एक मुसलमान घराने में हुआ था उनका असली नाम सेन दाउद बताते हैं. हालांकि उनके इस दावे की पुष्टि का कोई भी प्रमाण नहीं हैं.
तहाँ मुझ कमीन की कौन चलावै।
जाका अजहूँ मुनि जन महल न पावै।।टेक
स्यौ विरंचि नारद मुनि गाबे, कौन भाँति करि निकटि बुलावै।।
देवा सकल तेतीसौ कोडि, रहे दरबार ठाड़े कर जोड़ि।।
सिध साधक रहे ल्यौ लाई, अजहूँ मोटे महल न पाइ।।
सवतैं नीच मैं नांव न जांनां, कहै दादू क्यों मिले सयाना।।
उक्त पद में दादू अपनी पहचान को भगवान से मिलाने वाली मानते है उसकी राह में समाज एक रोड़ा हैं. वे कहते है ईश्वर की नजर में सभी एक समान हैं मगर आज का समाज मुझे नीच और कमीन कहकर सम्बोधित करता हैं.
उनके इस पद से यह प्रमाणित हो जाता हैं कि भले ही दादू का जन्म किसकी कोख से हुआ मगर समाज ने उन्हें निम्न जाति पिंजारा ही माना.
हो सकता है उन्हें ब्राह्मण बताने वाले मत का जन्म काफी बाद हुआ हो, मगर उनके इस्लाम अपनाने या इस्लाम से उनकी नजदीकियों के बारे में कोई सबूत नहीं मिलता हैं.
इतना जरुर है दादू दयाल ने अपनी रचनाओं में हिन्दू और तुर्क दोनों के ईश्वर खोज के मार्ग को धत्ता बताया हैं. संत दादूदयाल के शिष्य हिन्दू और मुसलमान दोनों थे, मगर इससे उनके मुसलमान होने के बारे में मत रखना कही से भी तर्क सम्मत नहीं हैं.
दादूपन्थ
कबीर जी के अनुयायी होने के कारण दादू दयाल जी आम जन तक उनके संदेश आम जन तक पहुचाते थे. भारत में यदि संत द्वारा शुरू किए किसी पन्थ में जुड़ने वाले लोगों का आंकड़ा दादू पंथ में सर्वाधिक हैं. इस पन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें शामिल होने वाले अधिकतर संत पढ़े लिखे होते हैं.
कई बड़े नाम जिनमें सुंदरदास, जगजीवनदास, निश्चलदास जी को महान दादू पंथी संत कहा जाता हैं. इस पंथ के संतों ने मुख्य रूप से संत साहित्य के ग्रंथों, रचनाओं तथा पदावलियों तथा गुरुवाणियों को संरक्षित कर उनके प्रकाशन तथा संवर्धन का कार्य इन्होने किया.
मृत्यु
संत और लोक कवि दादू दयाल जी का देहावसान करीब 57 वर्ष की आयु में सन 1603 में जेठ सुदी अष्टमी तिथि विक्रम संवत 1660 शनिवार के दिन अजमेर राजस्थान में स्थित नराना गाँव में हुआ था.
कहते है वे स्वेच्छा से जीवन के अंतिम समय में भैराना की पहाड़ियों में बनी एक गुफा में निवास करते थे, और यही पर उन्हें समाधि दी गई.
नराणा गाँव में दादू द्वारा बना हुआ हैं, यहाँ प्रतिवर्ष उनके जन्म दिवस और मृत्यु दिवस के अवसर पर बड़ा मेला भरता हैं, जिस पहाड़ी की गुफा में उनकी समाधि बनी हुई हैं उसे दादू खोल के नाम से जानते हैं. बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहाँ मत्था टेकने पहुचते हैं.
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