सिंचाई के तरीके व साधन Methods Of Irrigation In India In Hindi भारत के अधिकतर क्षेत्रों में कृषि मानसून वर्षा आधारित हैं. वही कई हिस्सों में कृत्रिम रूप से फसलों को पानी देकर फसल उगाई जाती है
तथा कृषि के लिए पर्याप्त जल विभिन्न साधनों जैसे नहर, ट्यूबवेल, तालाब आदि से माध्यम से जलापूर्ति की जाती हैं. आज के आर्टिकल में हम सिंचाई के विभिन्न प्रकार साधनों और विधियों के बारें में जानेगे.
सिंचाई के तरीके व साधन Methods Of Irrigation In India In Hindi
भारत में अधिकतर कृषि मानसूनी वर्षा पर आधारित हैं. कृषि क्षेत्रफल के बड़े भाग पर कृत्रिम तरीकों से फसलों को पानी देकर फसल उगाने का कार्य किया जाता हैं.
अधिकतर सूखे तथा जल की कमी वाले क्षेत्रों में कुँए, तालाब, नहर एवं ट्यूबवेल के जरिये कृषि में जल की आवश्यकता को पूरा किया जाता हैं.
जो कृषि अपनी जल आवश्यकताओं के लिए पूरी तरह वर्षा पर निर्भर करती है उसे वर्षा-आधारित कृषि कहा जाता हैं. सिंचाई पद्धति से की जाने वाली खेती को कृत्रिम अथवा सिंचाई आधारित कृषि कहा जाता हैं.
सिंचाई का महत्व व आवश्यकता (Importance and requirement of irrigation)
जीवित रहने के लिए प्रत्येक जीव को जल की आवश्यकता होती हैं. पौधों के फूल, फल एवं बीज की वृद्धि एवं परिवर्धन के लिए जल का विशेष महत्व हैं.
पौधों की जड़ों द्वारा जल का अवशोषण होता हैं. पौधों में लगभग 90% जल होता हैं. जल आवश्यक हैं, क्योंकि बीजों का अंकुरण शुष्क स्थति में नही हो सकता.
जल में घुले हुए पोषकों का स्थानातरण पौधे के प्रत्येक भाग में होता हैं. यह फसल की पाले एवं गर्म हवा से रक्षा करता हैं. स्वस्थ फसल की वृद्धि के लिए खेत में नियमित रूप से जल देना आवश्यक हैं.
विभिन्न अंतराल पर खेत में जल देना सिंचाई कहलाता हैं. सिंचाई का समय एवं बारम्बारता फसलों, मिट्टी एवं ऋतु के अनुसार भिन्न भिन्न होती हैं. गर्मी में पानी देने की बारम्बारता अपेक्षाकृत अधिक होती हैं.
सिंचाई के स्रोत (Sources of irrigation)
कुँए, नलकूप, तालाब, झील, नदियाँ, बाँध, नहर आदि जल के स्रोत हैं. कुओं, झीलों एवं नहरों में उपलब्ध जल को खेतों तक पहुचाने के तरीके भिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न हैं.
इन विधियों में मवेशी अथवा मजदूर किए जाते हैं. ये सस्ते हैं, परन्तु काम में दक्ष हैं. विभिन्न पारम्परिक तरीके (Traditional methods) निम्न हैं.
- मोट (घिरनी)
- चैन पम्प
- ढेकली
- रहट (उतोलक)
जल को ऊपर खीचने के लिए सामान्यत पम्प का उपयोग किया जाता हैं. पम्प चलाने के लिए डीजल, बायोगैस, विद्युत् एवं सौर ऊर्जा का उपयोग किया जाता हैं.
सिंचाई के तरीके व साधन- Methods Of Irrigation In India In Hindi
पुराने जमाने से आज तक लगातार कृषि क्षेत्र की सिंचाई के साधन और उनकी विधियों में मूलभूत बदलाव आ चूका हैं. आदि से जिन परम्परागत साधनों से फसलों की सिंचाई की जाती थी, वे आज के किसानों के लिए काफी मुश्किल भरे और जटिल बन चुके हैं.
पहले रहट, कुए बेडी और ढेकुली की मदद से खेतों में पशुओं को जोतकर पानी दिया जाता था. वही आज तरीके काफी उन्नत हो गये ट्यूबवेल, सौलर पम्प की मदद से किसान आसानी से खेतों की सिंचाई कर पाते हैं. भारत का कुल क्षेत्रफल 32.8 करोड़ हैक्टेयर भूमि क्षेत्र हैं.
इसका महज 51 प्रतिशत भाग यानी करीब 16.2 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र कृषि योग्य हैं. उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार देश में कुल कृषि भूमि के 28 प्रतिशत हिस्से यानी करीब 4.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि क्षेत्र पर सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हैं. इस प्रकार शेष 72 प्रतिशत कृषि भूमि की सिंचाई का एकमात्र साधन मानसून आधारित वर्षा ही हैं.
सिंचाई की आधुनिक विधियों द्वारा हम जल का उपयोग मितव्ययता से कर सकते हैं, ये विधियाँ निम्न हैं.
- छिड़काव तंत्र (Sprinkler System)– इस विधि का उपयोग असमतल भूमि के लिए किया जाता हैं. जहाँ पर जल कम मात्रा में उपलब्ध होता हैं. उधर्व पाइपों के उपरी सिरों पर घूमने वाले नोजल लगे होते हैं. ये पाइप निश्चित दूरी पर एक मुख्य पाइप से जुड़े होते हैं. जब पाइप की सहायता से जल उपरी पाइप में भेजा जाता हैं तो वह घूमते हुए नोजल से बाहर निकालता हैं. इसका छिड़काव पौधों पर इस प्रकार होता हैं, जैसे वर्षा हो रही हो.
- ड्रिप तंत्र (Drip System)- इस विधि में जल बूंद बूंद कर पौधों की जड़ों में गिरता हैं. अतः इसे ड्रिप तंत्र कहते हैं. फलीदार पौधों, बगीचों एवं वृक्षों को पानी देने का यह सर्वोत्तम तरीका हैं. इससे पौधों को बूंद बूंद करके जल प्राप्त होता हैं. इस विधि से जल व्यर्थ नही होता हैं. अतः यह जल की कमी वाले क्षेत्रों के लिए एक वरदान हैं.
- कटवाँ या तोड़ विधि (Cut or break method)- यह सिंचाई का परम्परागत तरीका हैं, इसमें नहर अथवा तलाब के जल को खेत में एक नाले के द्वारा जोड़ा जाता हैं. मुख्य रूप से धान की फसलों में इस विधि का अधिक उपयोग किया जाता हैं. इस पद्धति में प्रवाहित जल अबाधित रूप से ढ़लान के अनुसार बहकर चला जाता हैं. इस विधि से जल का अपव्यय अधिक मात्रा में होता हैं.
- थाला विधि (Lease method)- यह भी परम्परागत विधि हैं, जिसमें मुख्य से बागवानी अथवा वृक्षों को पानी देने के लिए इसका उपयोग किया जाता हैं. पेड़ के चारों ओर गोल अथवा चोकोर आकृति का घेरा (गड्डा) बनाया जाता हैं. उस गड्डे में जल को प्रवाहित कर भर दिया जाता हैं. जब पेड़ छोटा होता हैं तो गड्डा भी छोटे आकार का बनाया जाता हैं, पेड़ के बढ़ने के साथ साथ इस गड्डे के आकार को भी बढ़ा दिया जाता हैं.
- नहर से सिंचाई– देश में अंग्रेजी काल और उससे पहले राजाओं के दौर से नहरें बनाई जाती थी. आज भी नहरों की मदद से देश के बड़े भूभाग में सिंचाई की जाती हैं. करीब चालीस प्रतिशत कृषि भूमि को नहरों की मदद से सींचा जाता हैं. देश के उत्तरी, मैदानी और डेल्टा क्षेत्रों में नहरों का बाहुल्य हैं. समतल भूमि और निरंतर जलापूर्ति सिंचाई के इस माध्यम को अधिक कारगर बनाते हैं.
- कुएं एवं नलकूप- चिकनी बलुई मिट्टी वाले क्षेत्र जहाँ वर्षा जल रिसकर धरातल में चला जाता है वहां विशेषकर कुँए और नलकूपों की मदद से सिंचाई की जाती हैं. भारत में गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, राजस्थान और यूपी में कुल सिंचाई के 50 प्रतिशत भाग की पूर्ति कुँए और ट्यूबवेल करते हैं. हरियाणा, बिहार, तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश तथा कर्नाटक में भी बड़े स्तर पर नलकूपों से सिंचाई होती हैं. आजादी के समय देश में ट्यूबवेल की संख्या तीन हजार के करीब थी जो अब 60 लाख से अधिक हो गई है सर्वाधिक संख्या उत्तर प्रदेश में हैं.